18 फ़रवरी 2010

संचार क्रान्ति के दौर में भाषा

विवेक जायसवाल

यह बात आज किसी से छिपी हुई नहीं है कि हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जब संचार के साधनों ने अपना असीम विस्तार कर लिया है। यह यकायक घटने वाली कोई घटना नहीं है बल्कि सम्पूर्ण विश्व में इसकी एक लम्बी परम्परा रही है। आज दुनिया का कोई ऐसा कोना नहीं बचा है जिसके बारे में जानना हमारे लिए असम्भव हो। भूमण्डलीकरण और संचार के साधनों के विकास के कारण सम्पूर्ण विश्व लगातार परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। संचार साधनों के इस विकास को सूचना क्रान्ति से नवाज़ा गया है। आज हर व्यक्ति के पास इस संचार क्रान्ति का कोई न कोई उत्पाद जरूर मौजूद है, जिसका उपयोग वह नित्य प्रतिदिन करता है। यह सच है कि संचार साधनों के विकास ने मनुष्य को पहले से अधिक गतिशील और कार्यकुशल बनाया है पर इसने भाषा और संस्कृति पर जोरदार हमला भी किया है।
टेलीविजन, कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, इंटरनेट, फैक्स मशीन, टेलीप्रिन्टर इत्यादि इसी संचार क्रान्ति की ही देन हैं। यदि हम इस क्रान्ति के भाषाई सम्बन्धों पर बात करें तो इन सारी तकनीकों में किसी न किसी रूप में भाषा का इस्तेमाल होता है। इनमें प्रयुक्त की जाने वाली भाषा का न तो कोई मानक है और न ही कोई आचार संहिता। जिस तकनीक में जो भाषा सुगम लगी उसमें उसी भाषा को अपना लिया जाता है।
देश के संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय का यह दावा है कि भारत के सॉफ्टवेयर इंजीनियरों ने कंप्यूटर तथा सूचना प्रौद्योगिकी के विकास और प्रसार में अपने योगदान का लोहा दुनिया भर में मनवा लिया है। देशी-विदेशी मुद्रा कमाने में इस विकास ने भले ही योगदान दिया हो पर भारत के लोगों के लिए इसका कोई खास फायदा नजर नहीं आता। इसका फायदा तभी नजर आएगा जब देश के अधिकांश लोग इन तकनीकों का भारी पैमाने पर इस्तेमाल करना शुरू करेंगे और यह फायदा तभी संभव होगा जब भारतीय भाषाओं को ध्यान में रखते हुए इन तकनीकों का निर्माण किया जाएगा। कम्प्यूटर को ही लें। कम्प्यूटर में आज भारतीय भाषाओं के फाण्ट सम्बन्धी समस्याएँ बनी हुई हैं। भारतीय भाषाओं के फाण्ट कम्प्यूटर पर सहज रूप से नहीं उपलब्ध हैं। समस्या यह है कि उत्पादन के स्तर पर भारतीय भाषाओं के फाण्ट्स कम्प्यूटर पर नहीं डाले जाते। इस्तेमाल करने वाले लोग अपनी-अपनी जरूरतों के अनुसार अपनी-अपनी भाषाओं के फाण्ट्स डाल लेते हैं। बाजार में सैकड़ों फॉन्ट्स उपलब्ध हैं जिन्हें खरीदा भी जाता है, मुफ्त डाउनलोड भी किया जा सकता है। अनेक संस्थानों ने अपने लिए विशेष फॉन्ट्स विकसित भी कर लिए हैं। यहां तक तो ठीक है, लेकिन जब भारतीय भाषाओं में सूचनाओं के आदान-प्रदान की कोशिश की जाती है, तो असफलता ही हाथ लगती है। इस असफलता के बाद हमें सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए अंग्रेजी पर ही निर्भर होना पड़ता है। सवाल यहां यह है कि जब हम तकनीकी रूप से सक्षम हैं तो भारतीय भाषाओं के फाण्ट सम्बन्धी समस्या से सीधे तौर क्यों नहीं निपटा जा सकता?
