11 अक्तूबर 2009

राजभाषा हिन्दी

-रंजीत कुमार सिंह
एम. ए., भाषा-प्रौद्योगिकी
विभाग
हिन्दी का राजभाषा स्वरूप आज किसी भी परिचय का मोहताज नहीं हैं और न ही वर्तमान परिप्रेक्ष्य में किसी भी सन्दर्भ से अछूता है। आज हिन्दी अपनी परंपरागत धारा को समसामायिकता के अनुरूप नया मोड़ देने में सफल रही हैं । यही कारण है कि हिन्दी अपने समग्र राजभाषा स्वरूप से उन्नत तकनीक एवं व्यवसायिकता की समर्थ भाषा बन चुकी हैं। इसके सुखद परिणाम हमें भारत सरकार के विभीन्न मंत्रालयो के अधीन विभिन्न विभागों, उपक्रमों एवं बैंको के कामकाज में देखने को मिल रहे हैं। यहाँ तक की बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी हिन्दी की व्यावसायिक शक्ति को पहचान चुकी है और यथेष्ट रूप में हिन्दी को अपना रही हैं। जिस तरह गिरमिटिया भारतीय मजदूर फिजी, त्रिनिदाद, मॉरिशस आदि द्विपों में रात के घुप्प-अंधेरे में गन्ने के खेतों में रामचरितमानस की चौपाईयां गाकर न केवल अपने मनोबल में अभिवृध्दि करते थे अपितु अपनी राष्ट्रीय भाषिक धरोहर को भी जीवित रखते थें। वर्तमान में राजभाषा के रूप में 'हिन्दी' को संसद से सड़क तक जोड़ कर देखा जा सकता है। कल तक हिन्दी राष्ट्रीय भावनात्मक एकता व सवतंत्रता आंदोलन की वाणी थी। आज हिन्दी इस राष्ट्र की राष्ट्रभाषा व संविधान सम्मत राजभाषा के साथ-साथ वाणिज्य-व्यापार, मीडिया, विज्ञापन आदि की सशक्त भाषा है और कल निश्चित रूप से हिन्दी सूचना- प्रौद्योगिकी की सबसे शक्तिशाली भाषा के रूप में उभरेगी और विश्व स्तर पर हिन्दी का ही बोलबाला होगा।
अब प्रश्न यह उठता हे कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक राष्ट्र होने की सुखद अनुभूति करने वाला भारत आज भी अपनी राष्ट्रभाषा(हिन्दी) के प्रश्न पर लगभग चुप है। हम उस अंग्रेजी के पूर्णतया मानसिक दास हो गए हैं जो एक दूरदर्शी अंग्रेज लॉड मैकाले ने हमे शिक्षा के रूप में दिया। वर्तमान परिस्थितियों में तो ऐसा लगता है कि यदि आपका बच्चा अंग्रेजी ठीक से बोल या पढ़ नहीं पाता है तो उसे शिक्षा की दृष्टि से पिछड़ा माना जाएगा। इसी मानसिकता के चलते हमारे देश में स्वतंत्रता के पश्चात् इंग्लिश मीडियम स्कूलों की बाढ़ सी आ गई है।
स्वतंत्रता के पश्चात्‍ हम अपनी राष्ट्रभाषा के मामले में गूंगे व बहरे क्यों हो गए? इस प्रश्न पर कभी गंभीरता से विचार कीजिए और यह भी सोचिए की अपनी भाषा को अपनाना स्वाभिमान की बात है या सात समूद्र पार की भाषा को। हमारे सामने टर्की और इजरायल दो छोटे राष्ट्र इसके उदाहरण हैं। इजरायल जब 1948 में आस्तित्व में आया तो दुनिया के विभिन्न भागों में बसे यहुदियों ने स्वदेश वापसी का मन बनाया। उनकी भिन्न-भिन्न भाषाएँ तथा जीवन के अलग-अलग तौर तरीके थे। सबने राष्ट्रभाषा के संबंध में गहन मंत्रणा की तथा उस 'हिब्रू' को अपनाया, जो लुप्त प्राय: हो गई थी। परिश्रमी एवं स्वाभिमानी यहूदियों ने कुछ ही समय में सारी ज्ञान की पुस्तकों को हिब्रू में अनुवाद करके भाषा के क्षेत्र में अपना ध्वज विश्व में फहराया।
