11 अक्तूबर 2009

संपादक के की-बोर्ड से

भाषा के मूल में अभिव्यक्ति होती है, जब यह मुख से उच्चरित होती है, तो व्यक्ति को अभिव्यक्त करती है और जब मौन रहती है, तो समाज को। हिन्दी ने यह काम अपने समाज के लिए बखूबी किया है, अपने लचीले स्वभाव एवं जनपक्षधर भूमिका में यह हमेशा उस वर्ग के दर्द एवं आक्रोश दोनों की भाषा रही है, जो व्यवस्था से प्राय: उपेक्षित रही है। यही कारण है कि संस्कृत से लेकर आज तक के हिन्दी के परिवर्तनशील स्वरूप पर कोई कितनी भी आपत्ति क्यों न दर्ज करे, इसने हमेशा उस भाषिक रूप को चुना है, जो आम जन में प्रचलित रहा है, जिसको बेसिल बर्नस्टीन ने निम्न कोड (Restricted Code) कहा है। चंद लोगों द्वारा आरोपित सायास परिवर्तन को इसने हमेशा नकारा है और अधिसंख्य आम जन में पल्लवित-पुष्पित होती रही है। इसी को किसी भाषा का लोकतांत्रिक स्वरूप कहा जाना चाहिए। लेकिन अभिव्यक्ति के दूसरे स्वरूप में जब हिन्दी अपने समाज को अभिव्यक्त कर रही होती है, तब यह संप्रेषण अंतर-सामाजिक होता है और तब इसके समाज का वह चेहरा आड़े आ जाता है, जो हिन्दी की बात तो हर मंच से करता है, लेकिन मंच से उतरने के बाद से ही टी.ए., डी.ए. पर पूरी उर्जा लगा देता है। दुर्भाग्य से यही समाज हिन्दी के समग्र समाज का प्रतिनिधित्व करता प्रतीत होता है, जिसके बारे में और कुछ न भी कहा जाय, तो बहुत कुछ समझा जा सकता है। हम आत्ममुग्ध लोग भले न समझें, लेकिन हिन्दी को जो कुछ विरोध सहना पड़ा है वह अपने भाषायी पक्ष पर नहीं, बल्कि इस सामाजिक पक्ष पर ही, क्योंकि भाषा को उसके समाज से काट कर नहीं देखा जा सकता है।
बहरहाल अभिव्यक्ति के आयाम वर्तमान में बदले हैं, इसमें एक तरफ भौगोलिक दूरी घटती जा रही है, तो वहीं दूसरी तरफ इसके साधन भी परिवर्तित होते जा रहे हैं। आज इंटरनेट और मोबाईल जैसे संप्रेषण के माध्यमों के लिए जिन तंत्रों का उपयोग किया जा रहा है, उनके संप्रेषण की अपनी शर्तें हैं और इसमें हिन्दी काफी दूर दिखती है और हिन्दी समाज इससे भी दूर है। संतोषजनक स्थिति यह हो सकती है कि इस दूरी को पाटने के लिए बाजार तैयार है, लेकिन बाजार का उद्देश्य पूँजी है न कि हिन्दी। इन स्थितियों में हिन्दी का जो अमानक रूप सामने आ रहा है, दरअसल यह वह रूप कदापि नहीं है, जो आम जन के उपयोग के उपरांत दिखता है और यही स्थिति हिन्दी के लिए घातक है। अब यह हिन्दी की वर्तमान संभावनाशील पीढ़ी पर निर्भर करता है कि वह क्या कर सकती है। कोई भी पत्रिका अपने पाठकों के बीच लोकप्रियता के पैमाने पर ही मापी जा सकती है, ऐसे में यह पत्रिका अपने विशिष्ट विषय-वस्तु और सीमित पाठक-वर्ग के बावजूद जो प्रतिक्रियाएँ पायी है, इससे इसके सफल होने की सूचना मिलती है। बहरहाल इस अंक के लेखकों को इस अपेक्षा के साथ धन्यवाद, कि वे हमे क्षमा करेंगें, क्योंकि अधिकाधिक लेख शामिल करने के सम्मोहन में तथा सीमित स्थान के वजह से कुछ लेखों के मूल अंशों को काटा गया है, साथ ही विभिन्न स्तर पर कार्य कर रहे अपने सहयोगियों को धन्यवाद के साथ यह अंक आपके सामने है, इस उम्मीद के साथ कि हिन्दी समाज का वह प्रतिनिधि चरित्र बदले, जो अब तक हिन्दी भाषा पर भारी पड़ता रहा है।
अरिमर्दन

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें