09 अप्रैल 2009


व्यतिरेकी विश्लेषण और अनुवाद
-हर्षा वडतकर
एम.फिल., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग

भारत एक बहुभाषी देश है। भाषाओं के महत्त्व के कारण भाषा-शिक्षण एक विशेष स्थान रखता है। मातृभाषा के अलावा जब हम दूसरी भाषा सीखते हैं तो इसमें कोई उद्देश्य निहित होता है। व्यापार, संचार, पर्यटन, संप्रेषण, शिक्षण का माध्यम आदि के लिए हम भाषा सीखते हैं। आज की स्थिति में भाषा-शिक्षण जरूरत बन गई है। मानव अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कोई भी अन्य भाषा सीखता है। भाषा सीखते समय ऐसी अनेक समस्याएँ आती हैं, जिनका शिक्षार्थी सीखते समय अनुभव करता है क्योंकि भाषा की संरचनाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। दो भाषाओं का व्याकरण पूरी तरह समान नहीं होता। भाषा के विभिन्न अंगों (ध्वनि, लेखन, व्याकरण, शब्द, अर्थ, संस्कृति) के स्तरों पर दो भाषाओं के बीच समान और असमान तत्त्व मिलतें हैं। यही तत्त्व अन्य भाषा सीखते समय रूकावट पैदा करती हैं। इन तत्त्वों को पहचानकर भाषा सीखना एक जटिल कार्य है क्योंकि नई भाषा को सीखने का अभिप्राय उसमें आचरण करने की सही आदतें विकसित करना है। इन आदतों के साथ-साथ अध्येता को इस भाषा के सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों से परिचित होना है। इस स्थिति में अन्य भाषा सीखते समय आनेवाली समस्याओं को कठिनाईयों को हम व्यतिरेकी विश्लेषण के अंतर्गत रखते हैं क्योंकि आधुनिक भाषाविज्ञान में विश्लेषण की विधियों के विकास के साथ-साथ शिक्षण-क्षेत्र में भाषाविज्ञान के अनुप्रयोगों के जो प्रयास किए गए हैं, उसमें व्यतिरेकी विश्लेषण का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
व्यतिरेक का अर्थ ‘अंतर’ या ‘विरोधात्मक स्थिति’ है। “विभिन्न स्तरों पर दो भाषाओं की संरचनाओं की परस्पर तुलना कर उनमें समान और असमान तत्त्वों का विश्लेषण करना व्यतिरेकी विश्लेषण कहलाता है।”
व्यतिरेकी विश्लेषण का प्रारंभ सुप्रसिद्ध भाषाविद हॉगेन और वाईनरिख (1953) के ‘द्विभाषिकता’ के अध्ययन से माना जाता है। किन्तु इसे सैद्धांतिक आधार देने का श्रेय रॉबर्ट लाडो को दिया जाता है। लाडो ने अपने पूर्ववर्ती भाषाविद फ्रीज (1945) के मत को आधार बनाकर कहा कि “दोनों भाषाओं की तुलना द्वारा समान, असमान और अर्धसमान संरचनाओं का पता लगाया जा सकता है।”१
इस प्रकार व्यतिरेकी विश्लेषण का क्षेत्र दो भाषाओं के बीच विभिन्न स्तरों पर पाई जाने वाली समानता और असमानताओं से संबद्ध भाषावैज्ञानिक सिद्धांत और प्रणाली से है। समानता और असमानता के क्षेत्रों का निर्धारण करने में अनुवाद का व्यतिरेकी विश्लेषण में विशेष योगदान है। दोनों भाषाओं का ज्ञान होने के बावजूद किसी-न-किसी भाषा विशेषकर अपनी भाषा के नियम व्याघात उत्पन्न करते हैं। यहाँ अनुवाद की सहायता से दोनों भाषाओं का अध्ययन किया जाता है क्योंकि व्यतिरेकी विश्लेषण और अनुवाद प्रक्रिया दोनों का संबंध कम-से-कम दो भाषाओं और उनकी तुलनीयता से है।
अत: भाषाओं के विश्लेषण में जो भाषावैज्ञानिक प्रणाली अपनाई जाती है, वह व्यतिरेकी विश्लेषण और अनुवाद प्रक्रिया दोनों पर लागू होती है। इस दृष्टि से अनुवाद का सीधा संबंध व्यतिरेकी विश्लेषण से है।
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भाषाविज्ञान का आधुनिक स्वरूप
- धनजी प्रसाद
एम.ए. भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग

अपने मूल रूप में भाषाविज्ञान भाषा का अध्ययन है। भाषा का यह अध्ययन प्राचीन काल से ही (जैसे- भारत में पाणिनी आदि द्वारा) किया जाता रहा है जो भाषा के नियमों तथा अंगों की चर्चा करते हुए विधि निषेधात्मक रहा है। परन्तु आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भाषा अध्ययन के दृष्टिकोण तथा उद्देश्य में बहुत तेजी से परिवर्तन हुआ है।
सस्यूर से पूर्व यूरोपीय देशों में भाषा का ऐतिहासिक अध्ययन किया जाता था। सस्यूर ने भाषा के एककालिक अध्ययन पर बल दिया। इससे वर्णनात्मक भाषाविज्ञान के रूप में भाषाविज्ञान की एक नई शाखा का जन्म हुआ। सर विलियम जोन्स (1746-1794) ने संस्कृत, ग्रीक और लैटिन के संबन्धित होने की बात कही, इससे तुलनात्मक भाषाविज्ञान के रूप में भाषाविज्ञान की एक और शाखा सामने आई। इस प्रकार आधुनिक भाषाविज्ञान की तीन शाखाएँ होती हैं-
i} वर्णनात्मक भाषाविज्ञान
ii} ऐतिहासिक भाषाविज्ञान
iii} तुलनात्मक भाषाविज्ञान
इनमें वर्णनात्मक भाषाविज्ञान को सबसे प्रमुख माना गया है क्योंकि अन्य दोनों शाखाओं का सम्पूर्ण अध्ययन इसी पर आधारित है। वर्णनात्मक भाषाविज्ञान किसी काल बिन्दु विशेष पर भाषा का, उसके पाये जाने वाले स्वरूप में अध्ययन करता है। उसमें क्या सही और क्या गलत है, का निर्देश नही होता।
किसी भी ज्ञान की आधुनिक व्याख्या उसके उद्देश्यों और अनुप्रयोगों की जानकारी के बिना महत्त्वहीन है। इसका कारण वर्तमान वैश्विक परिवेश का उपभोगवादी दृष्टिकोण है। भाषाविज्ञान भी इससे अछूता नहीं है। भाषाविज्ञान का महत्त्व भी इसमें होने वाले अध्ययन द्वारा प्राप्त ज्ञान के व्यवहारिक उपयोग में निहित है। भाषाविज्ञान के व्यवहारिक उपयोग को जानने तथा उसके अध्ययन के लिए अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान नामक भाषाविज्ञान की एक नई शाखा विकसित हो गई है।
क्रमशः ...

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अक्षर
- रणजीत भारती
एम.ए., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग

हिन्दी भाषा में आमतौर पर अ से ज्ञ तक की ध्वनियों को अक्षर समझा जाता है। परंतु यदि भाषावैज्ञानिक दृष्टिकोण से अध्ययन जाए तो इसके विश्लेषण के और भी पहलू उभर कर आते हैं। यदि शाब्दिक रूप से देखा जाए तो अक्षर वह है जिसका क्षय न हो। परंतु भाषावैज्ञानिक दृष्टि से इसे इस प्रकार परिभाषित किया जाता है - “एक ही श्वास में बिना व्यवधान के उच्चरित ध्वनियों को अक्षर कहते हैं।” एक अक्षर में अधिक से अधिक छ: ध्वनियाँ हो सकती हैं। उदहारण के लिए ‘स्वास्थ्य’ एक अक्षर है जिसमें छ: ध्वनियाँ हैं। इसका विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाता है। ये ध्वनियाँ हैं- स्‌+व्‌+आ+स्‌+थ्‌+य्‌। इसका उच्चारण एक स्वर की सहायता से तथा एक ही श्वास में होता है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि एक स्वर की सहायता से बोली जाने वाली ध्वनियाँ अक्षर होती हैं। स्वर ध्वनियाँ आक्षरिक होती हैं, यानी समस्त स्वर आक्षरिक हो सकते हैं। व्यंजन ध्वनियाँ आक्षरिक नहीं होती क्योंकि बिना स्वर की सहायता के उनका स्वतंत्र रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता। अत: व्यंजन के उच्चारण के लिए एक स्वर की आवश्यकता होती है। अक्षर के निर्धारण में उच्चारण का विशेष महत्त्व है। इस आधार पर अक्षर को इस प्रकार परिभाषित करते हैं-“केवल एक स्वर की सहायता से जितनी ध्वनियों का उच्चारण किया जाता है वे अक्षर कहलाती हैं।” अत: अक्षर एक रूपिम भी हो सकता है और एक शब्द भी। लेकिन यह सभी स्थान पर नहीं हो सकता क्योंकि रूपिम और शब्द तो अर्थवान इकाई है परंतु अक्षर अर्थवान हो भी सकता है और नहीं भी। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से ‘क्लिष्ट’ शब्द का विश्लेषण(क्‌+ल्‌+इ+ष्‌+ट्‌) करने पर एक स्वर होता है। इसलिए यह एक अक्षर है, कोशीय अर्थ देने के कारण एक शब्द भी है तथा एक लघुत्म अर्थवान इकाई होने के कारण रुपिम भी है। परंतु ‘काला’ (क्‌‌+आ+ल्‌+आ) एक शब्द भी है तथा रूपिम भी। पर एक अक्षर नहीं है क्योंकि इसके उच्चारण में स्वर दो बार आते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अक्षर उच्चारण श्वास द्वारा किए गए प्रयत्न पर निर्भर करता है। जैसे-प्रयत्नशीलता (प्र+यत्न+शील+ ता) शब्द का उच्चारण करने में श्वास को चार बार प्रयत्न करना पड़ता है। अत: इसमें चार अक्षर हैं। इस आधार पर अक्षर को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है- “एक ही स्वासाघात के प्रयत्न से उच्चरित ध्वनि समूह को अक्षर कहते हैं।”
अक्षर को इस सूत्र द्वारा भी समझा जा सकता है- यदि स्वर को ‘अ’ और व्यंजन को ‘क’ मान लिया जाए तो :-
अ = अक्षर- इसमें केवल स्वर आएगा। जैसे-अ,आ,इ,ई आदि।
क+अ = अक्षर- इसमें सभी व्यंजन आएँगे लेकिन स्वर के साथ।
जैसे- क = क्‌+अ, ख = ख्‌+अ आदि
क+अ+क2 = अक्षर - इसमें पहले एक व्यंजन, फिर स्वर तथा बाद में दो व्यंजन आते हैं। जैसे- वस्त्र = व्‌+अ+स्‌+त्‌+र्‌ आदि
क2+अ = अक्षर - इसमें संयुक्ताक्षर आते हैं।
जैसे- क्ष= क्‌+श्‌+अ, त्र= त्‌+र्‌+अ,
स्त्री = स्‌+त्‌+र्+ई आदि
क2+अ+क = अक्षर - इसमें दो व्यंजन के बाद स्वर तथा फिर एक व्यंजन आता है। जैसे- क्लेष= क्‌+ल्‍+ए+ष्‌, क्रम= क्‌+अ+र्‌+म्‌ आदि
क2+अ+क2 = अक्षर - इसमें स्वर से पहले दो व्यंजन एवं स्वर के बाद दो व्यंजन आते हैं। जैसे- क्लिष्ट = क्‌+ल्‌+इ+ष्‌+ट्‌, स्पष्ट = स्‌+प्‌+अ+ष्‌+ट्‌ आदि
क2+अ+क3 = अक्षर - इसमें पहले दो व्यंजन फिर स्वर तथा अंत में तीन व्यंजन आते हैं। जैसे- स्वास्थ्य = स्‌+व्‌+आ+स्‌+थ्‌+य्‌ आदि
क+अ+क4 = अक्षर- इसमें पहले एक व्यंजन, फिर स्वर तथा बाद में चार व्यंजन आते हैं। जैसे- वर्त्स्य = व्‌+अ+र्‌+त्‌+स्‌+य्‌ आदि




