01 जनवरी 2010

इस अंक के सदस्य

संपादक - धीरेन्द्र प्रताप सिंह
संपादन मण्डल - अम्ब्रीश त्रिपाठी , रंजीत कुमार सिंह
शब्द-संयोजन - अमितेश्वर, करुणा निधि, योगेश उमाले
वेबसाइट लिंक – कुमारी अर्चना देवी
वेब-प्रबंधन - अमितेश्वर कुमार पाण्डेय



संपादक के की-बोर्ड से

प्रयास भाषा विद्यापीठ की एक महत्वपूर्ण शोधपरक पत्रिका है। इसके अंतर्गत प्रत्येक अंक में हम भाषा और प्रौद्योगिकी से संबंधित तमाम विषयों को उठाने का प्रयास करते हैं। इनके विषय पूर्ण रूप से ’भाषा’ से ही संबंधित होते हैं, ऎसा हमारे अपने साथियों से कई बार सुनने को मिल जाता है,और यह भी कि यह पत्रिका केवल भाषा से ही संबंधित तथ्यों को प्रस्तुत करती है, बाकी अन्य विषयों की नहीं। एसी टिप्पणियों के लिए मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि ऎसा बिल्कुल नहीं है कि यह पत्रिका केवल भाषायिक संदर्भों को ही समेटे हुए है। हमारा मानना है कि हमें किसी भी कार्य को व्यवस्थित रूप से करना चाहिए। ऎसी स्थिति में ’भाषा’ शब्द की परिधि इतनी छोटी नहीं है कि उसको पॉंच-छ: अंकों में समेटा जा सके, क्योंकि आज हमारे समाज में, हमारे अपने बीच भाषा की सांप्रदायिकता कोई नई समस्या नहीं है…।
अभी हाल ही में एक भारतीय भाषा वैज्ञानिक देवी प्रसन्न पटनायक(D. P. Patnayak) से किसी ने साक्षात्कार में पूछा कि भाषा और राजनीति में गहरा संबंध क्या है? उनका जवाब था- भाषा चाहे व्यक्ति अथवा समूह की पहचान बने, संप्रेषण के रूप में मानी जाए या फिर सांस्कृतिक आदान-प्रदान, आर्थिक सहयोग अथवा राज्यों के गठन का कारण बने, ये सभी बातें राजनीतिक जोड़-तोड़ से नियंत्रित होती हैं। राजनीति चाहे व्यक्ति की हो, विकास कि हो या समानता-असमानता की हो, भाषा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इसके अलावा सामाजिक गतिशीलता के परिणामस्वरूप विभिन्न राज्यों में रहने वाले भाषाई अल्पसंख्यकों की जिंदगी पर दॄष्टिपात करें तो पता चलता है कि वह पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र या पंजाब में रहने वाले हिन्दी भाषी की अपनी भाषा के वजह से ही अलग सामाजिक पहचान की जाती है। दूसरी तरफ वे हिन्दी राज्यों में भी अपनों की तरह नहीं देखे जाते। बढ़ती जटिलता का एक अन्य उदाहरण है- पढ़े-लिखे लोग अब कम हिन्दी बोल पा रहे हैं। वे बिना अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग किए हिन्दी नहीं बोल पाते। ऎसी स्थिति में हम भाषा की जटिलता को कहॉं तक समझ पाए हैं, यह एक विचारणीय प्रश्न है। बहरहाल…
यह तो भाषा और राजनीति, भाषा और समाज के बीच अंत: संबंध की एक रूपरेखा बस थी लेकिन इस आधुनिक समय में हम भाषा से सामान्य से अधिक अपेक्षाएं रखते हैं। ज्ञान-प्रसार के वर्तमान परिदॄश्य ने भाषा की क्षमताओं में भी अभिवृद्धि की है और विज्ञान की नित नई मांगों और चुनौतियों का सामना करने के लिए भाषा को न केवल मानव की आवश्यकताओं को पूरा करना पड़ रहा है, बल्कि मशीन और कंप्यूटर की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भी अपने को तैयार करना पड़ रहा है। कौन-से प्रयोग, कौन-से प्रतिबंध और कौन-से भाषिक-अभाषिक अभिलक्षण व्यक्त भाषा रूप और संरचना को नियंत्रित या नियमित करते हैं, यह जटिल प्रश्न आज कंप्यूटर-साधित अधिकांश भाषा-कार्यक्रमों के सामने चुनौती के रूप में खड़ा है। इसलिए आज भाषा विश्लेषण के ऎसे मॉडलों की तीव्रता से खोज रही है। जिनके विवरण और सूत्र कंप्यूटर की ’बुद्धि’ को सहज बोधगम्य और ग्राह्य हों।
इन विभिन्न क्षेत्रों में आज भाषा का अध्ययन कहॉं खड़ा है, प्रयास का यह अंक इस उद्धेश्य को ध्यान में रखकर प्रस्तुत है। प्रयास के इस अंक में हम सभी विद्वजनों को भाषा के सैद्धांतिक अवधारणाओं के अंतर्गत कुछ प्रमुख लेखों से अवगत करा रहे हैं जो कि निश्वित ही भाषा को साहित्य, राजनीति, समाज, दर्शन या अन्य विषयों से जोड़ती है। ऎसा माना जाता है कि सिद्धांतों की कसौटी पर उतरने वाले विचार ही किसी विशेष क्षेत्र को सर्वव्यापकता प्रदान करते हैं। इस अंक में साहित्य और भाषा, समाज और भाषा, भाषाई-चिंतन जैसे लेखों के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि भाषा की परिधि सीमित नहीं विस्तृत है, जिसे हमें समझने की आवश्यकता है।
धीरेन्द्र

