11 अक्तूबर 2009

अनुवाद का स्वरुप

धनंजय विलास झालटे
एम। ए., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग
अनुवाद शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के 'वद्' धातु से हुई है। 'अनुवाद' का शाब्दिक अर्थ है 'पुन:कथन' अर्थात किसी कही गई बात को फिर से कहना। यह भी कहा जा सकता है कि एक भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में ज्यों को त्यों प्रकट करना ही अनुवाद है। अनुवाद एक साहित्यिक विधा है, पर वह मौलिक साहित्य रचना की कोटि में नहीं आ सकती। एल.एन.शर्मा ’सौमित्र’ उसे सेकण्ड हॅण्ड साहित्य मानते है। इसी कारण अनुवाद को मूल लेखन पर आधारित 'भाषांतर' कह सकते है।
अनुवाद में मूलत: किसी एक भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में व्यक्त करना बड़ा ही कठिन कार्य है, क्योंकि प्रत्येक भाषा का अपना स्वरूप होता है, उसकी अपनी निजी-ध्वनि, शब्द, रूप, वाक्य तथा अर्थमूलक विशेषताएँ होती हैं। कभी-कभी स्रोत भाषा का कथ्य लक्ष्य भाषा में अपेक्षाकृत विस्तृत, कहीं संकुचित और कहीं भिन्नरूपी हो जाता है।
अनुवाद में दो भाषाओं का होना जरूरी है। इन दोनों भाषाओं को अनुवाद विज्ञान में स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा की संज्ञा दी गई है। जिस भाषा की सामग्री अनूदित होती है वह स्रोत भाषा कहलाती है और जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है वह लक्ष्य भाषा कहलाती है।
़कैटफर्ड(J.C.Catford) ने अनुवाद की परिभाषा इस प्रकार दी है:
''The replacement of textual material from one language by equivalent textual material in another language” अर्थात् अनुवाद एक भाषा(स्रोत भाषा) के पाठ्‍यपरक उपादानों का दूसरी भाषा (लक्ष्य भाषा) के पाठ्‍यपरक उपादानों के रुप में समतुल्यता के सिद्धांत के आधार पर प्रतिस्थापन है।
अनुवाद मानव की मूलभूत एकता, व्यक्तिचेतना एवं विश्वचेतना के अद्वैत का प्रत्यक्ष प्रमाण है। विश्व संस्कृति के निर्माण कि प्रक्रिया में विचारों के आदान-प्रदान का योगदान रहा है और यह अनुवाद के माध्यम से ही संभव हो सका है।
बीसवीं शताब्दी में अनुवाद को जो महत्त्व प्राप्त हुआ वह उससे पहले नहीं मिला था। इसी कारण इस सदी को ’अनुवाद युग' कहा गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि बीसवीं शताब्दी में ही भिन्न भाषाभाषी समुदायों में संपर्क की स्थिति प्रमुख रुप से उभर कर आयी। इसका मूल कारण आर्थिक और राजनीतिक है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न राष्ट्रों के बीच राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और औद्‍योगिक तथा साहित्यिक और सांस्कृतिक स्तर पर बढ़ते हुए आदान-प्रदान के कारण अनुवाद कार्य की अनिवार्यता और महत्ता को नई दिशा प्राप्त हुई है। इस कारण अनुवाद एक व्यापक तथा एक सीमा तक अनिवार्य और तर्कसंगत स्थिति है।
सामाजिक संदर्भ में अनुवाद व्यापार अनौपचारिक परिस्थितियों में होता है। इसका संदर्भ द्विभाषिकता की स्थिति से है। इसका सामान्य अर्थ है कि हम एक समय में दो भाषाओं का वैकल्पिक रुप से प्रयोग करते है। यानी हम एक भाषा(मातृभाषा) में सोचते है परंतु उसे दूसरी भाषा में अभिव्यक्त करते है। इस स्थिति में अनुवाद प्रक्रिया का होना अनिवार्य है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अनौपचारिक रुप में अनुवादक होता है। इस दृष्टि से अनुवाद व्यापार अनौपचारिक स्थिती में होता है। इसके दो भेद है : साधन रूप में अनुवाद और साध्य रूप में अनुवाद। साधन रूप में अनुवाद का प्रयोग भाषा शिक्षण की एक विधि के रूप में किया जाता है। साध्य रूप में अनुवाद अनेक क्षेत्रों में दिखाई देता है। अपने व्यापकतम क्षण में अनुवाद भाषा की शाक्ति में समवर्धन करता है, भाषा तथा विचार के बीच समबन्ध को स्पष्ट करता है, ज्ञान का प्रसार करता है, संस्कृति का संवाहक है।
अनुवाद यांत्रिक प्रक्रिया नही अपितु मैलिकता से स्पर्श करता हुआ कृतित्व है। उसके एक छोर पर मूल लेखक होता है तो दूसरी छोर पर अनुवादक। इन दोनों के बीच है अनुवाद की प्रक्रिया। एक कुशल अनुवादक अपने आप को मूल लेखक के चितंन की भूमि पर प्रतिष्ठित कर अपनी सूझबूझ एवं प्रतिभा के बल पर स्रोत सामग्री को अपने कला और कौशल्य से प्रस्तुत करता है जिससे उसका कृतित्व 'अनुवाद' मैलिक रचना के स्तर तक पहुँच सके।
यह निर्विवाद सत्य हे कि अनुवाद मूल लेखन से कहीं अधिक कठिन कार्य है। मूल लेखन जहाँ अपने विचारों की अभिव्यक्ति में स्वतंत्र होता हे वहीं अनुवाद एक भाषा के विचारों को दूसरी भाषा में उतारने में अनेक तरह से बंधा होता है। उन दोनों भाषाओं की सूक्ष्मतम जानकारी के अतिरिक्त विषय के तह तक पहुंचने की क्षमता जथा अभिव्यकित की पूर्ण कुशलता अच्छे अनुवादक के लिए अपेक्षित है।

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