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वाक्-प्रौद्योगिकी : स्वरूप एवं संभावना
- सौरभ कुमार
एम.ए., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग

सूचना क्रान्ति के इस युग मे कंप्युटर का प्रभाव सर्वत्र दिखता है। फ़लत: मानव दैनंदिन का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग भाषा का क्षेत्र भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहा। भाषा व भूमंडलीकरण के प्रादुर्भाव से भाषा - प्रौद्योगिकी जैसे विचार का जन्म हुआ। भाषा - प्रौद्योगिकी का केन्द्रिय तत्व भाषा है व बाजारवादी प्रवृत्ति की देन प्रौद्योगिकी है एवं दोनों को जोड़ने का सेतु कंप्युटर है। कंप्युटर के माध्यम से प्राकृतिक भाषा को संसाधित कर कृत्रिम मेधा उत्पन्न की जाती है। मानव उच्चरित ध्वनियों को संसाधित करने का कार्य भाषा-प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोगात्मक क्षेत्र वाक्-प्रौद्योगिकी में किया जाता है। इस विधा मे उच्चारण नियम,ध्वनि व्यवस्था,ध्वनि संरचना,,ध्वनि परिवर्तन इत्यादि व अंकीय संकेत प्रक्रमण से ध्वनि-तरंगों के, भौतिक पक्ष (आयाम, समय, तरंगदैधर्य) आदि के अन्त: सम्बन्ध का अध्ययन एवं अनुप्रयोगों का विकास किया जाता है। आज वाक्-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अनेक नवीन सम्भावनाएं उभर कर् आ रही हैं, जिनमें स्वनिम से ग्राफ़िम प्रतिचित्रण, ग्राफिम से स्वनिम प्रतिचित्रण व स्वनिम से स्वनिम प्रतिचित्रण जैसी प्रक्रियाएँ होती हैं। प्रयोगात्मकता की दृष्टि वाक् से पाठ, पाठ से वाक् व वाक् से वाक् में वाक् अभिज्ञान, वाक् संष्लेषण इत्यादि जैसी कृत्रिम मेधा विकसित की जाती है। वाक् प्रौद्योगिकी से संपन्न प्रणालियों का उपयोग वर्तमान समय में रेलवे (IVR system) दूरसंचार, रक्षा, चिकित्सा, शिक्षा, आदि सेवाओं में हो रहा है। इस प्रौद्योगिकी का लाभ सबसे अधिक अनपढ़ लोगों को मिलेगा। सोचिए आपको देश विदेश की जानकारी चाहिए, कृषकों को मौसम, बीज व अनाज के बाजार भाव की जानकारी चाहिए, मगर न तो उन्हें इंटरनेट चलाने आता है न कंप्युटर । किन्तु हताश होने की जरूरत नहीं है, इस प्रौद्योगिकी से सब कुछ संभव है।
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विचार और कार्य
-सत्येन्द्र कुमार
एम.फिल., भाषा- प्रौद्योगिकी विभाग