महाभाष्य, प्रथम अध्याय में निरुपित शब्द स्वरूप

कुमारी अर्चना देवी
एम.फिल., भाषा-विद्यापीठ
म.गा.अ.हि.वि.,वर्धा
महर्षि पतंजलि कृत ’महाभाष्य’ 84 आह्निकों (अध्यायों) में विभक्त व्याकरण महाभाष्य है। प्रथम अध्याय ’पस्पशा’ आह्निक के नाम से जाना जाता है जिसमें शब्द स्वरूप का निरूपण किया गया है।
’अथ शब्दानुशासनम' से शास्त्र का प्रारंभ करते हुए पतंजलि मुनि ने शब्दों के दो प्रकार बताए हैं – लौकिक एवं वैदिक। लौकिक शब्द जैसे- गौ, अश्व, पुरुष, शकुनि अर्थात् पशु, पक्षी एवं मनुष्य आदि को लिया है तथा वैदिक शब्द जैसे- अग्निमीळे पुरोहितम् आदि वैदिक मन्त्रों को लिया है।
उदाहरणार्थ ’गौ’ शब्द का वर्णन करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जब ’गौ’ बोला जाता है तो वास्तव में उसमें शब्द क्या होता है ? स्पष्टीकरण में वे कहते हैं कि ’गौ’ के शारीरिक अवयव खुर, सींग को शब्द नहीं कहा जाता है, इसे द्रव्य कहते हैं। इसकी शारिरिक क्रियाओं को भी शब्द नहीं कहते हैं, इसे क्रिया कहते हैं। इसके रंग (शुक्ल, नील) को शब्द नहीं कहते, यह तो गुण है। यदि दार्शनिक दृष्टिकोण से यह कहा जाय कि जो भिन्न-भिन्न पदार्थों में एकरूप है और जो उसके नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता, सब में साधारण,अनुगत है वह शब्द है तो ऎसा नहीं है, इसे जाति कहते हैं।
वास्तविक रूप में, जो उच्चरित ध्वनियों से अभिव्यक्त होकर खुर, सींग वाले गौ का बोध करता है, वह शब्द है। अर्थात् लोक-व्यवहार में जिस ध्वनि से अर्थ का बोध होता है वह ’शब्द’ कहलाता है। सार्थक ध्वनि शब्द है।
इसी शब्दार्थ बोधन को भर्तृहरि ने ’स्फोट’ कहा। शब्द वह है, जो उच्चरित ध्वनियों से अभिव्यक्त होता है और अभिव्यक्त होने पर उस-उस अर्थ का बोध कराता है।

भाषा-चिंतन

अमितेश्वर कुमार पाण्डेय
शोध-छात्र, भाषा विद्यापीठ
म।गा.अ.हि.वि., वर्धा
जे. वि. वोलोशिनोव द्वारा रचित पुस्तक ‘Marxism and Philosophy of Language’ जिसका अनुवाद ’मार्क्सवाद और भाषा का दर्शन’ विश्व्नाथ मिश्र द्वारा किया गया है, से लिए गए कुछ अंश के आधार पर यह शोध-पत्र प्रस्तुत किया गया है।

भाषा के अध्धययन की प्राचीनतम अवस्थाएं हमें प्राचीन यूनान और भारत में देखने को मिलती हैं । भारत में ऎन्द्र, शाक्तायन, य़ास्क आदि वैयाकरणों की पाणिनी पूर्व समय में लंबी परंपरा थी । वी.एन. वोलोशिनोव के अनुसार 5वीं-4थी शताब्दी ई.पू. में अफलातून के दार्शनिक संवादों में पहली बार विचारों को पाठ (Text) में रूपांतरण की परिकल्पनाअओं की एक पूरी व्यवस्था दिखती है। अफलातून का कहना था कि “वस्तुओं का सार तत्व (वस्तुगत विचार) आत्मगत मानव-संज्ञान में विविध पक्षों से परावर्तित होता है और उसी के अनुरूप विभिन्न नामों द्वारा निरूपित होता है। अरस्तु (4थी शताब्दी ई. पू.) ने भाषा को तर्कशास्त्र का पूरक अंग मानते हुए भी भाषा को अफलातून से अधिक महत्व दिया । अरस्तु पहले क्लासिकी (शास्त्रीय) चिंतक थे जिसने व्याकरणिक रूपों की समस्या को छुआ और शब्दों की विभिन्न व्याकरणिक कोटियों के लिए एक शब्दभेद-सिद्धांत विकसित किया । अरस्तु की तर्कशास्त्रीय-भाषावैज्ञानिक अवधारणा का आधार है – शब्द-अवधारणाओं (logoi) की व्यवस्था जो प्रवर्गों में बंट जाती है और अंत में वह उद्गारों (विचारों) और निर्णयों और उनके पूर्वापर संबंधों के विभिन्न प्ररूपों का विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
पाणिनी (5वीं-4थी शताब्दी ई.पू.) ने अफलातून और अरस्तु द्वारा आम दार्शनिक चिंतन के तन्तुबद्धीकरण की प्रक्रिया में भाषा पर चिंतन की प्रवृति से अलग हटकर भाषा-प्रश्न को एक स्वतंत्र-स्वायत्त प्रश्न के रूप में उठाया। व्याकरण की प्रसिद्ध पुस्तक ’अष्टाध्यायी’ के रचयिता पाणिनी ने अर्थ-विज्ञान (semantics) की किसी प्रणाली के बगैर ही संस्कृत के स्वर-विज्ञान (phonetics), आकृति/रूप-विज्ञान (Morphology), शब्द-संरचना और वाक्य-विन्यासगत तत्वों पर विस्तार से विचार किया। शब्द के मूल, प्रत्यय और धातु की अवधारणाएं तथा शब्दरूपों के निर्माण की अवधारणा प्रस्तुत करने वाले पहले व्यक्ति पाणिनी थे। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने यादॄच्छिक प्रतीकात्मक वर्णनात्मक भाषा का
प्रयोग किया। कई स्तरों पर पाणिनी का व्याकरण आधुनिक समय के भाषाशास्त्रीय अध्ययनों के स्तर का है।
19वीं शताब्दी से पहले तक समाज-विज्ञान या मानविकी की एक पॄथक शाखा के रूप में भाषा-विज्ञान का कोई अस्तित्व नहीं था। 18वीं शताब्दी के अंत तक यह तर्कशास्त्र से अलग नहीं माना जाता था। उस समय तक दर्शनशास्त्र और तर्कशास्त्र के एक अंग के तौर पर, चिंतन की अभिव्यक्ति के एकीकृत, सार्वभौमिक साधनों का अध्ययन भाषा-विज्ञान का विषय था। मानव-समाज की समस्त भौतिक एवं आत्मिक गतिविधियों का मुख्य आधार संकेत-प्रणाली के रूप में भाषा के विकास, उसकी प्रकृति और संरचना के अध्ययन के साथ-साथ, अव्यवस्थित ढ़ंग से ही सही, पर शताब्दियों तक दार्शनिक इन प्रश्नों पर भी विमर्श करते रहे कि भाषा किस सीमा तक मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग, विशिष्ट बनाती है और किस हद तक यह सामाजिक परिघटना है।
भाषा के संदर्भ में यह धारणा मार्क्सवाद के जन्म से पहले ही मान्यता प्राप्त कर चुकी थी कि भाषा एक सामाजिक परिघटना है जो मानव के क्रिया-कलापों के समन्वय का साधन (माध्यम) है। वी. एन. विलोशिनोव के अनुसार – ऎतिहासिक भौतिकवाद ने भाषावैज्ञानिक चिंतन को आगे बढ़ाते हुए उपरोक्त धारणा में यह बात जोड़ी कि भाषा सामाजिक उत्पादन के विकास के दौरान जन्म लेती है तथा उत्पादन-संबंधों के कुल योग के आधार पर जीवन की जो आम सामाजिक-बौद्धिक-राजनीतिक प्रक्रिया गतिमान होती है, उसका माध्यम बनने के साथ ही, उसके दौरान,उसके साथ-साथ, निरंतर विकसित भी होते रहती है।
उपरोक्त मत पर आज के संदर्भ में भाषा-विज्ञान के विकास का अध्ययन करते हुए ध्यान दिया जाए तो यह बहुत ही सटीक लगता है । भाषा-विज्ञान के विकास की अगली मंजिल १८वीं शताब्दी के अंत में ’ऎतिहासिक-तुलनात्मक अध्ययन पद्धति’ का भाषा-विज्ञान से जुड़ना है, जिसे भाषा-विज्ञान की परिपक्व अवस्था माना गया है। इसी ऎतिहासिक-तुलनात्मक भाषा-विज्ञान में १९वीं शताब्दी में एक और प्रशाखा ’नवव्याकरणवाद’ (Neogrammerianism) आया जिसका आधारभूत सिद्धांत जर्मन भाषावैज्ञानिक ओस्थोप और बुगमान ने अपनी पुस्तक ’Morphological studies in the Indo-Uropian Language’ (भाग-1,1878-1910) में तथा एच. पॉल ने ’ Principal of the History of the Language’ (1880) में प्रस्तुत किया। इन पुस्तकों को नवव्याकरणवाद का घोषणा-पत्र भी कहा जाता है।
नवव्याकरणवाद के साथ ही भाषावैज्ञानिक अध्ययन के विषय के भाषा और मानसिक स्थिति-संरचना के रूप में जारी विभाजन की प्रवृति भी सामने आई और भाषावैज्ञानिक अध्ययन में एक नकारात्मक प्रवृति यह विकसित हुई कि भाषा के तंत्र के सामग्रिक अध्ययन का स्थान अनेक छोटे-बड़े विश्लेषण (जैसे-ध्वनियॉं, शब्द-रूप आदि) ने ले लिया। इस दौरान व्यक्तिगत मनोविज्ञान और व्यक्तिगत वक्तृत्व (speech) की भूमिका बढ़ा-चढ़ा कर देखी जाने लगी और व्यक्ति के वक्तृत्व (speech) को “एकमात्र भाषा-वैज्ञानिक यथार्थ” की मान्यता दी जाने लगी।
इस उपरोक्त संकट ने एक नई विचारधारा – संरचनावादी भाषाविज्ञान को जन्म दिया।
वास्तव में 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में, मानविकी के क्षेत्रों में विषयों और वस्तुओं की आंतरिक संरचना को प्रकट करने वाली एक ठोस वैज्ञानिक पद्धति के रूप में संरचनावाद का जन्म प्रत्यक्षवादी विकासक्रमवाद (Positivist-evolutionism) की प्रतिक्रिया के तौर पर हुआ था और इसी के समांतर संरचनावादी भाषाविज्ञान का विकास नवव्याकरणवाद के प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ था।
क्रमश: …