परतंत्रता बहुत ही निकृष्ट वस्तु है, जिससे मनुष्य को सोचने, समझने तथा विश्लेषण की क्षमता पंगु हो जाती है। किन्तु इससे भी बुरी स्थिति तब हो जाती है, जब इसके कीटाणु रक्त में मिल जाते हैं। दुर्भाग्य से भारतीयों के रक्त में परतंत्रता के कीटाणु प्रविष्ट हो गए है क्योंकि हमने गुलामी का लम्बा दौर सहा है। कभी क्रूर, अशिक्षित तथा धर्मांध लोगों की जी-हुजूरी की ,तो कभी गोरी चमड़ी वालों को अपना आका माना है। इसका परिणाम यह हुआ कि अब हमें चाहे दुनिया में सबसे भ्रष्ट कहलायें या अपनी भाषा की बेइज्जती हो, सब कुछ बर्दाश्त हो जाता है। आज हमारे देश में भाषाई विवाद को इस तरह बढ़ा दिया है कि हम दासता की प्रतीक अंग्रेजी को अपनाना नहीं चाहते हैं।
भाषाई प्रदूषण से बचने के लिए हमें अपने आचार-विचारों को बदलने के साथ-साथ अपनी प्राचीन शिक्षा व संस्कृति को भी स्मरण करना होगा। हमें इस बात का हमेशा गर्व होना चाहिए कि हम लोग आर्यों की संतान है, जो विश्व की सर्वप्रथम शिक्षित व सभ्य संतति है।
राजभाषा हिन्दी की सांवैधानिक स्थिति
यहाँ राजभाषा का आशय संविधान द्वारा स्वीकृत उस भाषा से है, जिसमें उस देश का राजकीय कार्य-व्यापार होता है। जब हमारे देश में संविधान का निर्माण हो रहा था, उस समय हमारे सम्मुख एक विचारनीय प्रश्न यह था कि किस भाषा को भारत की राजभाषा बनाई जाए? इस प्रश्न पर काफी विचार-विमर्श के बाद 14 सितंबर, 1949 का संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि 'हिन्दी' ही भारत की राजभाषा होगी।
भारतीय संविधान में राजभाषा संबंधी वर्णन अनुच्छेद 343 से 351 तक में किया गया है, जो इस प्रकार है:
1)संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343(i) के अनुसार 66 संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी।
2)अनुच्छेद 344 राष्ट्रपति द्वारा राजभाषा आयोग एवं समिति के गठन से संबंधित है।
3)अनुच्छेद 345, 346, 347 में प्रादेशिक भाषाओ संबंधी प्रावधानों को रखा गया है।
4) अनुच्छेद 348 में उच्चतम न्यायालय, संसद और विधानमंडलों में प्रस्तुत विधायकों की भाषा के संबंध में विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
5)अनुच्छेंद 349 में भाषा से संबधित विधियों को अधिनियमित करने की प्रक्रिया पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है।
6) अनुच्छेद 350, में जनसाधारण की शिकायतें दूर करने के लिए आवेदन में प्रयोग की जाने वाली भाषा तथा प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा, सुविधाएं मुहैया कराने तथा भाषाई अल्पसंख्यकों के बारे में दिशा निर्देशों का प्रावधान किया गया है।
7) अनुच्छेद 351, भारतीय संविधान के इस अनुच्छेद में सरकार के उन कर्तव्यों एवं दायित्वों का उल्लेख किया गया है, जिनका पालन राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार एवं विकास के लिए उसे करना है।

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