कल्याणी
पी-एच। डी., अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ
पी-एच। डी., अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ
प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति होती है, जिसमें उस समाज की सारी विशेषताएँ निहित होती हैं। इन संस्कृतियों को अभिव्यक्त करने का भाषा एक सशक्त माध्यम है। संस्कृति में धर्म जाति, रीति-रिवाज, वेशभूषा, खानपान, रिश्ते-नाते आदि आते हैं। अनुवाद मूलभाषा पाठ का सत्य लक्ष्य भाषा में व्यक्त करने में तभी कामयाब हो सकता है जब अनुवादक मूलभाषा पाठ की संस्कृति को लक्ष्य भाषा की संस्कृति से सहसंबंध स्थापित कर सके। अनुवाद को दुबारा उत्पन्न करने की प्रक्रिया द्विसांस्कृतिक कहलाती है। अंतत: मात्र बाह्य और आंतरिक शैलीगत सहसंबंध से कई बार हास्यास्पद भाषा उत्पन्न हो जाती है। यह सोचकर की पाठक को उसमें रुचि नहीं होगी, अनुवादक को ध्यान रखना होता है कि मूलभाषा पाठ का चयन या आस्वीकार करने की ज्यादा छूट ना हो। सबसे ज्यादा जरुरी है कि अनुवादक अच्छी तरह से सांस्कृतिक संदर्भ की संपूर्णता को समझे जिससे अनुवाद सकारात्मक हो। आखिरकार अनुवाद का मुख्य लक्ष्य है कि पाठक को अन्य भाषा के साहित्य, संस्कृति और जीवन के प्रति संवेदनशील बनाना और उसे एक नयी जीवन-शैली से अवगत कराना ।
अनुवाद के माध्यम से संस्कृति को प्रेषित करने का काम कठिन है। इससे पहले की अनुवादक दो संस्कृतियों के बीच पुल बनाए, उसके लिए अनिवार्य है कि वह उन दोनों संस्कृतियो को पूरी तरह समझ सके, जैसे मराठी में ''लावणी' शब्द मराठी संस्कृति से जुडा है जिसका अनुवाद हिन्दी के मुजरा के समकक्ष किया जाता है। पर इन दोनों शब्दों का भिन्न अर्थ है। इसी प्रकार ''नववारी पातड़” शब्द का किसी संस्कृति में अनुवाद नहीं कर सकते। विवाह जैसा संस्कार तो सारी दुनिया में अलग-अलग पद्धतियों से किया जाता है। मराठी विवाह संस्कार में वर-वधू पर ''अक्षत'' बरसाते है। इसका अन्य भाषा में अनुवाद संभव नहीं है। खानपान से संबंधित देखा जाए तो मराठी व्यंजन 'पुरनपोली' का अनुवाद भी संभव नहीं है। इसलिए लिप्यंतरण का सहारा लेकर उस शब्द की गरिमा को बरकरार रखा जाता सकता है अथवा नीचे पादटिप्पणी में उसका अर्थ देकर उसे स्पष्ट किया जा सकता है। संकेतार्थ शब्दावली की बात करें तो प्रत्येक भाषा के अपने संकेत होते हैं। बहुत बार कुछ शुभ या अशुभ बातों को संकेतों के सहारे अभिव्यक्त किया जाता है जैसे बिल्ली का रास्ता काटना या फिर घर की छत पर कौआ बोलना, इन सभी संकेतो के सरल अनुवाद नहीं हो सकता। ये विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं और इनके लिए उतनी ही विशिष्ट अभिव्यक्ति मिल पाना कठिन है।
जॉर्ज स्पाईनर कहते हैं कि ''अनुवाद क्रिया तो एक जीवंत खोज है, अतीत और वर्तमान दो संस्कृतियों के बीच निरंतर बहती ऊर्जा की धारा है।'' अतः एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में अनुवाद की समस्याओं को प्रस्तुत करने के लिए मराठी से हिंदी में अनुवाद का ब्योरा दिया गया है।
अनुवाद के माध्यम से संस्कृति को प्रेषित करने का काम कठिन है। इससे पहले की अनुवादक दो संस्कृतियों के बीच पुल बनाए, उसके लिए अनिवार्य है कि वह उन दोनों संस्कृतियो को पूरी तरह समझ सके, जैसे मराठी में ''लावणी' शब्द मराठी संस्कृति से जुडा है जिसका अनुवाद हिन्दी के मुजरा के समकक्ष किया जाता है। पर इन दोनों शब्दों का भिन्न अर्थ है। इसी प्रकार ''नववारी पातड़” शब्द का किसी संस्कृति में अनुवाद नहीं कर सकते। विवाह जैसा संस्कार तो सारी दुनिया में अलग-अलग पद्धतियों से किया जाता है। मराठी विवाह संस्कार में वर-वधू पर ''अक्षत'' बरसाते है। इसका अन्य भाषा में अनुवाद संभव नहीं है। खानपान से संबंधित देखा जाए तो मराठी व्यंजन 'पुरनपोली' का अनुवाद भी संभव नहीं है। इसलिए लिप्यंतरण का सहारा लेकर उस शब्द की गरिमा को बरकरार रखा जाता सकता है अथवा नीचे पादटिप्पणी में उसका अर्थ देकर उसे स्पष्ट किया जा सकता है। संकेतार्थ शब्दावली की बात करें तो प्रत्येक भाषा के अपने संकेत होते हैं। बहुत बार कुछ शुभ या अशुभ बातों को संकेतों के सहारे अभिव्यक्त किया जाता है जैसे बिल्ली का रास्ता काटना या फिर घर की छत पर कौआ बोलना, इन सभी संकेतो के सरल अनुवाद नहीं हो सकता। ये विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं और इनके लिए उतनी ही विशिष्ट अभिव्यक्ति मिल पाना कठिन है।
जॉर्ज स्पाईनर कहते हैं कि ''अनुवाद क्रिया तो एक जीवंत खोज है, अतीत और वर्तमान दो संस्कृतियों के बीच निरंतर बहती ऊर्जा की धारा है।'' अतः एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति में अनुवाद की समस्याओं को प्रस्तुत करने के लिए मराठी से हिंदी में अनुवाद का ब्योरा दिया गया है।
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