18 फ़रवरी 2010

भाषा विज्ञान के अध्ययन का महत्व

रणजीत भारती

भाषा मनुष्य के चिंतन एवं संप्रेषण का सबसे प्रमुख साधन है, जिसका वैज्ञानिक अध्ययन भाषा विज्ञान कहलाता है। स्वाभाविक रूप से होने वाली इस प्रक्रिया का हस्तक्षेप मानव जीवन के प्रत्येक क्रियाकलाप में है। निश्चित ही इसका वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत करने वाला विषय भाषा विज्ञान एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में क्या महत्व रखता है, इसी के उत्तर में भाषाविज्ञान के अध्ययन का महत्व भी अंतर्निहित है। सामान्य रूप से अपने सैद्धांतिक पक्ष में यह ध्वनि से लेकर अर्थ तक के इकाइयों के सिद्धांतों को निरूपित कर, अन्य विज्ञान का निर्माण करता है, वहीं इन विज्ञानों में प्रतिपादित सिद्धांतों का अनुप्रयोग अन्य भाषिक विधाओं में होने पर भाषाविज्ञान मनुष्य के जीवन के प्रत्येक पहलू को छूता है। चाहे वह शिक्षण हो या चिकित्सा, साहित्यिक आलोचना हो या प्राशासनिक कार्य।
सन् 1956 के सातवें अधिवेशन में J.S.Mill ने स्वयं उठाये गए इस प्रश्न Who needs Linguistics में कहा कि-
1 भाषाविज्ञान का अध्ययन द्वितीय भाषाशिक्षण और विदेशी भाषा शिक्षण में सहायक हो सकता है।
2 साहित्यकार एवं साहित्यिक आलोचकों के लिए भाषाविज्ञान की जानकारी उपयोगी हो सकती है।
3 वाक् चिकित्सा एवं मानसिक चिकित्सा में भी यह उपयोगी है।
सपीर का मानना है कि आज भाषाविज्ञान केवल भाषा के विवरण तक सीमित नहीं है। इसे भौतिक विज्ञान और शरीरविज्ञान से भी जोड़कर रखना होगा अर्थात भाषाविज्ञान का अध्ययन उन सभी क्षेत्रों के लिए आवश्यक है, जिसमें मानव कार्य-व्यापार करता है।
सामान्य तौर पर किसी विषय के अध्ययन में व्यक्ति के जानने की जिज्ञासा और उसमें उसकी रूचि से विषय का महत्व प्रस्तुत होती है। भाषा के प्रारंभिक अध्ययन का उद्देश्य यही था। कालांतर में वैश्विकरण के दौर में सूचना-तंत्रों के व्यापक प्रचार-प्रसार के फलस्वरूप इसका प्राथमिक महत्व रोजगारोन्मुख ही है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि मनुष्य के जीने के लिए भाषा एक आधार स्तंभ का निर्माण करती है, परंतु जीवन को बेहतर ढंग से जीने के लिए भाषाविज्ञान उस आधार की नींव मज़बूत करती है। एक आम आदमी भाषा के सामान्य प्रयोग को समझता है। उसके विशिष्ट प्रयोग के समझने की क्षमता भाषाविज्ञान के अध्ययन के उपरांत प्राप्त होती है।
अतः रोजमर्रा के जीवन में एक आम व्यक्ति के जीवन में भाषा के महत्व को देखकर समझा जा सकता है कि भाषाविज्ञान विषय के अध्ययन का व्यक्ति के आम जीवन में क्या महत्व है।
(भाषा विद्यापीठ में होने वाली सामूहिक परिचर्चा का सारांश)
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग में एम. ए. के छात्र हैं।)