शब्दार्थ संबंध : वैयाकरण मत

चंदन सिंह
शोध-छात्र, भाषा-विद्यापीठ,
म.गा.अ.हि.वि.,वर्धा
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि अर्थ का बोध कराने के लिए शब्द की व्यावहारिक उपयोगिता है, जैसा कि - ’अर्थगत्यर्थ: शब्द: अर्थसंप्रत्यथिष्यतिति शब्द: प्रयुज्यते।’ किन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि सभी शब्दों से सभी अर्थों का बोध नहीं होता अपितु किसी निश्चित शब्द से किसी निश्चित अर्थ का ही बोध होता है, अन्य असम्बद्ध अर्थ का नहीं। ऎसी स्थिति में शब्द और अर्थ के मध्य एक ऎसे संबंध को स्वीकारना होगा जो निश्चित शब्द से निश्चित अर्थ के बोध का नियामक हो। अन्यथा किसी भी शब्द से किसी भी अर्थ का बोध संभव मानना होगा।
ऎसी स्थिति में एक स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि इस संबंध का स्वरूप क्या होगा? वैयाकरणों ने शब्द और अर्थ के मध्य तादात्म्य संबंध स्वीकार किया है। तादात्म्य का लक्षण स्पष्ट करते हुए प्रसिद्ध वैयाकरण नागेश्वर भट्ट कहते हैं कि –
तादात्म्यं च तद्भिन्न्त्वे सति तदभेदेन प्रतीयमानत्वमिति भेदाभेद समनियतम।
अभेद्स्याध्यस्त्त्वाच्य न तर्योविरोध:।
- परमलघुमंजुसा,पृ. 255
अर्थात् ’उससे भिन्न होते हुए उसके अभेद की प्रतीति होना’। इसलिए तादात्म्य ’भेदाभेद समनियत’ है। अभेद आरोपित होता है, इसलिए इन दोनों में विरोध नहीं है।
तात्पर्य यह है कि अर्थ शब्द से भिन्न भी होता है और अभिन्न भी। जो अर्थ जिस शब्द से भिन्नाभिन्न होता है उस शब्द से उस अर्थ का बोध होता है, अन्यों का नहीं।
पुन: वैयाकरणों के मतानुसार शब्दार्थ संबंध शब्द की योग्यता पर निर्भर करता है। भर्तृहरि ने कहा है कि –
इन्द्रियाणां स्वविषयेष्वेवसनादियोग्यता।
अनादिरर्थे: शब्दानां संबंधो योग्यता तथा।
- वाक्यपदीय,3.3,28
अर्थात् जिस प्रकार चक्षुरिन्द्रियों की स्वाभाविक योग्यता प्रत्यक्ष कराना है उसी प्रकार शब्द की स्वाभाविक शक्ति अर्थ-बोध कराना है। साथ ही वैयाकरणों ने शब्दार्थ संबंध को नित्य स्वीकार किया है। इस संबंध में महर्षि पतंजलि का मत है कि –
’संबंधस्यापि व्यवहारपरंपरयाsनादित्वान्नियता’
- महाभाष्य प्रदीप 1.1.1
अर्थात् कोई भी यह नहीं जानता कि इस संबंध का आरंभ कब हुआ, यह परंपरा से चला आ रहा अनादि एवं नित्य संबंध है। भर्तृहरि ने कहा है कि – यह संबंध सदैव से ही रहा है, अन्यथा किसी भी शब्द से किसी भी अर्थ का बोध हो जाता।
शब्देनार्थस्याभिधाने संबंधो हेतु:, अन्यथा सर्व सर्वेण प्रत्यायते।
- वाक्यपदीय, खण्ड 3, हेलराजा व्याख्या

