11 अक्तूबर 2009

भाषा की सृजनात्मक शक्ति और निराला

-अविचल गौतम
एम। फिल., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग
भावानुभूतियों को व्यक्त करने के लिए भाषा ही सशक्त माध्यम होती है। भाषा शब्दों की संख्या से धनी नहीं होती, धनी होती है उसकी भाव-व्यंजकता से। अत: भावों की अभिव्यंजना के लिए भाषा को समर्थ बनाना होता है।
शब्द-समूह रुप-विन्यास का मूलधन है। शब्दों की सामग्री को नाना रुपों में सजाकर कविता में रुप-संबंधी भंगिमा लाई जाती है। जिन शब्दों के सहारे एक कवि एकदम सीधी-सादी सपाट कविता लिखता है, उन्हीं को नवीन क्रम से सजाकर भावुक कवि मार्मिक सौंदर्य पैदा कर देते है।
भाषा आदिम मनुष्यों की पहचान रही है। भाषा की ही वजह से मनुष्य जाति अन्य जीवों से भिन्न है। भाषा में इतनी सृजनात्मक शक्ति होती है कि अकथ अनुभूतियाँ भी शब्दों के माध्यम से साकार हो उठती है। हर भाषा का अपना साहित्य होता है और क्षेत्र भी। हिंदी भाषा कई मायनो में अच्छी मानी जाती है। चाहे वह ध्वनि-पक्ष हो या अर्थ तत्व।
निराला कुशल शब्द-शिल्पी हैं। उनकी भाषा विषय के अनुरुप ढल जाती है। भावों के अनुरुप ही कवि ने भाषा की सर्जना की है। कहीं तत्सम् शब्दावली का प्रयोग है और कहीं देशज शब्दों का विधान। काव्य भाषा के अनुपम स्वर विस्तार एवं नाद योजना की संभावनाएं कवि पहली बार उद्धाटित करता है। मुक्तछंद में रचित 'परिमल' की सभी कविताएँ निराला की नई विकसनशील और जागरुक रचना-प्रक्रिया का बढ़िया उदाहरण प्रस्तुत करती है। संस्कृतनिष्ठ शब्दों का भरपूर और सर्जनात्मक उपयोग करते हुए कवि ने 'गीतिका' में गीतों का गंभीर चिंतन, सांस्कृतिक संदर्भों, विविध प्रणय स्थितियों को अनुस्यूत करने की सफल चेष्टा की है।
'राम की शक्ति-पूजा' कविता में लम्बे सुगठित रचना-विधान में खड़ीबोली पर आधारित काव्य भाषा की अभूतपूर्व व्यंजना क्षमता उद्‍घाटित हुई है। भाषा के माध्यम से कवि भावों के औदात्य को साकार किया है-
''विच्छुरित बन्हि-राजीव नयन-हत लक्ष्य-वाण,
लेहित-लोचन-रावण-मदमोचन-महीयान
राघव-लाघव-रावण-वारण-गत युग्म प्रहर।''
अपने रचना-विधान में निराला ने भाषा के माध्यम से ही अपनी संवेदना को वाणी दी।
'सरोज स्मृति' जैसे शोकगीत का दोहरा रचना-विधान तत्सम् और तद्‍भव पर आधारित भाषिक-संरचना स्पृहणीय है।
'तुलसीदास' कविता में छंद की मौलिक प्रकृति और उसका कसाव शब्दो के जटिल रुप, सूक्ष्म गंभीर कल्पनाएँ इसी काव्य को सामान्य की चिंता में विशिष्ट बना देती हैं।
निराला काव्य की भाषा का एक महत्त्वपूर्ण रुप है उसका पैनापन। व्यंग्य की सटीक चोट करते हुए निराला की भाषा का रुप भी तीखा हो जाता है, जैसे-
“अबे, सुन बे गुलाब
भूल मत गर पाई खुशबू रंगो आब।”
''बेला'' मूलत: निराला का भाषिक-प्रयोग है, जिसमें कवि ने उर्दू गजलों की रवानी और लोकप्रियता से प्रभावित होकर उन्हें हिंन्दी गीतों में ढालने की साहसिक कोशिश की है।
वस्तुत: निराला किसी भाषा रुप में बंधते नहीं, बल्कि भावों के अनुकूल भाषा की सर्जना की है। निराला की काव्य-भाषा, शब्दावली, वाक्य-विन्यास, लय, अलंकार, छंद प्राय: हर स्तर पर यांत्रिकता से बचने की सफल कोशिश करती है।
अत: भाषा की सृजनात्मक शक्ति भावों की विभिन्न अवस्थाओं को आत्मसात करती है। भाषा में अनेक रंग हैं। यह शिल्पकार की निपुणता पर निर्भर है कि वह भाषा में कौन-सा रंग भरता है।

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