मस्तिष्क जिस ओर सरलता से नहीं पहुँचता उस ओर कुछ समय तक प्रयास करने के पश्चात्‌ छोड़ देना ही उचित है। उसकी वजह से हमारे सरल और सुगम कार्य प्रभावित न हो क्योंकि जो हमें रूचता है मानसिक प्रकृति के अनुकूल होता है। उसे हम अच्छे अंजाम तक पहुँचा सकते हैं और उसके द्वारा उससे जुड़े विभिन्न आयामों में अपनी विशेषज्ञता को प्राप्त कर सकते हैं। चूँकि एक आशा से दूसरी आशा जुड़ी रहती है, एक इच्छा के बाद दूसरी इच्छा उत्पन्न होती है और इनमें जो चुनने योग्य है या जरूरी है और जो पसंद आती है, इन दो विभिन्न प्रकृति वाले कार्यों में अपनी पहचान को स्थापित करना है। इसलिए आवश्यकता के साथ कुशलता को जोड़ना आना चाहिए।
विचारों की यात्रा में स्थानिक कर्म करना चाहिए। स्थानिक से हमारा तात्पर्य वास्त्विक मूल्यों से है जो वर्तमान परिस्थिति की भविष्य शोधक माँग है, जो भूतकाल से परिष्कृत होती हो, वर्तमान में जीती हो और भविष्य की ओर मानवीय मूल्यों को लेकर मानसिक केन्द्र-बिन्दु और स्थानिक केन्द्र-बिन्दु की कार्य स्थली हो, आचरणीक रूप से व्यवहृत होनी चाहिए।


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फर्डिनांड द सस्यूर

फर्डिनांद द सस्यूर को आधुनिक भाषाविज्ञान के जनक के रूप में जाना जाता है। इनका जन्म सन्‌ 1857 ई. में जेनेवा में हुआ था। इनके पिता एक प्रसिद्ध प्राकृतिक वैज्ञानिक थे। इसलिए उनकी प्रबल इच्छा थी कि सस्यूर भी इस क्षेत्र में अपना अध्ययन-कार्य करें। परंतु सस्यूर की रुचि भाषा सीखने की ओर अधिक थी। यही कारण था कि जेनेवा विश्वविद्यालय में सन्‌ 1875 ई. में भौतिकशास्त्र और रसायनशास्त्र में प्रवेश पाने के पूर्व ही वे ग्रीक भाषा के साथ-साथ फ्रेंच, जर्मन, अंग्रेजी और लैटिन भाषाओं से परिचित हो चुके थे तथा सन्‌ 1872 ई. में “भाषाओं की सामान्य व्यवस्था” नामक लेख लिख चुके थे। पंद्रह वर्ष की आयु में लिखे इस लेख में उन्होंने यह दिखलाने का प्रयत्न किया कि संसार की सभी भाषाओं के मूल में तीन आधारभूत व्यंजनों की व्यवस्था है।
उन्होंने अपना अध्ययन कार्य जेनेवा, पेरिस और लेपजिंग में संस्कृत और तुलनात्मक भाषाविज्ञान के अंर्तगत पूर्ण किया। साथ ही साथ वह लेपजिंग विश्वविद्यालय में नव्य वैयाकरणों (ब्रुगमैन एवं कार्ल बेवर) के संपर्क में आए।
इक्कीस साल की आयु में उन्होंने यूरोपीय भाषाओं की आधारभूत व्यवस्था पर लेख लिखा। इस लेख के अंतर्गत उन्होंने अनेक आधारभूत संकल्पनाओं पर न केवल सैद्धांतिक प्रहार किया वरन्‌ भाषा-संबंधी अनुसंधान के क्षेत्र में प्रणालीगत विश्लेषण की बात भी उठाई।
इनका दूसरा आधार स्तंभ डॉक्टरेट की उपाधि के लिए प्रस्तुत शोध-प्रबंध था। उनके शोध का विषय “संस्कृत भाषा में संबंधकारक की प्रकृति और प्रयोग” था। डॉक्टरेट की उपाधि के बाद ये जर्मनी में और अधिक नहीं रूके क्योंकि इन्हें जर्मनी का सामाजिक और शैक्षिणिक वातावरण पसंद नहीं आया।
सन्‌ 1880 ई. में सस्यूर जर्मनी छोड़कर फ्रांस आए। पेरिस में उन्होंने लगभग दस वर्षों तक ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का अध्ययन किया। कालांतर में वे पेरिस की भाषाविज्ञान संबंधी संस्था के सदस्य बने। जर्मनी से लौटने के बाद एक सक्रिय सदस्य के रूप में नवयुवक भाषाविद्‌ सस्यूर ने समाज में एक महत्त्व्पूर्ण स्थान बना लिया। जेनेवा विश्वविद्यालय में सन्‌ 1907 ई. में उन्हें सामान्य भाषाविज्ञान के अध्यापन का अवसर प्राप्त हुआ। एक वर्ष के अंतराल पर उनहोंने इस विषय में सन्‌ 1907, 1909 एवं 1911 में तीन बार अध्ययन-अध्यापन कार्य किया। यह व्याख्यान माला ही उनकी पुस्तक का आधार बनी, जिसे उनके दो प्रबुद्ध सहयोगियों बेली और सेचहावे ने सन्‌ 1913 ई. में ‘कोर्स ऑफ लिंग्विस्टिक’ नामक जर्नल में संपादित किया। सस्यूर के नोट्स न के बराबर थी, न ही सस्यूर ने अपने जीवन में किताब लिखी।
फरवरी 1913 ई. में 53 वर्ष की अल्पावस्था में सस्यूर की मृत्यु हो गई। अपने जीवन काल में सस्यूर ने स्वयं बहुत कम लिखा। डॉक्टरेट उपाधि के लिए लिखे गए अपने शोध ग्रंथ के अतिरिक्त उन्होंने कोई पुस्तक नहीं लिखी। 4 फरवरी 1854 ई. को लिखे गए उनके एक पत्र से यह संकेत अवश्य प्राप्त होता है कि वे भाषाविज्ञान पर एक सैद्धांतिक पुस्तक लिखना चाहते थे।
अविस्मरणीय भाषाविद्‌ सस्यूर ने अपने जीवन काल में बहुत कम लेखन कार्य किया। पर इतना कम लिख कर भी वे आज भाषा-चिंतन के क्षेत्र में अमर हैं। वे स्वयं इस बात के अनूठे उदाहरण हैं कि अध्यापक- चिंतक के लिए अध्यापन, लेखन अधिक प्रभावकारी हो सकता है।
-प्रस्तुति
गुंजन शर्मा
एम.फिल. भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग
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भाषा: एक व्यवस्था