वैयाकरण शब्दार्थ संबंध को सामयिक स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। वे इस संदर्भ में एक सुक्ष्म भेद भी करते हैं ।उनके अनुसार शब्द की शक्ति और शब्द के साथ अर्थ के संबंध में पार्थक्य है। शब्द के द्वारा जिस अर्थ का बोध होता है, उस शक्ति को वाच्च-वाचक-भाव कहते हैं तथा यह संबंध तादात्म्य कहलाता है। यद्यपि शब्द अपनी स्वाभाविक शक्ति से अर्थ-बोध कराने में सक्षम होता है, तथापि अर्थ-बोध तब तक नहीं हो सकता, जबकि यह स्पष्ट न कर दिया जाए कि इस शब्द का इस अर्थ से संबंध है।
स्मरणीय है कि जब वैयाकरण शब्दार्थ संबंध को तादात्म्य कहते हैं तो उनका तात्पर्य बुद्दिस्थ शब्द और अर्थ से होता है। वे शब्द का तादात्म्य वाह्य अर्थ के साथ स्वीकार नहीं करते।
यद्यपि व्यावहारिक जगत् में शब्द और अर्थ का पार्थक्य ही स्वीकृत है, परन्तु मानसिक चिंतन की अवस्था में शब्द अपने बौद्धार्थ के साथ एकाकार हो जाता है।
अर्थात् वैयाकरण मतानुसार शब्द और अर्थ में भेद भी है और अभेद भी । इसी कारण इनका तादात्म्य ’भेदाभेद स्वरूप’ है।

कोशकारिता के सिध्दांत

परमान सिंह,
शोध-छात्र, भाषा-विज्ञान विभाग,
बी.एच.यू., वाराणसी
किसी भाषा भी के कोशों में आवश्ययक, समस्या तथा उपयुक्तता,जो कोश विचारात्मक रूप से प्रस्तुत करते हैं उनके आधार पर वैभिन्यता होती है। यद्यपि वे बहुत सी कसौटियों पर वैभिन्यता रखते हैं किन्तु कोशकारिता के स्वीकृत सिध्दांतों पर कहीं न कहीं साम्यता जरूर दिखाते हैं। कोश के निर्माण से पूर्व ही उन सिध्दांतों का निर्णय हो जाना चाहिए, जिनके आधार पर कोश का निर्माण किया जाता है।
सामान्यतया: कोशकारिता के चार स्वीकृत सिध्दांत जो नीचे निम्नवत् हैं-
1. विस्तार या गहनता
2. एकरूपता
3. विवेचनात्मक या निर्देशात्मक
4. कालक्रमिक या एककालिक
कोश का निर्माण उपर्युक्त सभी या कुछ ही सिध्दांतों का पालन करते हुए किया जा सकता है। कोश निर्माण सिध्दांत का चुनाव, जिसका अनुकरण किया जाना है वास्तव में एक विचारसाध्य कार्य है। इसका चुनाव करते समय बहुत सी बातें जैसे- प्रयोक्ता, आदर्श, प्रकृति, समस्या, आकार, वित्त की उपलब्धता, समय, आवश्यकता इत्यादि को ध्यान में रखना जरुरी है।
1. विस्तार या गहनता- कोशकारिता में विस्तार से तात्पर्य उस क्षेत्र से है,जिसमें से कोश निर्माण के लिए शब्दों का चुनाव किया जाता है,जबकि गहन से तात्पर्य कोश में शिर्ष शब्द के अन्तर्गत जानकारी उपलब्ध कराने से है।
कोश निर्माण में विस्तार के सिध्दांत का पालन करने हेतु, जिस भी क्षेत्र से शब्द चुने जाते हैं उस क्षेत्र विशेष के सभी शब्दों का चुनाव किया जाना चहिए। उदाहरण के लिए अगर विषय विशेष हेतु कोश का निर्माण किया जा रहा है, तो उस विषय से सम्बन्धित सारे शब्दों का समावेश उस कोश में होना चाहिए। बिना उचित कारण का निर्देश किये बिना किसी शब्द को छोडना चाहिए, जैसे- सामान्य भाषा के कोश उचित कारण का निर्देश करते हुए अपशब्दों, गालियों, वर्जित शब्दों, कामुक शब्दों को कोश में सम्मिलित नहीं करते हैं।
किसी भी शिर्ष शब्द से सम्बन्धित जानकारी उपस्थित करने के लिए बहुत सी सूचनाएं होती है, जिनकों किसी एक कोश में सम्मिलित कर पाना एक दुरुह कार्य है। कहतें है कि सभी शब्दों का अपना एक संसार और एक कोश में सामान्तया लगभग 10,000 मुख्य प्रविष्टिया होती है वस्ततु: इतने सारे संसार को एक कोश में समादित करना असम्भव है। इसलिए कोश के गहनता के सिध्दांत का पालन एक दुरुह स्वप्न है। प्राय: सारे कोश पूर्व परिभाषित प्रकृति, साधित प्रयोक्ता, एवं आकार को ध्यान में रखते हुए नितान्त ही आवश्यक और संबंधी जानकारी ही शिर्ष शब्द के अन्तर्गत उपलब्ध कराते है। अगर कोई कोश इस संबंध में संक्षिप्ता का सिध्दांत नहीं अनुकरण करता है तो यह एक संभावना बनी रहती है कि प्रयोक्ता इच्छित जानकारी पाने में असफल रहें।
हैंक महोदय ने ठीक ही कहा है कि दूसरे विद्वताजन्य विषयों के विरूध्द कोशकारिता सामन्यता: गहनता की अपेक्षा विस्तार के सिध्दांत का अनुपालन करती है।