यह समस्याएँ तो हुई तकनीकों के उत्पादन के स्तर पर। लेकिन व्यावहारिक स्तर पर भाषा की समस्याएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। भाषा पर दिनोंदिन हमला बढ़ता जा रहा है। एक तरफ हम अपनी भाषा को आगे ले जाने की बात करते हैं तो दूसरी तरफ उन्हें साम्राज्यवादी भाषा अंग्रेजी द्वारा पुन: हथिया लिया जाता है और यह काम हमारे ही जनमाध्यम बड़ी तेजी से कर रहे हैं। सूचना क्रान्ति के आने से जनमाध्यमों का तेजी से विकास हुआ। चाहे वह इलेक्ट्रानिक माध्यम हों या मुद्रित माध्यम भाषा पर हमला सभी जगह जारी है। उदाहरण के तौर पर आज की फिल्मों, विज्ञापनों और पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी के रूप में हिन्दी गायब है। किसी बात को सीधे तौर हिन्दी में न कहकर उसमें अंग्रेजी का मिश्रण करके कहा जा रहा है। यदि हम ध्यान दें तो हम अंग्रेजी चैनलों, पत्र-पत्रिकाओं, फिल्मों में ऐसा नहीं पाएँगे। दरअसल यह साम्राज्यवादी मानसिकता के तहत भाषा पर किया गया हमला है। यहां पुन: वही सवाल उठता है कि क्या आखिर ऐसा क्या है? जो हमें अपने लोगों के लिए अपनी भाषा में कुछ कहने या सुनने नहीं देता। इस तथाकथित सूचना क्रान्ति (तथाकथित यहां इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं नहीं मानता कि यह वास्तव में कोई क्रान्ति है) की आड़ में किए जा रहे भाषाई हमले के प्रति हमें जागरूक होना होगा ताकि हमारी अपनी भाषा का अस्तित्व बरकरार रहे।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के जनसंचार विभाग में कनिष्ठ शोध अध्येता हैं।)
संचार क्रान्ति के दौर में भाषा
-विवेक जायसवाल
यह बात आज किसी से छिपी हुई नहीं है कि हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जब संचार के साधनों ने अपना असीम विस्तार कर लिया है। यह यकायक घटने वाली कोई घटना नहीं है बल्कि सम्पूर्ण विश्व में इसकी एक लम्बी परम्परा रही है। आज दुनिया का कोई ऐसा कोना नहीं बचा है जिसके बारे में जानना हमारे लिए असम्भव हो। भूमण्डलीकरण और संचार के साधनों के विकास के कारण सम्पूर्ण विश्व लगातार परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। संचार साधनों के इस विकास को सूचना क्रान्ति से नवाज़ा गया है। आज हर व्यक्ति के पास इस संचार क्रान्ति का कोई न कोई उत्पाद जरूर मौजूद है, जिसका उपयोग वह नित्य प्रतिदिन करता है। यह सच है कि संचार साधनों के विकास ने मनुष्य को पहले से अधिक गतिशील और कार्यकुशल बनाया है पर इसने भाषा और संस्कृति पर जोरदार हमला भी किया है।
टेलीविजन, कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, इंटरनेट, फैक्स मशीन, टेलीप्रिन्टर इत्यादि इसी संचार क्रान्ति की ही देन हैं। यदि हम इस क्रान्ति के भाषाई सम्बन्धों पर बात करें तो इन सारी तकनीकों में किसी न किसी रूप में भाषा का इस्तेमाल होता है। इनमें प्रयुक्त की जाने वाली भाषा का न तो कोई मानक है और न ही कोई आचार संहिता। जिस तकनीक में जो भाषा सुगम लगी उसमें उसी भाषा को अपना लिया जाता है।