पाणिनि

करुणा

प्रख्यात वैयाकरण पाणिनि का जन्म 520 ई.पू. शालातुला (Shalatula, near Attok) सिंधु नदी जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, में माना जाता है। चूंकि यह समय विद्वानों के पूर्वानुमानों पर आधारित है, फिर भी विद्वानों ने चौथी, पांचवी, छठी एवं सातवीं शताब्दी का अनुमान लगाते हुए पाणिनि के जीवन काल के अविस्मरणीय कार्य को बिना किसी ऐतिहासिक तथ्य के प्रस्तुत करने की चेष्टा की है। बावजूद इसके उपलब्ध तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि पाणिनि संपूर्ण ज्ञान के विकास में नवप्रवर्तक के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
किंवदन्तियों के आधार पर पाणिनि के जीवन काल की एक घटना प्रचलित है कि वर्ष नामक एक ऋषि के दो शिष्य कात्यायन और पाणिनि थे। कात्यायन कुशाग्र और पाणिनि मूढ़ वृत्ति के व्यक्ति थे। अपनी इस प्रवृत्ति से चिंतित होकर वे गुरुकुल छोड़ कर हिमालय पर्वत पर महेश्वर शिव की तपस्या के लिए चले गए। लंबे समय के बाद उनके तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें दर्शन दिया और प्रबुद्ध होने का आशीर्वाद दिया। इसके बाद वे कभी पीछे मुड़कर नहीं देखे और अपने अथक प्रयास से संस्कृत भाषा का गहन अध्ययन-विश्लेषण किया।
उनकी इस साधना का प्रतिफल भारतीय संस्कृति को 'अष्टाध्यायी' के रूप में प्राप्त हुआ है। इसके बाद पाणिनि को 'व्याकरण के पुरोधा' के रूप में भाषाविज्ञान जगत् में उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित किया गया। इन्होंने स्वनविज्ञान, स्वनिमविज्ञान और रूपविज्ञान का वैज्ञानिक सिद्धांत प्रतिपादित किया। संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति की साहित्यिक भाषा के रूप में स्वीकृत है और पाणिनि ने इस भाषा और साहित्य को सभी भाषा की जननी का स्थान प्रदान करने में जनक का काम किया। संस्कृत का संरचनात्मक अर्थ है- पूर्ण और श्रेष्ठ। इस आधार पर संस्कृत को स्वर्गीय (divine) भाषा या ईश्वरीय भाषा की संज्ञा प्रदान की गई है। पाणिनि ने इसी भाषा में अष्टाध्यायी (अष्टक) की रचना की जो आठ अध्यायों में वर्गीकृत है। इन आठ अध्यायों को पुन: चार उपभागों में विभाजित किया गया है। इस व्याकरण की व्याख्या हेतु इन्होंने 4000 उत्पादित नियमों और परिभाषाओं को रूपायित किया है। इस व्याकरण का प्रारंभ लगभग 1700 आधारित तत्व जैसे संज्ञा, क्रिया, स्वर और व्यंजन द्वारा किया गया है। वाक्यीय संरचना, संयुक्त संज्ञा आदि को संचालित करने वाले नियमों के क्रम में आधुनिक नियमों के साम्यता के आधार पर रखा गया है। यह व्याकरण उच्चतम रूप में व्यवस्थित है, जिससे संस्कृत भाषा में पाए जाने वाले कुछ साँचों का ज्ञान होता है। यह भाषा में पाई जाने वाली समानताओं के आधार पर भाषिक अभिलक्षणों को प्रस्तुत करता है और विषय तथ्यों के रूप में रूपविश्लेषणात्मक नियमों का क्रमबद्ध समुच्चय निरूपित करता है। पाणिनि द्वारा प्रतिपादित इस विश्लेषणात्मक अभिगम में स्वनिम और रूपिम की संकल्पना निहित है, जिसकी पहचान पाश्चात्य भाषाविदमिलेनिया ने भी की थी। पाणिनि का व्याकरण विवरणात्मक है। यह इन तथ्यों की व्याख्या नहीं करता कि मनुष्य को क्या बोलना और लिखना चाहिए, बल्कि यह व्याख्या करता है कि वास्तव में मनुष्य क्या बोलते और लिखते हैं।
पाणिनि द्वारा प्रस्तुत भाषिक संरचनात्मक विधि एवं व्यवहार का निर्माण विविध प्राचीन पुराणों और वेदों को विश्लेषित करने की क्षमता रखता है, जैसे- शिवसूत्र। रूपविज्ञान के तार्किक सिद्धांतो के आधार पर वे इन सूत्रों को विश्लेषित करने में सक्षम थे।
अष्टाध्यायी को संस्कृत का आदिम व्याकरण माना जाता है, जो एक ओर निरूक्त, निघंटु जैसे प्राचीन शास्त्रों की व्याख्या करता है तो वहीं दूसरी ओर वर्णनात्मक भाषाविज्ञान, प्रजनक भाषाविज्ञान के उत्स (स्रोत) का कारण भी बनता है। इस दृष्टि से इस व्याकरण में एक ओर भर्तृहरि जैसे प्राचीन भाषाविदों का प्रभाव भी मिलता है तो दूसरी ओर सस्यूर जैसे आधुनिक भाषाविद् को प्रभावित करता है।
आधुनिक भाषाविदों में चॉम्स्की ने यह स्वीकार किया है कि प्रजनक व्याकरण के आधुनिक समझ को विकसित करने के लिए वे पाणिनि के ऋणि हैं। इनके आशावादी सिद्धांतों की प्राक्कल्पना जो विशेष और सामान्य बंधनों के बीच संबंधों को प्रस्तुत करती है, वह पाणिनि द्वारा निर्देशित बंधनों से ही नियंत्रित होती है।
पाणिनि व्याकरण गैर-संस्कृत भाषाओं के लिए भी युक्तियुक्त है। इसलिए पाणिनि को गणितीय भाषाविज्ञान और आधुनिक रूपात्मक व्याकरण का अग्रदूत कहा जाता है, जिसके सिद्धांत कंप्यूटर भाषा को विशेषीकृत करने के लिए प्रयोग किए जाते हैं। पाणिनि के नियम पूर्ण रूप से श्रेष्ठ कहे जाते हैं, क्योंकि ये न सिर्फ संस्कृत भाषा के रूप प्रक्रियात्मक विश्लेषण के लिए सहायक हैं अपितु यह कंप्यूटर वैज्ञानिकों को मशीन संचालन के लिए स्पष्ट नियमों की व्याख्या भी करते हैं। पाणिनि ने कुछ आधिनियमों, रूपांतरण नियमों एवं पुनरावृति के जटिल नियमों का प्रयोग किया है, जिससे मशीन में गणितीय शक्ति की क्षमता विकसित की जा सकती है। 1959 में जॉन बैकस द्वारा स्वत्रंत रूप में Backus Normal Form (BNF) की खोज की गई। यह आधुनिक प्रोग्रामिंग भाषा को निरूपित करने वाला व्याकरण है । परंतु यह भी ध्यातव्य है कि आज के सैद्धांतिक कंप्यूटर विज्ञान की आधारभूत संकल्पना का स्रोत भारतीय प्रतिभा के गर्भ से 2500 वर्ष पूर्व ही हो चुका था, जो पाणिनि व्याकरण के नियमों से अर्थगत समानता रखता है।
पाणिनि हिन्दू वैदिक संस्कृति के अभिन्न अंग थे। व्याकरण के लिए उनकी तकनीकी प्राकल्पना वैदिक काल की समाप्ति और शास्त्रीय संस्कृत के उद्भव तक माना जाता है। यह इस बात की ओर भी संकेत करता है कि पाणिनि वैदिक काल के अंत तक जीवित रहे। प्रमाणों के आधार पर पाणिनि द्वारा दस विद्वानों का उल्लेख मिलता है जिन्होंने संस्कृत व्याकरण के अध्ययन में पाणिनि का योगदान दिया। यह इस बात की ओर भी संकेत करता है कि इन दस विद्वानों के बाद पाणिनि जीवित रहें लेकिन इसमें कोई निश्चित तिथि का प्रमाण नहीं मिलता वे दस विद्वान कब तक जीवित थें। ऐसे में यह कहने में अतिशयोक्ति न होगी की पाणिनि और उनके द्वारा कृत व्याकरण अष्टाध्यायी संपूर्ण मानव संस्कृति, विशेषकर भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। भाषिक संदर्भ में प्राचीन काल से अधुनिक काल तक यह भाषावैज्ञानिक और कंप्यूटर वैज्ञानिकों के अध्ययन-विश्लेषण का विषय रहा है, जिसके परिणाम सैद्धांतिक और प्रयोगात्मक पृष्टभूमि में विकसित प्रौद्योगिकी उपकरणों में देखे जा सकते हैं, जिसकी आधारशिला पाणिनि के अष्टाधायी के रूप में मानव बुद्धि की एकमात्र समाधिशिला बनकर स्थापित है।
(लेखिका महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग में शोधरत हैं।)






