-प्रस्तुति
करुणा निधि
एम. फिल., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग
भाषा को विचारों की संवाहिका और अभिव्यक्ति का माध्यम कहा गया है। व्यक्त होने से पूर्व यह व्यक्ति के मन में विचार के रूप में उपस्थित रहती है। जब इन विचारों की अभिव्यक्ति ध्वनि रूप में होती है तब ये विचार भाषा की संज्ञा पाते हैं। स्पष्ट है कि भाषा जैसी संपत्ति सभी मनुष्यों के पास होती है अर्थात् मनुष्य स्वाभाविक रूप से विचारशील प्राणी होता है और इन विचारों को अभिव्यक्त भी करता है। किसी एक व्यक्ति के विचारप्रधान या भावनाप्रधान अभिव्यक्ति से कोई दूसरा व्यक्ति आप्लावित हो जाए और उसे यह अपनी भावना-सी प्रतीत हो तब ऐसी अभिव्यक्ति ’काव्य’ और इसके आस्वादन की प्रक्रिया “काव्यास्वाद” कहलाती है। इस संदर्भ में यहाँ डॉ. देवीशंकर द्विवेदी के “काव्यास्वाद” विषय पर भाषावैज्ञानिक दृष्टि से प्रस्तुत उनके विचारों का संकलन किया गया है।
काव्यास्वाद दो शब्दों के मेल से बना है- काव्य और आस्वाद। द्विवेदी जी के शब्दों में “भावना का शब्दबद्ध संगीत काव्य है।” इन्होंने परिभाषा में प्रयुक्त प्रत्येक शब्दों की तर्कपूर्ण व्याख्या करते हुए ’अनुभूति’ को प्रधानता दी है। “भावना” एक सार्वभौमिक सत्य है जिसके द्वारा मनुष्य अपने हृदय के भावों को प्रकट करता है अर्थात् यह सूचना मात्र है। “शब्दबद्ध संगीत” संगीत का ऐसा रूप है जो शब्दों से मिलकर बना है। शब्दबद्ध जैसी वस्तु को जानने से पूर्व यह जानना आवश्यक हो जाता है कि क्या कोई शब्दमुक्त जैसी संकल्पना भी मौजूद है। द्विवेदी जी ने इन दोनों शब्दों की सुंदरता को इन शब्दों में व्यक्त किया है कि “निःशब्द में ध्वनि करना ही पर्याप्त है।” इस दृष्टि से देखा जाए तो संगीत में ध्वनियों का ही वर्चस्व होता है और ध्वनि-प्रतिकों की यादृच्छिक व्यवस्था से ही भाषा अस्तित्व पाती है। तब यह कल्पना की जा सकती है कि शब्दबद्ध संगीत कितना मधुर होगा। इनका मानना है कि जो musical instrument में है वही musicality है। तात्पर्य यह है कि परिभाषा में प्रयुक्त शब्द आपस में मिलकर ही विशिष्ट अर्थ के प्रकटीकरण में समर्थ हैं। अलग-अलग रहकर ये शब्द अपने मूल अर्थ में ही प्रकट हो पाएँगे।
काव्यास्वाद का दूसरा पक्ष ’आस्वाद’ से संबंधित है। किसी काव्य का आस्वाद बिना अनुभूति के असंभव है। मात्र शब्द का अर्थ जान लेने से काव्य-रस की प्राप्ति नहीं हो सकती। आस्वाद के लिए भाव को जानना और भावना का होना दोनों तत्त्वों की उपस्थिति अनिवार्य है। द्विवेदी जी के अनुसार- “मात्र शब्द का अर्थ जान लेना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि काव्य को समझने के लिए सहृदयता भी होनी चाहिए।”
काव्य-कृति एक सांप्रेषणिक घटना है जो वक्ता और श्रोता के मध्य घटित होती है। जब वक्ता भावों को अभिव्यक्त करता है और श्रोता अपने अनुभूतियों द्वारा इसका आस्वाद करता है तब कलात्मक प्रकार्य का उद्घाटन होता है जिसे रोमन याकोब्सन ने भाषा का “काव्यात्मक प्रकार्य” कहा है। इस प्रकार्य के अंतर्गत कृति से अभिव्यंजित ’संदेश’ तत्त्व का मह्त्तव्पूर्ण स्थान है। यह प्रकार्य ही साहित्य को साहित्येतर विधा से अलग करती है जिसमें वाक्यों के बीच संबंधों की ही स्थापना नहीं होती अपितु संदेश और संदर्भ के अनुरूप अर्थ के उद्घाटन से अभिव्यक्त वाक्यों का अतिक्रमण भी होता है। इन अनुभूतियों की गहराई और भावना की चरमसीमा का प्रमाण द्विवेदी जी ने “अभिव्यक्ति” नामक कविता का उदहारण देते हुए प्रस्तुत किया है:
“भीतर, और भीतर
यह दर्द अनदेखा, अनछूआ-सा
आह!
