चिह्न (sign) एवं प्रतीक (symbol) दोनों सम्प्रेषण की महत्त्वपूर्ण इकाई हैं। इसके सम्बन्ध में यह संकल्पना की जा सकती हैं कि जब दों भाषा-भाषी एक-दूसरे के सम्पर्क में आएँ, तो वहाँ “चिह्न” की आवश्यकता हुई तथा इसी चिह्न की प्रतीति ''प्रतीक'' कहलायी।
''चिह्न'' किसी भी वस्तु का किसी वस्तु के लिए प्रस्तुतीकरण है। दूसरें शब्दों में चिह्न एक ऐसी वस्तु या घटना है जो किसी प्रतीक की तरफ संकेत करती है अर्थात् संकेत एक प्रक्रिया है जो चिह्न तथा प्रतीक के बीच फलीभूत होती हैं । 'चिन्ह' स्वनिम (phoneme) या लिख्रित शब्द(written word), ध्वनियाँ (sound) एवं विशेष संकेत(particular mark)आदि की एक व्यवस्था है।
'प्रतीक' चिह्न का घटित रुप होता है। किसी चिन्ह को देखकर हमारे मस्तिष्क में कुछ प्रत्यय(concept) आते है, यही प्रत्यय प्रतीक कहलाते हैं अर्थात् चिह्न को प्रतीक की सहायता से समझा जाता है। उदाहरणार्थ 'गाय' शब्द एक चिह्न हैं क्योंकि गाय शब्द को पढ़कर या सुनकर हमारे मस्तिष्क में कुछ संकल्पनाएँ आती हैं। वह यह कि यह एक जानवर है जिसके चार पैर, दों कान, दों ऑंख्र, एक पूँछ, होते हैं, आदि। चिह्न के प्रति यह प्रतीति 'प्रतीक' कहलाती है।
फ्रेंच भाषा वैज्ञानिक Ferdinand De Saussure ने व्यवस्थित रुप में प्रतीक की अवधारणा प्रस्तुत की एवं इसका अध्ययन करनेवाली भाषाविज्ञान की शाख्रा को संकेतविज्ञान (Semiotics) कहा। इन्होंने चिह्न के अन्तर्गत प्रतीक की व्यख्या की तथा चिह्न को दो भागों में बाँटा- संकेतक और संकेतित। कोई स्वनिक अवयव (Phonic Components) या स्वनिम (Phonemes) संकेतक कहलाता है, जैसे- 'cat' शब्द में c-a-t ये तीन स्वनिक इकाई हैं या अक्षर(letter) है। यही संकेतक है । 'Cat' शब्द से जो मानसिक प्रतीति होती है वह “Cat'' के लिए संकेतित है। संकेतित एक ''मानसिक प्रत्यय''(Mental concept) है। इसके द्वारा चिह्न को एक सन्दर्भ मिलता है अर्थात् चिह्न किसी संदर्भ के साथ जुड़कर प्रतीक बनता है। परंतु देरिदा का विखंडनवादी सिद्धांत सस्यूर की विचारधारा का खंडन करता है। देरिदा के अनुसार किसी शब्द का अंत्य अर्थ नहीं होता बल्कि शब्द से शब्द तक पहुँचने की प्रक्रिया मात्र होती है। जैसे ’समुद्र’ शब्द समुद्र की भयावहता और गंभीरता को नहीं व्यक्त कर पाता। उसके स्थान पर मात्र एक शब्द ही दे पाता है, अंत्य अर्थ नहीं देता।
अतः कहा जा सकता है कि चिह्न और प्रतीक के मध्य संबंधों की स्थापना गैर-तार्किक सामाजिक समझौते के आधार पर होती है जिसे भाषाविज्ञान में यादृच्छिक या रूढ़ विधान कहा जाता है।
''चिह्न'' किसी भी वस्तु का किसी वस्तु के लिए प्रस्तुतीकरण है। दूसरें शब्दों में चिह्न एक ऐसी वस्तु या घटना है जो किसी प्रतीक की तरफ संकेत करती है अर्थात् संकेत एक प्रक्रिया है जो चिह्न तथा प्रतीक के बीच फलीभूत होती हैं । 'चिन्ह' स्वनिम (phoneme) या लिख्रित शब्द(written word), ध्वनियाँ (sound) एवं विशेष संकेत(particular mark)आदि की एक व्यवस्था है।
'प्रतीक' चिह्न का घटित रुप होता है। किसी चिन्ह को देखकर हमारे मस्तिष्क में कुछ प्रत्यय(concept) आते है, यही प्रत्यय प्रतीक कहलाते हैं अर्थात् चिह्न को प्रतीक की सहायता से समझा जाता है। उदाहरणार्थ 'गाय' शब्द एक चिह्न हैं क्योंकि गाय शब्द को पढ़कर या सुनकर हमारे मस्तिष्क में कुछ संकल्पनाएँ आती हैं। वह यह कि यह एक जानवर है जिसके चार पैर, दों कान, दों ऑंख्र, एक पूँछ, होते हैं, आदि। चिह्न के प्रति यह प्रतीति 'प्रतीक' कहलाती है।
फ्रेंच भाषा वैज्ञानिक Ferdinand De Saussure ने व्यवस्थित रुप में प्रतीक की अवधारणा प्रस्तुत की एवं इसका अध्ययन करनेवाली भाषाविज्ञान की शाख्रा को संकेतविज्ञान (Semiotics) कहा। इन्होंने चिह्न के अन्तर्गत प्रतीक की व्यख्या की तथा चिह्न को दो भागों में बाँटा- संकेतक और संकेतित। कोई स्वनिक अवयव (Phonic Components) या स्वनिम (Phonemes) संकेतक कहलाता है, जैसे- 'cat' शब्द में c-a-t ये तीन स्वनिक इकाई हैं या अक्षर(letter) है। यही संकेतक है । 'Cat' शब्द से जो मानसिक प्रतीति होती है वह “Cat'' के लिए संकेतित है। संकेतित एक ''मानसिक प्रत्यय''(Mental concept) है। इसके द्वारा चिह्न को एक सन्दर्भ मिलता है अर्थात् चिह्न किसी संदर्भ के साथ जुड़कर प्रतीक बनता है। परंतु देरिदा का विखंडनवादी सिद्धांत सस्यूर की विचारधारा का खंडन करता है। देरिदा के अनुसार किसी शब्द का अंत्य अर्थ नहीं होता बल्कि शब्द से शब्द तक पहुँचने की प्रक्रिया मात्र होती है। जैसे ’समुद्र’ शब्द समुद्र की भयावहता और गंभीरता को नहीं व्यक्त कर पाता। उसके स्थान पर मात्र एक शब्द ही दे पाता है, अंत्य अर्थ नहीं देता।
अतः कहा जा सकता है कि चिह्न और प्रतीक के मध्य संबंधों की स्थापना गैर-तार्किक सामाजिक समझौते के आधार पर होती है जिसे भाषाविज्ञान में यादृच्छिक या रूढ़ विधान कहा जाता है।
(भाषा विद्यापीठ में होने वाले मासिक संवाद का सारांश)
-प्रस्तुति
अर्चना देवी
एम . फिल., हिन्दी (भाषा-प्रौद्योगिकी) विभाग
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