पारिभाषिक शब्द-संजाल (हिंदी एवं असमिया के विशेष संदर्भ में)

प्रतिभा पायें

शब्दसंजाल किसी लेक्सिम की प्रकृति और सही आशय प्रस्तुत करता है, जो उसके व्यवहार के आधार पर निर्धारित की जाती है। अंग्रेजी की एक वृहत परियोजना के अन्तर्गत शब्दसंजाल, प्रिंसटन विश्वविद्यालय में 80 के दशक में विकसित किया गया। यह जि.मिलर और सी.फेलबोम के प्रयास से विकसित हुआ।
वर्तमान समय में भाषाओं के बीच रही दूरियों को समाप्त करने के लिए कई प्रकार की कोशिश की जा रही है। उन्हीं कोशिशों के परिणाम स्वरुप, अपनी अभिरुचि के अनुरुप दो भारतीय भाषाएँ हिंदी और असमिया के शाब्दिक असमानताओं को सुलझाने के लिए एवं अनुवाद से लेकर विभिन्न भाषिक समस्याओं के समाधान हेतु मैंने इस लघु शोध विषय का चयन किया है।
इसमें हिंदी एवं असमिया भाषा की भाषायी समानता एवं असमानता को विवेचित किया गया है। व्याकरणिक कोटियाँ, शब्द भेदों की अध्ययन-प्रविधि स्पष्ट की गई है। दोनों भाषाओं की समानता एवं असमानता को भी विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है। यह प्रतिपादित करता है कि हिंदी एवं असमिया दोनों ही आर्य परिवार की भाषाएँ हैं। दोनों भाषाओं की संरचना में समानता है। वाक्य व्यवस्था, प्रोक्ति व्यवस्था, शब्द भेद, व्याकरणिक कोटियाँ, वचन, पुरुष, काल, पक्ष, वृत्ति, वाच्य इन सभी में समानता पाई जाती है। दूसरी ओर दोनों के लिंग एवं कारक चिन्हों में भी असमानता पाई जाती है।
कोशनिर्माण के विभिन्न घटकों एवं मापदंडों से संबंधित परिभाषा, विकास, उपयोगिता निर्माण-प्रक्रिया, प्रकार आदि के बारे में विस्तृत विवेचना कि गई है।
शब्दकोश में अर्थ, व्याकरणिक कोटि आदि के साथ शब्दों को इकट्ठा किया गया है जो उसकी उपयोगिता को निरुपित करता है, जिसमें शब्द, रुप, उच्चारण, व्याकरण, निर्देश, व्युत्पत्ति, व्याख्या, पर्याय, लिंग-निर्णय, चित्र और शब्दप्रयोग आदि का संक्षिप्त विवरण रहता है। भारत मनीषियों ने वैदिक काल से ही कोशविज्ञान में अपनी रूचि दिखाई है। पर यूरोप में 1000 ई0 के बाद ही कोशविज्ञान से संबंधित कार्य आरंभ हुआ। कोशविज्ञान अनेक प्रकार के होते हैं जो अलग-अलग कार्यो के लिए उपयोगी होते हैं।
डाटाबेस संरचना एवं ज्ञान प्रबंधन से संबंधित डाटा, सूचना, संचार-प्रौद्योगिकी, उपयोग, निर्माण, प्रक्रिया, कार्पस, प्राकृतिक भाषा संसाधन, ज्ञान प्रबंधन आदि पहलू पर विस्तृत विवेचना की गई है। डाटाबेस संरचना एवं ज्ञान प्रबंधन के तहत वर्तमान सूचना-प्रौद्योगिकी के समय उपयोगी संगणकीय कार्य प्रक्रिया के अर्न्तगत डाटाबेस की व्यापक उपयोगिता एवं अनुप्रयोग पक्ष को प्रतिपादित करते हुए डाटाबेस सूचनाओं का एक ऐसा व्यवस्थित संग्रह किया गया है, जिसमें हम किसी भी सूचना को सहज ही प्राप्त कर सकते है।
"शब्द संजाल:अनुप्रयोगिक पक्ष" से संबंधित शब्द संजाल, एल्गोरिदम, फलोचार्ट, प्रोग्रामिंग को विश्लेषित करते हुए एक ऐसे मॉड्‍यूल निर्मित किए गए हैं जो दोनों भाषाओं की व्याकरणिक संरचनात्मकता एवं पर्याय को स्पष्ट करता है।
अतः कह सकते हैं कि मेरे इस लघु शोध प्रबंध के सैद्धांतिक एवं अनुप्रायोगिक पक्ष का समेकित सार दोनों प्रकार के उपयोगी अध्ययनों को पारस्परलंबित करने वाला हैं। साथ ही यह सैद्धांतिक पक्ष की शक्ति क्षमता को अनुप्रायोगिक पक्ष की व्यावहारिकता को सार्थकता से उजागर करने वाला है।
(लेखिका महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के इनफॉर्मेटिक्स एँड लैंगुएज़ इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी अध्ययन केंद्र में शोधरत हैं।)