पल भर कि शांति
फिर तड़प,
और आँखों के आगे कुहासा
अब यह उफान
सावधान
दिव्य ज्योति का प्रकाश।
प्रस्तुत पंक्तियों की व्याख्या करते हुए द्विवेदी जी कहते हैं कि यह शब्दों का समूह मात्र नहीं है अपितु एक ऐसी सर्जनात्मक और बोधात्मक इकाई है जिससे भाव, विचार, अनुभवों और अनुभूतियों की पूर्ण अभिव्यक्ति हो रही है। अतः इस अभिव्यक्ति को समझने के लिए व्यक्ति का सहृदय होना अनिवार्य है। इन्होंने कविता में प्रयुक्त ’कुहासा’ को कविता का काव्यात्मक आवरण कहा है। साथ ही इन्होंने यह भी कहा कि भावना और विचार द्वारा ही काव्य प्रस्तुत होता है और अनुभूति इस काव्य का आस्वाद कराती है।
“राम तुम्हारा चरित्र ही काव्य है,
कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है।”
मैथिलीशरण गुप्त की इन पंक्तियों को उद्धृत करते हुए द्विवेदी जी ने अनुभूति की पराकाष्ठा बतलाई है और कहा है कि जो व्यक्ति भावना और अनुभूति से ओतप्रोत है अर्थात् जो सहृदय है वो निश्चित रूप से कवि है। काव्य में प्रयुक्त सर्जनात्मक और बोधात्मक इकाई का आस्वाद एक कवि मन ही ले सकता है। इन सर्जनात्मक और बोधात्मक इकाइयों का अध्ययन-विश्लेषन करने के लिए भाषाविज्ञान “शैलीविज्ञान” नामक उपलब्ध कराती है। भाषाविज्ञान भाषा के वाक्य के विश्लेषण तक ही सीमित है जबकि शैलीविज्ञान पूरी कृति को अपनी परिधि में समेटता है। इसलिए किसी विद्वान ने कह है कि – “The words of the poem are found in a dictionary but the poem is not found in a dictionary.”
उपर्युक्त छंदबद्ध और छंदमुक्त दोनों कविताओं का आस्वाद लिया जा सकता है, दोनों में संगीतात्मकता हो सकती है, बशर्ते पाठक सहृदय हो। इसके लिए भाषा की संरचना में जाना आवश्यक नहीं है। अंत में इन्होंने कहा कि “काव्यास्वाद” विषय भाषा और साहित्य दोनों के लिए प्रासंगिक है।
कारण यह कि काव्य-कृति एक ’शाब्दिक कला’ है और इस कला के उद्घाटन में प्रयुक्त शब्द आपस में मिलकर जो क्रीड़ा करते हैं उससे व्याकरणिक नियमों का उल्लंघन अर्थात् सामान्य भाषा का अतिक्रमण होता है जिससे भाषा साहित्यिक रूप ग्रहण करती है।
द्विवेदी जी के इन विचारों से स्पष्ट है कि भाषाविज्ञान मात्र भाषागत सामग्रियों का विश्लेषण ही नहीं करता बल्कि यह भाषा के माध्यम से व्यक्त हुए विचारों का आस्वाद भी कराता है। इस आधार पर यह कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि इस व्याख्या से लोगों का यह मंतव्य कि “भाषा एक निर्जीव वस्तु है और भाषावैज्ञानिक इसका अध्ययन करने वाला एक निरर्थक प्राणी” अप्रासंगिक सिद्ध होता है।
(काव्यास्वाद विषय पर डॉ. देवीशंकर द्विवेदी द्वारा दिए गए व्याख्यान के मुख्य अंश)