2 एकरूपता
एक आदर्श कोश को प्रस्तुतिकरण के साथ-साथ coverage के स्तर पर भी एकरूपता रखना चाहिए। प्रस्तुतिकरण के स्तर पर एकरूपता लाने के लिए उच्चारण, वर्तनी, शब्द चुनाव, संक्षेपण इत्यादि के लिए किसी विशेष नियम का निर्धारण आवश्यक है। यह नियम कोश निर्माण के प्रारंभ से ही निर्देशित होनी चाहिए एवं इसका पालन कोश के अंत तक करना चाहिए। शीर्ष शब्द हो या परिभाषा, एकरूपता के सिध्दांत का अनुसरण करते हुए इसका अनुपालन करना चाहिए।
लिप्यंतरण के आधार पर एकरूपता की बानगी द्रष्टव्य है। हिन्दी वर्णों को रोमन में लिप्यंतरित करने की तीन रीतियाँ अपनाई जाती हैं:
आ (a:, a, A)
ई (i:, ī, I)
ण (n, η, )
च (c, t∫)
हिंदी कोशों में पंचमाक्षर एवं कारक चिहृनों के लेखन भी दो तरह से किए जाते हैं। इन दोनों में से जिस भी रीति का प्रयोग कोश में किया जाए, वह कोश में सव्रवयाम्त होना चाहिए।
बवअमतंहम के स्तर पर भी कोश में भी एकरूपता के सिध्दांत का अनुसरण आवश्यक होता है। उदहारण के तौर पर यदि हम हिंदी भाषा का सामान्य कोश बना रहे हैं तो उसमें बोलीगत शब्दों क्या स्थान है। यदि हिंदी के किसी बोली के शब्द सम्मिलित किए जा रहें हैं तो वस्तुत: हिंदी के विभिन्न मौजूद बोलियों में किस बोली के शब्द को सम्मिलित किया जा रहा है और क्योंकि इस वस्तुस्थिति से उपयोक्ता को कोश के प्रारंभिक सामग्री (front matter) में ही अवगत कराना होगा तथा उन बोली के शब्दों को प्रत्येक स्तर पर उपस्थित करना होगा।
3 विवेचनात्मक या निर्देशात्मक
शुरूआती दौर के एकभाषिक कोशों का मुख्य उद्देश्य शब्दों की विवेचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत करना था। 18 वीं शताब्दी में विशेषत: फ्रांस और व्रिटेन के बुध्दजीवी वर्ग ने सोचा कि उनकी भाषा अपने विकास के चरमोत्कर्ष पर है और इसमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन से भाषा का ह्रास होगा। भाषा के इस तथाकथित पतन को रोकने की जिम्मेदारी कोशकारों ने अपने कंधो पर लिया और निर्देशात्मक कोशों के निर्माण के नये युग का सूत्रपात हुआ। इस प्रकार के कोशों में भाषा के सभी स्तर पर मानक प्रयोग का निर्देश होता था और भाषा के अमानक प्रयोग के प्रयोगों को रोका जाता था।
जहां तक विवेचनात्मक कोशों की बात है, वे कोश समाज के बहुतायत लोगों में बहुतायत प्रचलित भाषा भाषिक प्रयोगों की व्याख्या पर आधारित होता है। आधुनिक युग में यह सिद्धांत भाषा के अद्यपतन कार्पस से संबधित और कार्पस का भाषा के मानक-अमानक, अच्छे-बुरे इत्यादि प्रयोगों से कोई मतलब नहीं है। कापर्स तो सिर्फ यह बताता है कि भाषा के दोनों रूप समाज में मौजूद है। लेकिन कापर्स उसकी आवृति (frequency) को जरूर इंगित करता है, जिससे यह पता चलता कि भाषा के किस रूप का प्रचलन उस भाषिक समाज में बहुतायत में है।
जगुस्ता महोदय ने अपनी किताब में निर्देशात्मक कोशों के बारे में उल्लेख करता हुए लिखा है कि इनका उद्देश्य भाषा को स्थिर करना और भाषा में ह्रास के प्रतीक परिवर्तन को रोकना है। निर्देशात्मक का सिध्दांत भाषा के सर्वोत्तम प्रयोगों पर आधारित है, जिसमें भाषा के सर्वोत्तम प्रयोग से तात्पर्य समाज के पढ़े-लिखे एवं प्रतिष्ठित लेखकों के भाषिक प्रयोग से सम्बंधित है। लेकिन यह एक पक्षीय प्रश्न है कि भाषा जो कि काल, स्थान एवं परिस्थियों के आधार पर परिवर्तित होती ही रहती है किस अधिकार से भाषा के अच्छे एवं बुरे प्रयोगों को निर्देशित किया जाता है।
लेकिन इस तथ्य को सभी कोश कुछ हद तक कुछ भाषिक प्रयोगों विशेषत: वर्तनी एवं उच्चारण के लिए निर्देश करते हैं, पूर्णत: नकारा नही जा सकता। भाषा की शुध्दता को बनाये रखने के लिए कोशकार उपलब्ध, उच्चरण, वर्तनी एवं शब्दों में से शुध्द एवं मानक का चुनाव करता है। लेकिन इस चुनाव में भी उस व्यक्ति विशेष (कोशकार) के पसंद और नापसंद भाषा के प्रयोग के प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता है।
जैसा कि ऊपर के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि कोशकारिता के दोनों सिध्दांतों में से किसी एक या तो विवेचनात्मक या तो निर्देशात्मक का अनुपालन कोश निर्माण में किया जाता है अधिकतर कोशकार इस बात से सहमत है कि उनका कार्य शब्दों की व्याख्या करना है न कि अच्छे बुरे प्रयोगों का निर्धारण करना है पुन: हैक्स महोदय के शब्दों में कोशकार भाषा में क्या घटित हो रहा है। इसकी व्याख्या करने की आशा कर सकता है न कि भाषा को परिवर्तित करने की।
4 कालक्रमिक या एककालिक- हालांकि कालक्रमिक एवं एककाललिक कोशों के बारे में बहुत सी किताबों एवं लोगों में बृहद विवेचन मिलता है लकिन यहां पर इनका उद्धरण कोशकारिता के सिध्दांत के रूप में किया जा रहा है।
कोशकारिता के इन दो सिध्दांतों, कालक्रमिक या एककालिक में किसी सिध्दांत का अनुपालन कोई विशेष में किया जाना चाहिए। कालक्रमिक सिध्दांत पर बनाया गया कोश एककालिक सिध्दांत का अनुपालन करते हुए बनाये गये कोश की अपेक्षा बृहद होता है। कालक्रमिक कोशों में कुछ विश्वकोश के लक्षण मिलते है इसमें प्रत्येक शब्द का ऐतिहासिक विवेचन प्रस्तुत किया जाता है। शब्द के अर्थों को कालक्रम से संयोजित किया जाता है।
एककालिक कोश के सिध्दांत में काल विशेष में प्रचलित अर्थों को ही रखा जाता है। पुराने अर्थों, अर्थ परिवतनों के बारे में जानकारी उपलब्ध नही कराई जाती। लेकिन कुछ एककालिक कोश शब्दों की व्युत्पति पर प्रकाश डालते हैं, जिससे उनकी उत्पत्ति के बारे में बहुत ही संक्षिप्त जानकारी मिल पाती है।
वर्तमान दौर में कोशों का निर्माण सिर्फ अकादमिक संतुष्टि के लिए किया जा रहा है। प्रकाशक कोश निर्माण शुरू करने से पहले ही वित्तीय फायदों का परिकलन कर लेता है और उसके आधार पर ही कोश पर वित्तीय खर्च करता है और ये सारी बातें उस कोश के लिए उपयुक्त कोशकारिता के सिध्दांत का चुनाव करने में सहायक होती है। यहां तक कोशकारिता के सिध्दांत का चुनाव, कोश का आकार, एवं प्रयोक्ता को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए।
विज्ञापन के इस दौर में प्रकाशक अपने कोश का बाजार बनाने एवं दूसरे कोशों से इसकी सर्वोत्त्मता सिध्द करने के लिए बडे ही आर्कषक ढ़ग से लच्छेदार भाषा में विज्ञापन प्रसारित करते है। लेकिन कभी-कभी पाठकगण उनके दावों एवं कोश में वास्तविक उपलब्ध जानकारी के भारी अंतर को देखकर परेशान हो जाता है और अपने आपको ठगा महसूस करता है।
अत: नया कोश खरीदने से पूर्व उनके प्रकाशित review अवश्य देखना चाहिए एवं यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि कोशकारिता के सिद्धांत या सिद्धांतो का अनुपालन कोश में अद्यतन किया गया है कि नही।