Semantice Net based Hindi Information Retriveal System

अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी


Information Retrieval is one of the most challenging and enormous fields of Natural Language Processing. In the present social scenario 'information' is treated as not only knowledge but also as constituents of power in its context with its own property.In this corpus, which represents natural language into language oriented computational behaviors; syntax is the key feature for information point of view, which can be covered through some punctuation marks, available in the texts. For retrieving information from any text, the supportive database of a hierarchically mapped semantic net should be prepared in concerned languages, and the corpus should be POS and syntactically tagged.
The role of a semantic net is central in this process, therefore it's database will be normalized. The result query will cover all the probable results despite mistakes committed by humans, like spelling and orthographic variations (etc.). In real time processing, the first query will go into the semantic net, then it will match the relevant text according to that query. That is why a hierarchically mapped and normalized database will be more helpful to get results with sorted frame.
Although in this model preprocessing is required within the certain adopted framework at several levels, such as tagging, normalizing and hierarchical mapping of data as per its use and role in society. In its result, however, there is no need of post processing; the result will be indexed according to the mapped hierarchy so that output will be relevant and well matched to queries.
In this model, stemming and ambiguity resolution of a given query will be helpful in matching. Codification of stop words will increase the speed of system
processing.
*Abstract of M.Phil Research work
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा , महाराष्ट्र के भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग में शोधरत हैं।)

अरूण कमल की काव्यभाषा और समांतरता

शशिभूषण सिंह


काव्यभाषा को विशिष्टत्व प्रदान करने में जिन कारकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है, समांतरता उन्हीं में से एक है। समांतरता शैलीविज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण संघटक है। जब दो या दो से अधिक छवियाँ , शब्द ,रूप , वाक्य और प्रोक्ति कविता में पुनरूक्त होते हैं, तब समांतरताएँ होती हैं। किंतु ध्यातव्य है कि सभी पुनरूक्तियाँ , समांतरताएँ नहीं बनती , बल्कि जब ये सार्थक और साभिप्राय होती हैं तभी ये समांतरता बनती हैं अर्थातजब पुनरूक्तियाँ सोद्देश्य और सनियम की जाती हैं, तभी उन पुनरूक्तियों को समांतरता में परिगणित किया जा सकता है।
समकालीन हिंदी काव्यभाषा की गरमाहट उसके जुझारूपन में दिखाई देती है। आम आदमी की पीड़ा, उसके संघर्ष, लोककथा, लोकगीत और साधारणजनों के मुहावरों और ठहाकों ने जितना धार समकालीन काव्यभाषा को दिया है, उतना ही समांतरता ने भी। निराला की कविता ‘जूही की कली’ में समांतरता की उपस्थिति द्रष्टव्य है-

“आई याद बिछुड़न से मिलन की वह बात ,
आई याद चांदनी से धुली हुई आधी रात
आई याद कांता की कंपित कमनीय गात”

उपर्युक्त पंक्तियों में ‘ आई याद ’ क्रियापद की साभिप्राय आवृति पाठक या श्रोता के मन पर विशेष प्रभाव छोड़ती है। निराला के लगभग आधी सदी बाद अरूण कमल की पंक्तियां हैं-

“अभी भी जिंदगी ढूंढती है धुरी
अभी भी जिंदगी ढूंढती है मुक्ति
कहाँ अवकाश कहाँ समाप्ति”
(मुक्ति कविता से)
उपर्युक्त पंक्तियों को पढ़कर सहज ही समझा जा सकता है कि कविता में जो बेचैनी दिखाई देती है ,‘अभी’ की आवृति उसे थोड़ा और सघन बना देती है। समांतरता का ऐसा चमत्कारी दिग्दर्शन अरूण कमल की कविताओं में आद्योपांत दिखाई देता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अरूण कमल की कविता का नाभि केन्द्र है- समांतरता। यहाँ समांतरता के दोनों रूपों (समतामूलक और विरोधी) का दर्शन होता है।
शब्द और रूप स्तर पर समांतरता प्रायः सभी समकालीन कवियो में देखी जा सकती है। किंतु वाक्य और प्रोक्ति स्तर की समांतरता का चमत्कार जो अरूण कमल की काव्यभाषा में है, वह अन्य समकालीन कवियों की काव्यभाषा में दुर्लभ है। वाक्य - स्तरीय समांतरता का एक उदाहरण उनकी ‘होटल’ कविता में दिखाई देती है -

ऐसी ही थाली,
ऐसी ही कटोरी,
ऐसा ही गिलास,
ऐसी ही रोटी,
ऐसा ही पानी
यहाँ वाक्य-संरचना की आवृति में समांतरता है। वाक्य का आवर्तित संरचनात्मक ढांचा द्रष्टव्य है-
सार्वनामिक विशेषण + बलात्मक अव्यय + संज्ञा
ऐसी ही थाली
ऐसी ही कटोरी
ऐसा ही गिलास
ऐसी ही रोटी
इसी प्रकार अरूण कमल की कविताओं में प्रोक्ति - स्तरीय समांतरता भी प्रचुर दिखाई देती है -

“बदबू से फटते जाते इस
टोले के अंदर
खुशबू रचते हाथ
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दुनिया की सारी गंदगी के बीच
दुनिया की सारी खुशबू
रचते रहते हाथ”
(‘खुशबू’ कविता से)

अरूण कमल की कविताओं में(समतामूलक) अर्थ-स्तरीय समांतरता अपेक्षाकृत कम दिखाई पड़ती है किंतु वे कम आकर्षक नहीं हैं -
“सही साइत पर बोला गया शब्द
सही वक्त पर कंधे पर रखा गया हाथ
सही समय पर किसी मोड़ पर इंतजार”
(‘राख’ कविता से)



यहाँ ‘साइत’ और ‘वक्त’ , ‘समय’ के ही दो पर्याय हैं। बड़ी ही कुशलता से कवि ने यहाँ शब्दों की जगह अर्थ की बारंबारता को अध्यारोपित किया है तथा लयात्मकता की क्षति से काव्यभाषा का बचाव भी।
किंतु समतामूलक समांतरता से कहीं ज्यादा आकर्षण (अरूण कमल के यहाँ) विरोधी समांतरता में दिखाई पड़ता है, बल्कि अरूण कमल तो विरोधी समांतरता के कवि ही माने जाते हैं- खासकर प्रोक्ति - स्तरीय विरोधी समांतरता के -