‘भाषा की व्यवस्था’ पर प्राचीन काल से ही भ्रामक और अव्यवस्थित विचारों का आवागमन होता रहा हैA निश्चय ही इसे समझने और समझाने के क्रम में भाषावैज्ञानिक, काल और स्थान विशेष से बंधकर इसके व्यवस्थित रूप को प्रस्तुत करते रहे हैंA शब्दों के हेर-फेर मात्र से इसे परिभाषित करने की भी चेष्टा की है
चूँकि संदर्भ भाषा की व्यवस्था का है जहाँ ‘भाषा’ व्यवस्था के रूप में है, इसलिए आवश्यक है कि सर्वप्रथम मूल में निहित व्यवस्था को समझा जाए। व्यावस्था एक ऐसी समाज-सापेक्ष स्थिति बिन्दु है, जहाँ पर प्रत्येक व्यक्ति सहमत और संतुलित होता हैA यह संतुलन और सहमति जहाँ टूटती है वहीं अव्यवस्था उत्पन्न होती है।
भाषा के संबंध में भी यही व्यवस्था रूपायित होती है। परंतु भाषा की व्यवस्था समझने के लिए यह समझना भी नितांत आवश्यक है कि हम भाषा को कैसे और क्या समझ रहें हैं? यदि कहा जाए कि भाषा संप्रेषण का माध्यम है, तो यह कहकर भाषा का प्रकार्य स्पष्ट होता है न की भाषा का कोई स्पष्ट रूप प्रस्तुत होता है। संप्रेषण और अभिव्यक्ति का गुण मानव के साथ-साथ मानवेतर में भी पाया जाता है, जहाँ पशु-पक्षी कुछ विशेष संकेतों द्वारा अपने विचारों को प्रस्तुत करते हैं। परंतु सूक्ष्म अंतर द्वारा दोनों की भाषा और उसकी व्यवस्था का मूल्यांकन किया जा सकता है। अंतर यह है कि मानव भाषा में संकेत-प्रणालियों की संख्या और समर्थता अन्य जीवों की तुलना में अधिक होती है। अन्य जीवों की संकेत प्रणाली अनुवांशिक होती है जबकि मनुष्यों की संकेत प्रणाली पीढ़ि दर पीढ़ि मौखिक रूप से हस्तांतरित होती रहती है। मानव-भाषा में इन गुणों की अधिकता का कारण यादृच्छिकता है। चूँकि भाषा की प्रमाणिकता उसके मौखिक रुप में ही समाहित है, इसलिए इसमें प्रायः कृत्रिमता का अभाव होता है। अतएव मानव अपने विचारों की अभिव्यक्ति प्रथमतः मौखिक और फिर लिखित करता है। तात्पर्य यह है कि भाषा का स्वरुप ध्वन्यात्मक होता है।
सस्यूर ने लांग (भाषा-व्यवस्था) और परोल (भाषा-व्यवहार) इन दो संकल्पनाओं के साथ भाषा को ‘प्रतीकों की व्यवस्था’ कहा है। यथार्थ-वस्तु और प्रतीक का संबंध वक्ता और श्रोता के मस्तिष्क में संकल्पना के साथ उपस्थित होता है जिसमें यादृच्छिकता पाई जाती है न कि प्राकृतिकता या नैसर्गिकता। उदहारणस्वररूप ‘घर’ एक यथार्थ-वस्तु है जिसकी संकल्पना मानव-मस्तिष्क में प्रतीक के रूप में है। इसकी अभिव्यक्ति क्रमशः दो भाषिक-प्रतीकों ‘घ’ और ‘र’ ध्वनि द्वारा होती है। इन प्रयुक्त ध्वनि-प्रतीकों का एक निश्चित अनुक्रम है जो सामाजिक सहमति के फलस्वरूप गठित है। जहां अनुक्रम परिवर्तन से सामाजिक सहमति खंडित होती है वहीं व्यवस्था का खंडन होता है। यही भाषा की व्यवस्था कहलाती है।
