मानव-इतिहास के साथ ही भाषा का इतिहास भी जुड़ा हुआ है। इस विकास-यात्रा के अनुरूप भाषा भी अपने विभिन्न सोपानों से गुजरती हुई, स्वयं को आवश्यकतानुरूप परिमार्जित एवं परिष्कृत करती हुई, एक नए कलेवर को ग्रहण कर रही है, यह नैरंतर्य जारी है और आगे भी जारी रहेगा। दरअसल मानव प्रयोगशील प्राणी है और भाषा तथा इसके संप्रेषणीय विस्तार की स्थिति में यह नित-नवीन प्रयोग अपरिहार्य भी है। प्रसंग और परिस्थिति के अनुरूप शब्द, व्याकरणिक संरचना और अर्थवत्ता के स्तर पर यह प्रयोग सार्वदेशिक और सार्वकालिक तौर पर होता है।
भाषाविज्ञान जैसे विषय केन्द्रित अनुशासन के अंतर्गत भाषा के विविध पक्षों जैसे- वाक्, शब्द-संरचना, वाक्य-संरचना इत्यादि का परंपरागत रूप से अध्ययन किया जाता है। किन्तु तकनीकी विकास एवं वैश्वीकरण के अनुरूप विश्व की प्राय: सभी भाषाओं ने स्वयं को इनके अनुकूल ढालना शुरू कर दिया है, फलत: भाषाविज्ञान का अध्ययन-क्षेत्र भी विस्तृत और बहुआयामी होता जा रहा है। इसके अंतर्गत भाषा-प्रौद्योगिकी चिंतन का एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें परंपरा से भिन्न, संभावना से परिपूर्ण और विषय-केंद्रित क्षमता की माँग करता है। इस क्रम में आवश्यकता इस बात की है कि एक ऐसे गंभीर अकादमिक वातावरण का निर्माण हो जो छात्रों, विभाग और विश्वविद्यालय के लिए आवश्यक है। यदि इस क्रम में इस पत्रिका के हस्तक्षेप से कुछ किया जा सकता है, तो यही इस ‘प्रयास’ का प्रतिफल होगा।
चन्दन सिंह
इस अंक के सदस्य
संपादक- चन्दन सिंह
संपादक मंडल- सत्येंद्र कुमार, सौरभ कुमार, धनजी प्रसाद
शब्द-संयोजन - करूणा निधि, प्रवीण कुमार पाण्डेय
वेब-प्रबंधन - अमितेश्वर कुमार पाण्डेय
इस पत्रिका से विवि में अकादमिक सत्ता की स्थापना में सहयोग मिलेगा.
जवाब देंहटाएंसराहनीय प्रयास है|आगे और भी अच्छे और ज्ञानवर्धक लेख पाने की उम्मीद |समाजभाषा और इससे संबंधित लेख हों तो भाषाविज्ञान के अलावे अन्य अनुशासन के विद्यार्थियों को भी लाभ होगा|
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