पाणिनी

करूणा निधि,
शोध-छात्रा, भाषा विद्यापीठ
म.गा.अ.हि.वि.वि., वर्धा
पाणिनी (520-460 ई. पू. लगभग)


प्रख्यात वैयाकरण पाणिनी का जन्म 520 ई.पू. शालातुला (Shalatula, near Attok) सिंधु नदी जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, में माना जाता है। चूंकि यह समय विद्वानों के पूर्वानुमानों पर आधारित है, फिर भी विद्वानों ने चौथी, पांचवी, छठी एवं सातवीं शताब्दी का अनुमान लगाते हुए पाणिनी के जीवन काल के अविस्मरणीय कार्य को बिना किसी ऐतिहासिक तथ्य के प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। बावजूद इसके उपलब्ध तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि पाणिनी संपूर्ण ज्ञान के विकास में नवप्रवर्तक के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
किंवदन्तियों के आधार पर पाणिनी के जीवन काल की एक घटना प्रचलित है कि वर्ष नामक एक ऋषि के दो शिष्य कात्यायन और पाणिनी थे। कात्यायन कुशाग्र और पाणिनी मूढ़ वृत्ति के व्यक्ति थे। अपनी इस प्रवृत्ति से चिंतित होकर वे गुरुकुल छोड़ कर हिमालय पर्वत पर महेश्वर शिव की तपस्या के लिए चले गए। लंबे समय के बाद उनके तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें दर्शन दिया और प्रबुध्द होने का आशीर्वाद दिया। इसके बाद वे कभी पीछे मुड़कर नहीं देखे और अपने अथक प्रयास से संस्कृत भाषा का गहन अध्ययन-विश्लेषण किया।
उनकी इस साधना का प्रतिफल भारतीय संस्कृति को 'अष्टाध्यायी' के रूप में प्राप्त हआ है। इसके बाद पाणिनी को 'व्याकरण के पुरोधा' के रूप में भाषाविज्ञान जगत् में उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित किया गया। इन्होंने स्वनविज्ञान, स्वनिमविज्ञान और रूपविज्ञान का वैज्ञानिक सिध्दांत प्रतिपादित किया। संस्कृत भारतीय संस्कृति की साहित्यिक भाषा के रूप में स्वीकृत है और पाणिनी ने इस भाषा और साहित्य को सभी भाषा की जननी का स्थान प्रदान करने में जनक का काम किया। संस्कृत का संरचनात्मक अर्थ है- पूर्ण और श्रेष्ठ। इस आधार पर संस्कृत को स्वर्गीय (divine) भाषा या ईश्वरीय भाषा की संज्ञा प्रदान की गई है। पाणिनी ने इसी भाषा में अष्टाध्यायी (अष्टक) की रचना की जो आठ अध्यायों में वर्गीकृत है। इन आठ अध्यायों को पुन: चार उपभागों में विभाजित किया गया है। इस व्याकरण की व्याख्या हेतु इन्होंने 4000 उत्पादित नियमों और परिभाषाओं को रूपायित किया है। इस व्याकरण का प्रारंभ लगभग 1700 आधारित तत्त्व जैसे संज्ञा, क्रिया, स्वर और व्यंजन द्वारा किया गया है। वाक्यीय संरचना, संयुक्त संज्ञा आदि को संचालित नियमों के क्रम में आधुनिक नियमों के साम्यता के आधार पर रखा गया है। यह व्याकरण उच्चतम रूप में व्यवस्थित है जिससे संस्कृत भाषा में पाए जाने वाले कुछ सांचों का ज्ञान होता है। यह भाषा में पाई जाने वाली समानताओं के आधार पर भाषिक अभिलक्षणों को प्रस्तुत करता है और विषय तथ्यों के रूप में रूपविश्लेषणात्मक नियमों का क्रमबध्द समुच्चय निरूपित करता है। पाणिनी द्वारा प्रतिपादित इस विश्लेषणात्मक अभिगम में स्वनिम और रूपिम की संकलपना निहित है, जिसे पाश्चात्य भाषाविद मिलेनिया ने पहचाना था। पाणिनी का व्याकरण विवरणात्मक है। यह इन तथ्यों की व्याख्या नहीं करता कि लोगों को क्या बोलना और लिखना चाहिए बल्कि यह व्याख्या करता है कि वास्तव में लोग क्या बोलते और लिखते हैं।
पाणिनी द्वारा प्रस्तुत भाषिक संरचनात्मक विधि एवं व्यवहार का निर्माण विविध प्राचीन पुराणों और वेदों को विश्लेषित करने की क्षमता रखता है, जैसे- शिवसूत्र। रूपविज्ञान के तार्किक सिध्दांतो के आधार पर वे इन सूत्रों को विश्लेषित करने में सक्षम थे।
अष्टाध्यायी को संस्कृत का आदिम व्याकरण माना जाता है, जो एक ओर यह निरूक्त, निघंटु जैसे प्राचीन शास्त्रों की व्याख्या करता है तो वहीं दूसरी ओर वर्णनात्मक भाषाविज्ञान, प्रजनक भाषाविज्ञान के उत्स (स्रोत) का कारण भी बनता है। इस दृष्टि से यह व्याकरण भर्तृहरि जैसे प्राचीन भाषाविद् और सस्यूर जैसे आधुनिक भाषाविद् को प्रभावित भी करता है।
आधुनिक भाषाविदों में चॉम्स्की ने यह स्वीकार किया है कि प्रजनक व्याकरण के आधुनिक समझ को विकसित करने के लिए वे पाणिनी के ऋणि हैं। इनके आशावादी सिद्धांतों की प्राक्कल्पना जो विशेष और सामान्य बंधनों के बीच संबंधों को प्रस्तुत करती है वह पाणिनी द्वारा निर्देशित बंधनों से ही नियंत्रित होते हैं।
पाणिनी व्याकरण गैर-संस्कृत भाषाओं के लिए भी यृक्तियुक्त है। इसलिए पाणिनी को गणितीय भाषाविज्ञान और आधुनिक रूपात्मक व्याकरण का अग्रदूत कहा जाता है, जिसके सिध्दांत कंप्यूटर भाषा को विशेषीकृत करने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। पाणिनी के नियम पूर्ण रूप से श्रेष्ठ कहे जाते हैं, क्योंकि ये न सिर्फ संस्कृत भाषा के रूप प्रक्रियात्मक विश्लेषण के लिए सहायक हैं अपितु यह कंप्यूटर वैज्ञानिकों को मशीन संचालन के लिए स्पष्ट नियमों की व्याख्या भी करते हैं। पाणिनी ने कुछ आधिनियमों, रूपांतरण नियम एवं पुनरावृति के जटिल नियमों का प्रयोग किया है, जिससे मशीन में गणितीय शक्ति की क्षमता विकसित की जा सकती है। 1959 में जॉन बैकस द्वारा स्वत्रंत रूप में Backus Normal Form (BNF) की खोज की गई। यह आधुनिक प्रोग्रामिंग भाषा को निरूपित करने वाला व्याकरण है । परंतु यह भी ध्यातव्य है कि आज के सैध्दांतिक कंप्यूटर विज्ञान की आधारभूत संकल्पना का स्रोत भारतीय प्रतिभा के गर्भ से 2500 वर्ष पूर्व ही हो चुका था जो पाणिनी व्याकरण के नियमों से अर्थपूर्ण समानता रखता है।
पाणिनी हिन्दू वैदिक संस्कृति के अभिन्न अंग थे । व्याकरण के लिए उनकी समष्टि एवं तकनिकी प्राकल्पना वैदिक काल की समाप्ति और शास्त्रीय संस्कृत के उद्भव तक माना जाता है। यह इस बात की ओर भी संकेत करता है कि पाणिनी वैदिक काल के अंत तक जीवित रहे। प्रमाणों के आधार पर पाणिनी द्वारा दस विद्वानों का उल्लेख मिलता है जिन्होंने संस्कृत व्याकरण के अध्ययन में पाणिनी का योगदान दिया। यह इस बात की ओर भी संकेत करता है कि इन दस विद्वानों के बाद पाणिनी जीवित रहे लेकिन इसमें कोई निश्चित तिथि का प्रमाण नहीं मिलता वे दस विद्वान कब तक जीवित थे। ऐसे में यह कहने में अतिशयोक्ति न होगी की पाणिनी और उनके द्वारा कृत व्याकरण अष्टाध्यायी संपूर्ण मानव संस्कृति विशेषकर भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। भाषिक संदर्भ में प्राचीन काल से अधुनिक काल तक यह भाषावैज्ञानिक और कंप्यूटर वैज्ञानिकों के अध्ययन-विश्लेषण का विषय रहा है, जिसके परिणाम सैद्धांतिक और प्रयोगात्मक पृष्टभूमि में विकसित प्रौद्योगिकी उपकरणों में देखे जा सकते हैं, जिसकी आधारशिला पाणिनी के अष्टाधायी के रूप में मानव बुद्धि की एकमात्र समाधिशिला बनकर स्थापित है।