“कितने ही घरों के पुल टूटे
इस पुल को बनाते हुए”
(‘महात्मा गांधी सेतु और मजदूर’ कविता से)
“माताएँ मरे बच्चों को जन्म दे रही हैं
और हिजड़े चैराहों पर थपड़ी बजाते
सोहर गा रहे हैं”
(‘उल्टा जमाना’ कविता से)
विरोधी स्थितियों की भयावहता को चित्रित करने में अरूण कमल का जोड़ नहीं । शैली वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह चित्रण काव्यभाषा में विरोधी समांतरता से ही संभव है। तभी तो अनुप्रयुक्त भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का शैली -विज्ञान समांतरता को काव्य- भाषा के वैशिष्ट्य के उत्कर्षकों में गिनता है।
बात जहाँ तक व्यंजना में कहनी हो वहाँ अरूण कमल की कविता में प्रोक्ति - स्तरीय विरोधी समांतरता दिखाई देती है, किंतु जहाँ बात अविधा में कहनी हो वहाँ इनकी कविता प्रायः अर्थ-स्तरीय विरोधी समांतरता को बुनती हैं। जी.डब्ल्यू एलन इसे ही ^Antithetical Parallism’ कहते हैं। अरूण कमल की कविता में समांतरता का ये दृष्टांत प्रचुर मात्रा में विद्यमान है ”“-
“इस नए बसते इलाके में
जहाँ रोज बन रहें हैं नए-नए मकान
मैं अक्सर रास्ता भूल जाता हूँ
धोखा दे जाते हैं पुराने निशाने”
(‘नए इलाके में’ कविता से)
“दुनिया में इतना दुःख है इतना ज्वर
सुख के लिए चाहिए बस दो रोटी और एक घर
दिन इतना छोटा रातें इतनी लम्बी हिंसक पशुओं भरी”
(‘आत्मकथ्य’ कविता से)

स्पष्ट है कि समांतरता का अनुप्रयोग न केवल काव्यभाषा को सुशोभित करता है, बल्कि उसकी अपील को भी द्विगुणित कर देता है। काव्यभाषा के इस आधुनिक संप्रत्यय की मदद से काव्य-वस्तु का पुनरीक्षण किंचित अभिनव तरीके से किया जा सकता है।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के साहित्य विभाग में शोधरत हैं।)

साइबर आतंक

अंजनी कुमार राय



इंटरनेट का प्रयोग करते समय अपने आपको सुरक्षित करें।
Entiding- ई-मेल का विषय और फोटो आपके सुरक्षा तंत्र को हानि पहुँचा सकते हैं। ऐसी कोई चीज नहीं है जिससे आपका कंप्यूटर सुरक्षित रह सके। दुनिया में संघटनात्मक अपराध में दिनोंदिन बढ़ोत्तरी हो रही है। जिससे हमला और अधिक पैना एवं आधुनिक होता जा रहा है।
यह केवल वायरस, ट्रोजन या वार्म (प्रोगामिंग कीड़े) की बात नहीं है जो आपके कंप्यूटर सिस्टम को हानि पहुँचा सकते हैं। बल्कि जब आप इंटरनेट से जुड़े होते हैं तब आप बहुत तरह के आघात को खुला आमंत्रण देते हैं। हैकर आपके सिस्टम से सीधे सम्पर्क कर सकते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि साइबर आतंकवादी कंप्यूटर का अधिग्रहण (हैक) कर लेते हैं और ट्रोजन के जरिए ई-मेल भेजते हैं। ट्रोजन पुराने तरीके से धोखा देने वाला एक तरीका है, जिसके जरिए एक प्रोग्राम को लोड किया जाता है जिससे हैकर आपके कंप्यूटर तक बड़ी आसानी से पहुंच बना सकते हैं। हैकर आपके कंप्यूटर पर आए हुए मेल और आपके द्वारा भेजे गए सभी मेल पर अपनी नजर रख सकता है। इसके अलावा आप किस वेबसाइट को देखते हैं और आप जो भी लेन-देन करते हैं इसके बारे में भी हैकर को जानकारी मिल जाती है और आपको पता भी नहीं चलता।
Malicious website- यह आपकी व्यक्तिगत जानकारी ले सकते हैं। जैसे क्रेडिट कार्ड की जानकारी, पासवर्ड, सॉफ्टवेयर पीसी में घुसकर बहुत कुछ आपके जानकारी के बिना कर सकते हैं क्योंकि कंप्यूटर सॉफ्टवेयर एवं इंटरनेट भविष्य में बहुत धनी एवं कठिन होते जा रहे हैं। सभी को सतर्क रहने की जरूरत है। खासकर जब आप कोई ऑनलाईन लेनदेन बैंक में और शॉपिंग करने के दौरान कर रहें हैं।
1990 के दशक में वेब पेज को सर्फ करने में खतरा नहीं था क्योंकि उस समय बहुत साधारण किस्म का वेब पेज हुआ करता था। परंतु अभी के समय में वेब पेज कठिन होता है, जिसमें प्रत्यारोपित वीडियो, जावा स्क्रीप्ट पी.एच.पी. कोड और भी बहुत सारी अंतरंग (interective) सुविधाएँ होती हैं। प्रोग्रामिंग की गलतियाँ एवं लूप होल्स जिसके कारण इस तरह के वेबसाइट को हमलावर (attacker) अपने हाथों में लेकर व्यक्तिगत जानकारी को हासिल कर लेता है या अपने सॉफ्टवेयर को आपके पीसी में स्थापित करता है। इन सबसे बचने के लिए आत्म रक्षा एवं सुरक्षा के पहलू को जानने की जरूरत है।
यदि आप कोई ई-मेल जो कि अपरिचित स्रोत से प्राप्त करते हैं जिसमें आपसे कहा जाता है कि आप इस लिंक पर क्लिक करके लड़की को नग्न अवस्था में देख सकते हैं। आजकल बहुत लोग इस बात को जानते हैं कि इस तरह के लिंक को क्लिक करने से वायरस का आघात हो सकता है। लेकिन अभी भी बहुत से इंटरनेट यूजर हैं जो इस बात से अनभिज्ञ हैं।
तब आप क्या करें जब एक ई-मेल ज्ञात स्रोत से प्राप्त हो। जैसे कि आपके बैंक से एक ई-मेल आता है, जिसमें बैंक का ग्राफिक, पहचान चिह्न (logo) हो और आपसे कहे कि पिन या पासवर्ड को पुनः स्थापित करने के लिए क्लिक करें। यह लिंक आपको आपके बैंक के वेबपेज पर ले जाएगा। आपको लगेगा जो पेज खुला है जिसमें वेरीसाइन (verisign) के सुरक्षा सर्टिफिकेट का लोगो मौजूद है। तब आप अपना पहले का आई-डी और पासवर्ड देते हैं। साथ ही आप हमलावर को इस बात का मौका भी देते हैं कि वो आपका खाता पूर्णतया खाली कर दे या आपके दिए गए नंबर से ऑनलाइन खरीदारी कर सके।
पहले बताए गए हमला विधि को जो ई-मेल आपके बैंक से आया है और कहता है कि आप अपनी व्यक्तिगत जानकारी दें। इस प्रकार का हमला पब्लिसिंग कहलाता है। इसकी जानकारी लगभग सभी लोगों को दिनोंदिन हो रही है जिसके कारण हमलावार ने एक नया और पैना रास्ता निकाला है जिसे cross-site scripting (xss) कहते हैं। इसमें हमलावर प्रत्यारोपित लिंक में कोड जोड देते हैं। यह कोड वेब एप्लिकेशन को अपने तरिके से चलाता है। इस प्रक्रिया में सर्वर में कोई परिवर्तन नहीं होता बल्कि आपके सामने आने वाले पेज का परिवर्तन होता है। सामान्यता ये आपको दूसरे पेज पर ले जाते हैं जो हमलावर द्वारा तैयार किए गए होते हैं। इस तरह के हमलों को रोकने के लिए कंप्यूटर सुरक्षा विशेषज्ञ नए सॉफ्ट्वेयर की प्रोग्रामिंग में लगे रहते हैं। तबतक इन हमलों से बचने के लिए इलाज के बजाए रोकथाम का उपाय ही बेहतर रास्ता नजर आता है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) में प्रणाली विश्लेषक हैं।)