देश के संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय का यह दावा है कि भारत के सॉफ्टवेयर इंजीनियरों ने कंप्यूटर तथा सूचना प्रौद्योगिकी के विकास और प्रसार में अपने योगदान का लोहा दुनिया भर में मनवा लिया है। देशी-विदेशी मुद्रा कमाने में इस विकास ने भले ही योगदान दिया हो पर भारत के लोगों के लिए इसका कोई खास फायदा नजर नहीं आता। इसका फायदा तभी नजर आएगा जब देश के अधिकांश लोग इन तकनीकों का भारी पैमाने पर इस्तेमाल करना शुरू करेंगे और यह फायदा तभी संभव होगा जब भारतीय भाषाओं को ध्यान में रखते हुए इन तकनीकों का निर्माण किया जाएगा। कम्प्यूटर को ही लें। कम्प्यूटर में आज भारतीय भाषाओं के फाण्ट सम्बन्धी समस्याएँ बनी हुई हैं। भारतीय भाषाओं के फाण्ट कम्प्यूटर पर सहज रूप से नहीं उपलब्ध हैं। समस्या यह है कि उत्पादन के स्तर पर भारतीय भाषाओं के फाण्ट्स कम्प्यूटर पर नहीं डाले जाते। इस्तेमाल करने वाले लोग अपनी-अपनी जरूरतों के अनुसार अपनी-अपनी भाषाओं के फाण्ट्स डाल लेते हैं। बाजार में सैकड़ों फॉन्ट्स उपलब्ध हैं जिन्हें खरीदा भी जाता है, मुफ्त डाउनलोड भी किया जा सकता है। अनेक संस्थानों ने अपने लिए विशेष फॉन्ट्स विकसित भी कर लिए हैं। यहां तक तो ठीक है, लेकिन जब भारतीय भाषाओं में सूचनाओं के आदान-प्रदान की कोशिश की जाती है, तो असफलता ही हाथ लगती है। इस असफलता के बाद हमें सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए अंग्रेजी पर ही निर्भर होना पड़ता है। सवाल यहां यह है कि जब हम तकनीकी रूप से सक्षम हैं तो भारतीय भाषाओं के फाण्ट सम्बन्धी समस्या से सीधे तौर क्यों नहीं निपटा जा सकता?
यह समस्याएँ तो हुई तकनीकों के उत्पादन के स्तर पर। लेकिन व्यावहारिक स्तर पर भाषा की समस्याएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। भाषा पर दिनोंदिन हमला बढ़ता जा रहा है। एक तरफ हम अपनी भाषा को आगे ले जाने की बात करते हैं तो दूसरी तरफ उन्हें साम्राज्यवादी भाषा अंग्रेजी द्वारा पुन: हथिया लिया जाता है और यह काम हमारे ही जनमाध्यम बड़ी तेजी से कर रहे हैं। सूचना क्रान्ति के आने से जनमाध्यमों का तेजी से विकास हुआ। चाहे वह इलेक्ट्रानिक माध्यम हों या मुद्रित माध्यम भाषा पर हमला सभी जगह जारी है। उदाहरण के तौर पर आज की फिल्मों, विज्ञापनों और पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी के रूप में हिन्दी गायब है। किसी बात को सीधे तौर हिन्दी में न कहकर उसमें अंग्रेजी का मिश्रण करके कहा जा रहा है। यदि हम ध्यान दें तो हम अंग्रेजी चैनलों, पत्र-पत्रिकाओं, फिल्मों में ऐसा नहीं पाएँगे। दरअसल यह साम्राज्यवादी मानसिकता के तहत भाषा पर किया गया हमला है। यहां पुन: वही सवाल उठता है कि क्या आखिर ऐसा क्या है? जो हमें अपने लोगों के लिए अपनी भाषा में कुछ कहने या सुनने नहीं देता। इस तथाकथित सूचना क्रान्ति (तथाकथित यहां इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं नहीं मानता कि यह वास्तव में कोई क्रान्ति है) की आड़ में किए जा रहे भाषाई हमले के प्रति हमें जागरूक होना होगा ताकि हमारी अपनी भाषा का अस्तित्व बरकरार रहे।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के जनसंचार विभाग में कनिष्ठ शोध अध्येता हैं।)

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