बेवजह की भाषाई चिंता

बच्चा बाबू,
शोध छात्र, जनसंचार विभाग,
म.गा.अ.हि.वि.वि. वर्धा
हिंदी भाषा की स्थिति कहने मात्र से ही मन में अनगिनत सवालों का भंवरजाल बनता है। एक प्रश्न यह उठता है कि क्या हिंदी आज सिर्फ वर्चुअल भाषा बन कर रह गई है या सचमुच हिंदी एक सक्षम, संपन्न एवं नई पीढ़ी की भाषा बनकर उभरी है।
पिछले वर्षों में न्युयार्क में हुए हिंदी सम्मेलन में बड़ी उम्मीदें जगाई गईं कि हिंदी अब संयुक्त राष्ट्र की भी अधिकारिक भाषा बन जाएगी। परमाणु शक्ति और विश्व बाजार में अपनी पैठ के बाद भारत की इस भाषा को कुछ वर्षों में यह पद मिल जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। वैसे भी जब दुनिया को स्पेनी और फ्रांसिसी जैसे बहुत कम आबादी से जुड़े भाषाओं को अगर शुरु से ही यह गौरव प्राप्त है तो हिंदी ही वंचित क्यों रहे।
सर्वे कहता है कि हिंदी भाषा से जुड़े लोगों की तादाद दुनिया में दुसरे व तीसरे नंबर पर है। शायद इसलिए अपने राष्ट्र से निष्कासित होकर यह भाषा आज अंतरराष्ट्रीय होने जा रही है। कुछ माह पूर्व गुजरात से यह खबर आई कि सरकार बच्चों को पैदा होते ही अंग्रेजी सिखाने का विशेष अभियान चलायेगी। इस चमत्कारी कदम की सराहना करते हुए एक बड़े हिंदी अखबार ने अपने संपादकीय में उन तमाम हिंदी भाषी प्रदेशों को नसीहत भी दे डाली कि ये हिंदी भाषी राज्य किस अंधकार युग में जी रहे हैं- अंग्रेजी के बगैर।
परन्तु इसके विपरित हिंदी भाषा का एक दुसरा पहलू भी है जो यह कहता है कि हिंदी एक सक्षम, संपन्न एवं नई पीढ़ी की भाषा बनकर उभरी है। यह संसार भर में भाषाई विकास का अनुपम उदाहरण है कि इग्लैंड में अंग्रेजी को जहॉं तक पहुंचने में पॉंच सौ से उपर साल लगे, वहॉं तक पहुंचने में हिंदी को कुल मिलाकर डेढ़ सौ साल लगेंगे। 2050 तक हिंदी संसार की समृद्धतम भाषाओं में होगी। हिंदी ’ग्लोकुलन’ (globligation) के पहिए को वहन करने में सक्षम रही है। हिंदी रघुवीरी युग से निकलकर नए आयाम तलाश रही है और अगर इसका विस्तार हुआ है तो इसलिए कि यह हर दौर में अपने को समय की जरूरतों की वाहिका बनाती रही है।
आजादी के संघर्ष की भाषा के तौर पर हिंदी को अखिल भारतीय समर्थन आरंभ से ही मिल रहा था हिंदी न सिर्फ संवाद की भाषा बनी, बल्कि जनता की पुकार भी बनी। पत्रकारोम ने इसे मांझा और साहित्यकारों ने संवारा। परंतु आज कहा जा रहा है कि हिंदी पत्रकारिता भाषा को भ्रष्ट कर रही है। टी.वी. चैनलों ने तो हिंदी को घोर पतन के कगार पर ला खड़ा किया है मानो अब फिसली तब फिसली। मगर इस तरह की बात करने वाले मित्र यह भूल जाते हैं कि हिंदी लगातार बढ़ रही है तो वह इसलिए कि पिछले दस सदियों से वह अपने आपको हर बदलते समय के सांचे में ढालती रही है। नए समाज की नई जरूरतों के अनुसार नई शब्दावली बनाकर या उधार लेकर समृद्ध होती रही है। खुशी की बात यह है कि अब हिंदी शुद्धताऊ प्रभावों से मुक्त होती जा रही है और रघुवीरी युग को बहुत पीछे छोड़ चुकी है।
मैं नहीं मानता कि हिंदी पत्रकारिता की भाषा भ्रष्ट हो गई है। एक जमाना था जब हिंदी समाचारपत्र दुकानदारों, नौकरों और कम पढ़े-लिखे लोगों के अखबार माने जाते थे आज हिंदी पत्रकार नौजवान पीढ़ी के लिए अखबार निकाल रहे हैं। यह सच है कि नई सोसाइटी में रीडर बदल रहे हैं,भाषा बदल रही है, भाषा नीति में बदलाव आ गया है, टीवी चैनल सरपट दौड़ती जबान में गाड़ी दौड़ा रहे हैं परन्तु इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि हिंदी भ्रष्ट हो रही है।
सूचना प्रौद्योगिकी के दौर में रीयल टाइम की अवधारणा इंटरनेट के संदर्भ में ज्यादा सटीक साबित हुई है। आज हिंदी के लगभग सभी दैनिक समाचारपत्र वेब पर उपलब्ध हैं। हंस, तदभव, मधुमति जैसी कुछ पत्रिकाएं भी इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। यूनिकोड (unicode) पद्धति के आने से वेब पर फॉन्ट की समस्याओं का निदान काफी हद तक हुआ है।
भारतीय अर्थव्यवस्था का लाभ उठाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियॉं अपना विज्ञापन हिंदी में देना ज्यादा लाभदायक समझ रही हैं, क्योंकि उन्हें अहसास हो गया है कि हिंदी में विज्ञापन दिए बिना हम इस देश की बहुसंख्यक जनता तक नहीं पहुंच सकते हैं। अर्थात् यह वह समय है जब पुरा विश्व हिंदी की ताकत को स्वीकार करने लगा है। अत: इस नवयुगी हिंदी का स्वागत करें और इसे खुले आसमान में स्वतंत्र उड़ने दें।