देह भाषा की राजनीति

प्रत्युष प्रशांत


भाषा सम्बन्धी चिन्ता और चिन्तन आजकल एक पुरातन सोच का प्रतीक मानी जाती है। ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में इस प्रकार की चर्चा गैर-सामयिक और अप्रासंगिक मानी जा रही है। भाषा सम्बन्धी चिन्ताओं से किसी को अवगत कराओ तो वे कहते हैं क्या गैर-प्रोडक्टिव सोचते रहते हों? कोई कहता है यार आज मार्केट इतना चढ़ गया तुमको भाषा की चिन्ता सता रही है। यहाँ भाषा से हमारा तात्पर्य भौतिक जगत को जानने, अन्य मनुष्यों के साथ सम्पर्क स्थापित करने और अपने विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त करने में सहायता मिलती है। इसलिए ऐसा माना जाता है कि भाषा बाह्य जगत् में मनुष्य की गतिविधियों के लिए एक साधन है। सांस्कृतिक प्रवाह में और समय की धारा में भाषाएँ आती जाती रहती हैं, नई-नई भाषाएँ पुरानी भाषाओं का स्थान लेती रहती हैं परन्तु कई बार सांस्कृतिक प्रवाह में और समय की धारा में हम कुछ चीजों के बारे में नहीं सोच पाते या वो चीजें छूट जाती हैं. हम जब कभी भाषा की बात करते हैं तो क्या कभी देह भाषा के बारे में भी सोचते हैं शायद नहीं? अक्सर देह भाषा का मतलब अंग्रेजी के शब्द Body language से ही लगाया जाता है। अगर हम linguistics में देखें तो वहाँ भाषा को विभिन्न मुखाव्यवों द्वारा उच्चारित भाषा ही कहा जाता है और अगर किसी आम आदमी से पूछा जाये तो वह भी यही कहेगा कि भाषा तो वही है जो मुँह से बोली जाती है और बहुत से बड़े विद्वानों (सस्यूर, ब्लूमफ़ील्ड, नोअम चॉम्स्की, फर्ग्युसन, लेबाव, रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, भोलानाथ तिवारी)ने भी भाषा के बारे में जो खोज किए हैं वो भी भाषा की सरंचना के आधार पर ही किए हैं या फिर उसे समाज के साथ जोड़ कर ही देखा है पर उन्होंने कहीं भी भाषा को देह के साथ जोड़ कर नहीं देखा ,जबकि अगर ध्यान से देखा जाए तो हमारी भाषा की शुरुआत ही संकेतों और देह भाषा ही से हुई है। एक जमाना ऐसा था मानव इतिहास में जब संकेतों और खास तरह के बीप्स के द्वारा मानव व्यवहार से जुड़ी चीजें की जाती थीं। भारत में कई पारंपरिक नृत्यों में हाथ की अलग-अलग मुद्राओं का संकेत अलग-अलग होता है। आँखों की भाव-भंगिमा का संकेत भी अलग-अलग होता है। पहले के समय में जब हमारे पास भाषा नहीं थी तब हम संकेतों, इशारों शरीर के विभिन्न अंगों व चिन्हों के माध्यम से ही अपनी बात दूसरों तक पहुंचाते थे पर जैसे-जैसे भाषा का विकास होता गया, वैसे-वैसे हम सिर्फ़ मुँह से बोलने वाली भाषा तक ही सीमित रह गए और यहाँ तक के सारे शोध वगैरह भी बाद में इसी पर सीमित हो गए और हमने अपनी भाषा का विकास जहाँ से शुरू किया था, हम उसे भूल ही गए पर अगर हम गौर करें तो हम कम से कम अपनी आधी बातें तो संकेतों, इशारों, चिन्हों आदि से ही कहते हैं,जैसे मुझे नहीं पता के लिए कंधे उचकाना, अंगुली मुँह पर रखने का अर्थ है चुप रहना, हाथ को घुमाकर पूछने का अर्थ है क्या हुआ? ताली बजाने का अर्थ है किसी काम का अच्छा करने पर उसकी तारीफ़ करना, किसी का हाथ छूना। अब देखिये हाथ को छूने के भी अर्थ निकलते है जैसे किसी माँ का अपने बेटे को छूने में ममता झलकती है। जाने इस तरह के कितने ही संकेतों का इस्तेमाल हम अपने रोज़मर्रा के भावों और विचारों को बताने के लिए करते हैं पर हम फ़िर भी इस देह भाषा के बारे में कभी भी नहीं सोचते जबकि हमें अपनी भाषा में इसे भी जगह देनी चाहिए माना कि ये भाषा का सीमित रूप है पर फ़िर भी जब हम समाज और भाषा के सम्बन्ध को देखते हुए भाषा की बात करते हैं तो जहाँ तक मुझे लगता है हम इस देह भाषा को अनदेखा नहीं कर सकते हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और इनसे prashant.pratyush @gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