लेकिन कभी-कभी यथार्थ-वस्तु न होते हुए भी उसकी मानसिक संकल्पना बनी रहती है और उस संकल्पना का प्रतीकीकरण हो जाता है। अमृत, स्वर्ग, नरक आदि ऐसे ही शब्द हैं जिसकी संकल्पना यथार्थ जगत में नहीं है। यद्यपि इन प्रतीकों की व्यवस्था समाज-संदर्भित और परंपरागत होती है तथापि सदृश्य वस्तुओं की संकल्पना मानव की भाषिक क्षमता पर आधारित होती है। इसी का प्रस्तुतीकरण चॉमस्की ने प्रजनक व्याकरण के रूप में किया है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि भाषिक प्रतीक कथ्य और अभिव्यक्ति की समन्वित इकाई है। जैसे- ‘पेड़’ शब्द एक भाषिक-प्रतीक है जिसमें तीन ध्वनि या अभिव्यक्ति की तीन इकाइयाँ हैं- प्‌+ए+ड़्‌। इस शब्द के उच्चारण के साथ ही एक आकृति या छवि उभरकर अर्थ की प्रतीति कराते हैं। परंतु ‘पेड़’ का शाब्दिक-प्रतीक और इसकी आकृति में मात्र यादृच्छिकता का संबंध है क्योंकि यह मनुष्य और मनुष्य के मध्य अनुभवाधारित समाज सहमति का परिणाम है।
भाषा को व्यवस्थाओं की व्यवस्था भी कहा गया है क्योंकि भाषा में प्रत्येक इकाई [स्वन (ध्वनि) से प्रोक्ति तक] की एक व्यवस्था है। उदहारण के लिए हिन्दी भाषा के वर्णमाला को लिया जाए। हिन्दी वर्णमाला में ‘क’ वर्ग, ‘च’ वर्ग एवं ‘ट’ वर्ग के पंचमाक्षर का प्रयोग शब्द के आरंभ में न होकर मध्य और अंत में ही होता है। यह हिन्दी वर्णमाला की एक व्यवस्था है जिसके आधार पर स्वतंत्र और सार्थक प्रतीकों की व्यवस्था भाषिक इकाई के रूप होती है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि यथार्थ, प्रतीक और संकल्पना का समन्वित रूप ही ‘भाषा की व्यवस्था’ की व्याख्या करता है। यथार्थ और संकल्पना में अंतरद्वंद्वता का समावेश ‘दर्शन’ जैसे विषय को भी अत्यंत व्यापक संदर्भ में समाहित करता है। ऐसे में भाषा की व्यवस्था का स्पष्टीकरण ‘भाषा का दर्शन’ जैसे स्तंभ पर आकर होता है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भाषा की व्यवस्था का महत्त्व बढ़ गया है क्योंकि आज यह मानव तक सीमित न रहकर मानव की अद्‌भुत सृष्टि कंप्यूटर के लिए भी एक उपयोगी कार्य कर रहा है। ‘प्राकृतिक भाषा संसाधन’ जैसे क्षेत्र में मानव-मशीन के मध्य संवाद स्थापित करने में व्यवस्था एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। जहाँ एक विशेष ध्वनि-प्रतीकों की व्यवस्था द्वारा मानव-मानव के मध्य संवाद होता है वहीं एक निश्चित क्रमादेशों की व्यवस्था का अनुकरण कर ही मानव-मशीन के मध्य संवाद स्थापित होता है। अंतर मात्र यह है कि प्राकृतिक भाषा की व्यवस्था यादृच्छिक होती है जबकि अप्राकृतिक भाषा अर्थात्‌ कंप्यूटर में प्रयुक्त भाषा यथा- मशीनी भाषा (बाइनरी कोड), प्रोग्रामिंग भाषा (c,c++,java इत्यादि) की व्यवस्था तार्किक होती है।
सारांश यह कि ‘व्यवस्था’ वह सेतु है जो व्यक्ति को व्यष्टि से समष्टि तक जोड़ती है। चूँकि मानव को ‘Homalocans’ अर्थात् ‘भाषा युक्त प्राणी’ कहकर संबोधित किया गया है जो मानव के विकास का प्रबल अस्त्र है। इसलिए कहा जा सकता है कि व्यवस्था की परिधि में ही इस ‘भाषा युक्त प्राणी’ का चौमुखी विकास संभव है।
(भाषा-विद्यापीठ में होने वाले साप्ताहिक संवाद का मूल अंश)
- प्रस्तुति
करुणा निधि
एम.ए., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग
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राष्ट्रीय परीक्षण सेवा (NTS-INDIA)