भाषा विकास में जिस्ट प्रौद्योगिकी का योगदान

योगेश उमाले,
भाषा विद्यापीठ
म.गा.अ.हि.अवि.वि., वर्धा
लेक्ट्रॉनिकी विभाग द्वारा आरंभ की गई एक परियोजना के अंतर्गत जिस्ट इलेक्ट्रॉनिकी (graphics and Intelligence Based script Technology) का विकास भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपूर में किया गया। इस प्रौद्योगिकी पर आधारित एक एकीकृत देवनागरी टर्मिनल का विकास 1984 में किया गया। जिसका प्रयोग यूनिक्स पर चलने वाले कंप्यूटरों पर किया जा सकता था। बाद में यह महसूस किया गया कि चूंकि सभी भारतीय भाषाएं एक ही ध्वनिक वर्ण की कोटी में आती हैं। इसलिए इसी प्रौद्योगिकी के आधार पर बहुभाषी समाधान का विकास किया जा सकता है। इस पर आगे कार्य किया गया और जिस्ट प्रौद्योगिकी में बहुभाषी संसाधन की क्षमता विकसित करके अंग्रेजी तथा विभिन्न लिपियों का समावेश किया गया।
वर्ष 1998 उन्न्त अभिकलन विकास केन्द्र (C-DAC) के गठन के पश्चात जिस्ट प्रौद्योगिकी पर और आगे विकास का कार्य वहॉं किया गया तथा डॉस (DOS) परिवेश में कार्य करने के लिए डॉस IBM PC अनुरूपी GIST Add-On हार्डवेयर कार्ड का विकास हुआ और साथ ही अंग्रेजी तथा भारतीय भाषाओं की लिपियों के साथ-साथ पर्सों, अरबी, यूरोपीय, रूसी, सिंहल, तिब्बती, भूटानी तथा थाई भाषाओं का भी प्रावधान किया गया। जिस्ट प्रौद्योगिकी में इस समय भारतीय भाषाएं शामिल हैं – 1. असमी, 2. बंगला, 3. हिन्दी, 4. मराठी, 5. गुजराती, 6. गुजराती, 6. कन्नड़, 7. मलयालम, 8. नेपाली 9. उड़िया 10. पंजाबी 11. तमिल 12. तेलगू
जिस्ट प्रौद्योगिकी शब्द संसाधन के लिए स्क्रिप्ट पेज पर तथा डेटा संसाधन के लिए डेटा पेज पर कार्य करती है। इसमें अंग्रेजी के विद्यमान पैकेजों (वर्ड-स्टाट, डीबेस आदि) का इस्तेमाल विभिन्न भारतीय भाषाओं के लिए भी किया जा सकता है। इस प्रौद्योगिकी के लिए INSCRIPT कुंजीपटल का प्रयोग विभिन्न भाषाओं के लिए किया जा सकता है। इसकी एक अन्य विशेषता यह है कि यह ध्वन्यात्मक कुंजीपटल है। अर्थात् किसी शब्द के उच्चारण में वर्ण जिस क्रम में होते हैं, उसको उसी क्रम में टाइप किया जाता है। उदाहरण के लिए “पारदर्शिता” लिखने के लिए टाइप करने का क्रम होगा- प+आ+र+द+अ+र+अ+श+अ+ई+त+आ होगा। इसमें भारतीय भाषाओं के बीच एक लिपी से दूसरी लिपि में परिवर्तन अर्थात् लिप्यांतरण की सुविधा है। मान लिजिए श्री पिल्लै को उत्तर प्रदेश की जनसभा में हिन्दी में भाषण देना है लेकिन वे हिन्दी में पढ़ना या लिखना या धारा प्रवाह रूप से बोलना नहीं जानते। ऎसी स्थिति में हिन्दी में तैयार उनके भाषण का लिप्यंतरण मलयालम लिपि हो जाएगा जो हिन्दी के ही तरह होगा जिसे पढ़ने में कोई कठिनाई नहीं होगी।

भाषा-प्रौद्योगिकी से संबंधित लिंक

कुमारी अर्चना देवी
शोध-छात्रा, भाषा विद्यापीठ
म.गा.अ.हि.वि.वि., वर्धा

http://www.aksharamala.com/hindi/e2h/ -dictionary
http://www.myhinditeacher.com/speaking_l14.htm -hindi teaching
http://language.home.sprynet.com/lingdex.htm - mt and NLP