कम्प्यूटर में देवनागरी का प्रयोग एवं उपयोगिता

गिरीशचंद्र पाण्डेय


देवनागरी लिपि में लिखी गयी हिन्दी को राजभाषा हिन्दी के रूप में माना गया है। देवनागरी एक वैज्ञानिक लिपि है। कोई भी लिपि वैज्ञानिक लिपि तब कही जाती है जब उसमें प्रत्येक सार्थक ध्वनि के लिए कोई न कोई लिपि चिन्ह हो। देवनागरी में लगभग हर सार्थक ध्वनि के लिए एक लिपि चिन्ह है। अत: हम कह सकते हैं कि देवनागरी एक वैज्ञानिक लिपि है। इस तथ्य को देखते हुए हम यह कह सकते हैं कि हिन्दी कम्प्यूटर के लिए और कम्प्यूटर हिन्दी के लिए काफी उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। हिन्दी के ही सन्दर्भ में कहें तो देवनागरी लिपि की कुछ और खास बातें हैं जो इस प्रकार हैं-
1. लिपि चिन्हों के नाम ध्वनि के अनुरूप:- देवनागरी की सबसे अधिक महत्वपूर्ण शक्ति यह है कि जो लिपि चिन्ह जिस ध्वनि का द्योतक है उसका नाम भी वही है। जैसे आ, ओ, क, ब, थ आदि। इस प्रकार लिपि चिन्हों की ध्वनि शब्दों में प्रयुक्त होने पर भी वही रहती है। दुनिया की अन्य किसी भी लिपि में इतना सामर्थ्य नहीं है।
2. एक ध्वनि के लिए एक लिपि चिन्ह:- (अधिक नहीं) श्रेष्ठ लिपि में यह गुण होना आवश्यक है। यदि एक ध्वनि के लिए एक से अधिक लिपि चिन्ह होंगे तो उस लिपि के प्रयोक्ता के सामने एक बड़ी कठिनाई यह आयेगी कि वह किस चिन्ह का प्रयोग कहाँ करें। कुछ अपवादों को छोड़ कर देवनागरी में एक ध्वनि के लिए एक लिपि चिन्ह है। जबकि अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं में ऐसा नहीं है। उदा. के लिए C से स और क दोनों का उच्चारण किया जाता है। इसी तरह क के लिए K व C दोनो का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए City, cut, Kamala, coock आदि।
3. लिपि चिन्हो की पर्याप्तता :- विश्व की अधिकांश लिपियों में चिन्ह प्रर्याप्त नहीं हैं। जैसे-अंग्रेजी में 40 से अधिक ध्वनियों के लिए 26, लिपि चिन्हों से काम चलाया जाता है। जैसे त, थ, द, ध आदि के लिए अलग-अलग लिपि-चिह्न नहीं है, जबकि देवनागरी लिपि में इस दॄष्टि से कोई कमीं नहीं है।
हिन्दी में कम्प्यूटर का प्रयोग :-
कम्प्यूटर में नागरी उपयोग का श्रेय इलेक्ट्रॉनिक आयोग, नई दिल्ली के डॉ.ओम विकास को है। डॉ. वागीश शुक्ल ने अपनी किताब ''छदं-छदं पर कुमकुम'' को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय विद्यालय के प्रकाशन के रूप में प्रकाशित किया है।
इस पुस्तक के प्रकाशन में डोनाल्ड नुथ द्वारा अविस्कारित ''टेक टाईप सेटिंग सिस्टम'' और लेसली लैम्पोर्ट (Leslie Lanport) के स् Latex Marco System का प्रयोग किया है। साथ ही सयुक्ताक्षरों के लिए देवनाग पैकेज (जोकि वेलथुइस द्वारा बनाया गया है) का उपयोग किया है।
अन्य बहुत सारे हिन्दी के साफ्टवेयर हैं, जो आजकल बाजार में भरे पड़े है। जैसे- प्रकाशक, श्रीलिपि, आईलिपि, जिस्ट, मात्रा, अंकुर, आकृति, सुलिपि, अक्षर फार विन्डोज, मायाफोनटिक टुल, चित्रलेखा, अनुवाद, आओ हिन्दी पढ़े, गुरू और आंग्लभारती आदि
राजभाषा हिन्दी में कम्प्यूटर की उपयोगिता :-
1. मानकीकरण में मद्द मिलेगी:- कम्प्यूटर के प्रयोग से हिन्दी के मानकीकरण में सहायता मिलेगी। उदा. के लिए पुराने हिन्दी के टाइपराइटरों में चन्द्रबिन्दु (अनुनासिक) की जगह बिन्दु (अनुस्वार) से ही काम चलाया जाता था। कम्प्यूटर के आ जाने से इस समस्या का समाधान हो गया है।
2. टाइपराइटर पर 92 अक्षर से ज्यादा सम्मिलत करना सम्भव नहीं है।
3. हिन्दी के प्रचार प्रसार में:- मशीन ट्रान्सलेशन एवं इलेम्ट्रानिक हिन्दी शब्द कोश के माध्यम से अहिन्दी भाषियों को भी हिन्दी आसानी से सिखाया जा सकता है।
4. दुर्लभ ग्रथों को सुरक्षित रखने में:- कम्प्यूटर के माध्यम से हम दुर्लभ ग्रंथों को स्कैन करके सॉफ्ट कॉपी बनाकर सैकड़ों वर्षों तक सुरक्षित रख सकते हैं।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) में लैबोरेटरी इन इन्फार्मेटिक्स फार द लिबरल आर्ट्स के प्रभारी हैं।)