भारत में पहली बार, विभिन्न शिक्षा आयोगों एवं राषट्रीय शिक्षा नीति/कार्य-योजना (1986) राष्ट्रीय शिक्षा नीति (राममूर्ति समिति, 1990) एवं केन्द्रीय शिक्षा सलाह्कार समिति (1992) विचारित देश की परीक्षण आवश्यताओं को पूरा करने के लिए ‘राष्ट्रीय परीक्षण सेवा’ (NTS) का गठन किया गया है। इस महत्त्व्पूर्ण योजना को कार्यान्वित करने का दायित्व परीक्षण एवं मूल्यांकन केन्द्र (सी.टी. एण्ड ई.) को सौंपा गया है। योजना आयोग की स्वीकृति के बाद मानव संसाधन विकास मंत्रालय(भाषा विभाग), भारत सरकार ने 09/07/06 से प्रारंभिक कार्य करने की अनुमति देने के साथ ही 11वीं पंचवर्षीय योजना में लगभग ५० करोड़ रूपये व्यय करने का व्यवधान इस परियोजना के लिए किया है।
अन्य विषयों तक इसके विस्तार से पहले राष्ट्रीय परीक्षण सेवा प्रथमत: भाषाओं (हिन्दी, तमिल एवं उर्दू और उसके बाद अन्य अनुसूचित भाषाएँ) की विषय-वस्तु से विकसित होगी। आरंभ में शिक्षा के दो स्तरों (बारहवीं एवं स्नातक) को प्राथमिकता दी गई है, बाद में सामान्य शिक्षा के सभी स्तरों को सम्मिलित किया जाएगा। इसको और प्रभावशाली बनाने हेतु देश के पंद्रह राज्यों, संघशासित प्रदेशों में जहाँ ये भाषाएँ प्रयोग में हैं; ६० क्षेत्रीय केन्द्र स्थापित करने तथा प्रतिवर्ष विद्यालयों और समहाविद्यालयों के 5000 शिक्षकों को इससे जोड़ने का प्रस्ताव है।
राष्ट्रीय परीक्षण सेवा के प्रमुख उद्देश्यों में भारतीय भाषाओं में सामान्य शिक्षा के सभी सात स्तरों के लिए श्रेणीबद्ध पाठ्यक्रम का निर्माण उनके अनुप्रयोग हेतु मानकों का विकास, किसी व्यक्ति की भाषा दक्षता-निर्धारण हेतु एक स्तरीय केन्द्रीकृत क्रियाविधि का विकास इत्यादि है। इसके प्रमुख अनुप्रयोगों में राष्ट्रीय स्तर पर भार्तीय भाषाओं के पाठ्यक्रमों में अंतरभाषाई एवं क्षेत्रीय स्तर पर अंत:भाषिक तुलनीयता बनाए रखना; भाषा के पाठ्यक्रमों और उनके शिक्षण में गतिमान संस्थानों को मान्यता प्रदान करना; किसी व्यक्ति की अभिक्षमता को मातृभाषा(द्वितीय भाषा) विदेशी भाषा के संदर्भ में सुनिश्चित करना उन्हें प्रवेश, प्रमाणन और रोज्गार हेतु अपनाना तथा साथ ही ग्रामीण नगर असंतुलन को कम करने हेतु, यथा समय, उपाधियों को रोजगार से पृथक करना है।
राष्ट्रीय परीक्षण सेवा में भारतीय साहित्य व भाषा की उस प्रांतीय विविधता को भी नहीं छोडा गया है, जो उन प्रांतों की अपनी विशेषताएँ हैं। पाठ्यक्रम निर्माण के अंतर्गत क्शेत्रीय भाषागत वैविध्य काभी ध्यान रखा गया है। शहरी क्षेत्रों व देहातों के अंदर एक समान शिक्षा होने के बावजूद भी विद्यार्थियों की बुद्धिमता तुलनात्मक रूप से शहरी विद्यार्थियों से कम होती है। राष्ट्रीय परीक्षण सेवा में अलगाव को कम करने की ओर भी ध्यान दिया गया है।
इस परियोजना से लाभान्वित होने वाले संस्थान, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, कर्मचारी चयन आयोग, लोक संघ सेवा आयोग आदि केन्द्रीय/राज्य शिक्षा परिषद, देशभर के लगभग ३०० विश्वविद्यालय, १७,००० महाविद्यालय और २०,००,००० विद्यालय, १७,००,००० भाषा शिक्षकों (अंतर्वस्तु पर समझ बढ़ाने के लिए) इत्यादि।
११वीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत राष्ट्रीय परीक्षण सेवा अपने २७,००० प्रक्षित कर्मियों एवं २७० क्षेत्रीय इकाइयों के साथ लागू हो जाएगी। राष्ट्रीय परीक्षण सेवा का यह स्वरूप अभी प्रारंभिक दौर में है और आगे इसमें रोजगार एवं शैक्षणिक क्षेत्रों में कुछ नया करने की उम्मीद की जा सकती है।
-सुषमा
पी-एच.डी., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग

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Websites
भाषा-प्रौद्योगिकीय क्षेत्र के कुछ महत्त्वपूर्ण लिन्क

http://www.sil.org/linguistics/GlossaryOfLinguisticTerms/

http://www.linguistlist.org/issues/17/17-3231.html

http://www.lexipedia.in/

http://www.translationdirectory.com/

http://www.tdil.mit.gov.in/


-प्रस्तुति
अम्ब्रीश त्रिपाठी
एम.ए., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग

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जनसंचार माध्यमों में हिन्दी का स्वरूप*
(विज्ञापनों के विशेष संदर्भ में)
हिन्दी का रूप पत्रकारिता में शुरू से बदलता रहा है। खड़ी बोली से शुरू हुई हिन्दी हिन्दुस्तानी से लेकर हिंग्लिश तक परिवर्तित हुई है जो आगे पता नहीं किस रूप में आ जाए। इससे लगता है कि हर ज़माने की अपनी एक फैशनेबल भाषा रही है जिसमें नए शब्द जुड़ते रहे हैं और संरचना भी बदलती रही है।
वास्तव में भाषा का विकास उसके नई संरचनाओं से ही संभव है। इसलिए हर युग में भाषा के रूढ़िपरक और अप्रचलित रूप को त्याग दिया जाता है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं की भाषा के विकास और उसमें गतिशीलता लाने के लिए भाषा की प्रकृति को बिगाड़ दिया जाए या दूसरी भाषा के रूपों को व्यवहार में लाया जाए। भाषा के विकास के लिए प्रयोगशीलता जरूरी है। लेकिन यह संदर्भ से हटकर नहीं हो इसका भी ध्यान रखना चाहिए। इस प्रयोगशीलता को कौन बनेगा करोड़पति- 1 से 3 तक में अच्छी तरह समझा जा सकता है। देखा जाए तो जनसंचार माध्यमों की यह भाषा, भाषा के शास्त्र और लोकभाषा के बीच का द्वन्द्व है।
आज जनसंचार के हर माध्यामों द्वारा प्रयुक्त हिन्दी की संरचना बदलने के पीछे ज्यादातर विद्वानों का मानना है कि यह बदलाव भूमण्डलीकरण और व्यवसायिकता के चलते हो रहा है, क्योंकि हिन्दी एक विशाल क्षेत्र की भाषा है। इतनी विशाल कि जिसमें यूरोप का कोई एक देश समा सकता है। भूमण्डलीकरण/व्यवसायिकता के दौर में विदेशी बाजार इस क्षेत्र के साथ पूरे भारत में छा जाने की कोशिश में रहते हैं और इसके लिए इसका सबसे आसान माध्य्म जनसंचार द्वारा प्रस्तुत विज्ञापन ही हो सकते हैं। इसलिए वे अपने उत्पादों का विज्ञापन हिन्दी में करवा कर लाभ कमाना चाहते हैं। साथ ही उत्पाद को अंतरराष्ट्रीय बताने के लिए हिन्दी में प्रयोग कर मिश्रित भाषा बना देते हैं ताकि उपभोक्ता आकर्षित हों। इस तरह के प्रयोग से हिन्दी की संरचना तो बदलती ही है, वाक्यों में भी व्याकरणिक त्रुटियाँ आ जाती हैं। इतना होने के बाद भी विज्ञापनों की भाषा लोकप्रिय बनी है जिसे हम नकार नहीं सकते, जैसे- ये दिल माँगे more, पप्पू pass हो गया आदि। इसी लोकप्रियता को अन्य माध्यमों मे अपने-अपने तरीके से भुनाया, जैसे- फिल्मों के गाने, न्यूज़ चैनलों की भाषा, टी.वी. सीरियलों के डायलॉग। इसे समाज ने अपनाया भी है।
जनसंचार के विभिन्न माध्यमों द्वारा प्रयुक्त हिन्दी को लेकर आज के जाने-माने पत्रकार ‘प्रभाष जोशी’ कह्ते हैं(साक्षात्कार,बहुवचन अंक-17)- “बिना व्याकरण के कोई भाषा नहीं होती लेकिन व्याकरण कहीं बाहर से नहीं, उसी भाषा का होता है।” पाणिनी ने व्याकरण को बताते हुए लिखा है कि लोग जो बोलते हैं, वही अंतिम कसौटी होती है। इसलिए लिखित भाषा में तो व्याकरण रहेगा, लेकिन बोली में जो भाषा का संस्कार होता है, वह अलग-अलग सवालों पर अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग व्यक्तियों पर निर्भर करता है। व्याकरण कोई थोपने की चीज़ नहीं है, क्योंकि भाषा की अंतिम ताकत उसकी रवानगी होती है। तो भाषा किसी व्याकरण से बंधी कैसे रह सकती है?
संचार माध्यमों की हिन्दी (खासकर विज्ञापन की हिन्दी) भी आज व्याकरण से बंधी नहीं रह गई है। इसलिए आज इसके विविध रूप दिखते हैं, जिसमें दूसरी भाषाओं का समावेश होता नज़र आ रहा है। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि हिन्दी का स्वरूप भले ही बदला हो, केन्द्र में हिन्दी है और हिन्दी ही रहेगी। आज भले ही मिश्रित रूप में हैं, कल फिर हिन्दी हो जाएगी। माध्यम, लेखकों की सजकता और आस्था की जरुरत है।

*शोध-छात्र अमितेश्वर कुमार पाण्डेय (पी-एच.डी., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग) द्वारा एम.फिल.हिन्दी (भाषा-प्रौद्योगिकी) में प्रस्तुत किए गए शोध-प्रबंध का सारलेख

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