कम्प्यूटर में देवनागरी का प्रयोग एवं उपयोगिता

गिरीशचंद्र पाण्डेय


देवनागरी लिपि में लिखी गयी हिन्दी को राजभाषा हिन्दी के रूप में माना गया है। देवनागरी एक वैज्ञानिक लिपि है। कोई भी लिपि वैज्ञानिक लिपि तब कही जाती है जब उसमें प्रत्येक सार्थक ध्वनि के लिए कोई न कोई लिपि चिन्ह हो। देवनागरी में लगभग हर सार्थक ध्वनि के लिए एक लिपि चिन्ह है। अत: हम कह सकते हैं कि देवनागरी एक वैज्ञानिक लिपि है। इस तथ्य को देखते हुए हम यह कह सकते हैं कि हिन्दी कम्प्यूटर के लिए और कम्प्यूटर हिन्दी के लिए काफी उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। हिन्दी के ही सन्दर्भ में कहें तो देवनागरी लिपि की कुछ और खास बातें हैं जो इस प्रकार हैं-
1. लिपि चिन्हों के नाम ध्वनि के अनुरूप:- देवनागरी की सबसे अधिक महत्वपूर्ण शक्ति यह है कि जो लिपि चिन्ह जिस ध्वनि का द्योतक है उसका नाम भी वही है। जैसे आ, ओ, क, ब, थ आदि। इस प्रकार लिपि चिन्हों की ध्वनि शब्दों में प्रयुक्त होने पर भी वही रहती है। दुनिया की अन्य किसी भी लिपि में इतना सामर्थ्य नहीं है।
2. एक ध्वनि के लिए एक लिपि चिन्ह:- (अधिक नहीं) श्रेष्ठ लिपि में यह गुण होना आवश्यक है। यदि एक ध्वनि के लिए एक से अधिक लिपि चिन्ह होंगे तो उस लिपि के प्रयोक्ता के सामने एक बड़ी कठिनाई यह आयेगी कि वह किस चिन्ह का प्रयोग कहाँ करें। कुछ अपवादों को छोड़ कर देवनागरी में एक ध्वनि के लिए एक लिपि चिन्ह है। जबकि अंग्रेजी एवं अन्य भाषाओं में ऐसा नहीं है। उदा. के लिए C से स और क दोनों का उच्चारण किया जाता है। इसी तरह क के लिए K व C दोनो का प्रयोग किया जाता है। उदाहरण के लिए City, cut, Kamala, coock आदि।
3. लिपि चिन्हो की पर्याप्तता :- विश्व की अधिकांश लिपियों में चिन्ह प्रर्याप्त नहीं हैं। जैसे-अंग्रेजी में 40 से अधिक ध्वनियों के लिए 26, लिपि चिन्हों से काम चलाया जाता है। जैसे त, थ, द, ध आदि के लिए अलग-अलग लिपि-चिह्न नहीं है, जबकि देवनागरी लिपि में इस दॄष्टि से कोई कमीं नहीं है।
हिन्दी में कम्प्यूटर का प्रयोग :-
कम्प्यूटर में नागरी उपयोग का श्रेय इलेक्ट्रॉनिक आयोग, नई दिल्ली के डॉ.ओम विकास को है। डॉ. वागीश शुक्ल ने अपनी किताब ''छदं-छदं पर कुमकुम'' को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय विद्यालय के प्रकाशन के रूप में प्रकाशित किया है।
इस पुस्तक के प्रकाशन में डोनाल्ड नुथ द्वारा अविस्कारित ''टेक टाईप सेटिंग सिस्टम'' और लेसली लैम्पोर्ट (Leslie Lanport) के स् Latex Marco System का प्रयोग किया है। साथ ही सयुक्ताक्षरों के लिए देवनाग पैकेज (जोकि वेलथुइस द्वारा बनाया गया है) का उपयोग किया है।
अन्य बहुत सारे हिन्दी के साफ्टवेयर हैं, जो आजकल बाजार में भरे पड़े है। जैसे- प्रकाशक, श्रीलिपि, आईलिपि, जिस्ट, मात्रा, अंकुर, आकृति, सुलिपि, अक्षर फार विन्डोज, मायाफोनटिक टुल, चित्रलेखा, अनुवाद, आओ हिन्दी पढ़े, गुरू और आंग्लभारती आदि
राजभाषा हिन्दी में कम्प्यूटर की उपयोगिता :-
1. मानकीकरण में मद्द मिलेगी:- कम्प्यूटर के प्रयोग से हिन्दी के मानकीकरण में सहायता मिलेगी। उदा. के लिए पुराने हिन्दी के टाइपराइटरों में चन्द्रबिन्दु (अनुनासिक) की जगह बिन्दु (अनुस्वार) से ही काम चलाया जाता था। कम्प्यूटर के आ जाने से इस समस्या का समाधान हो गया है।
2. टाइपराइटर पर 92 अक्षर से ज्यादा सम्मिलत करना सम्भव नहीं है।
3. हिन्दी के प्रचार प्रसार में:- मशीन ट्रान्सलेशन एवं इलेम्ट्रानिक हिन्दी शब्द कोश के माध्यम से अहिन्दी भाषियों को भी हिन्दी आसानी से सिखाया जा सकता है।
4. दुर्लभ ग्रथों को सुरक्षित रखने में:- कम्प्यूटर के माध्यम से हम दुर्लभ ग्रंथों को स्कैन करके सॉफ्ट कॉपी बनाकर सैकड़ों वर्षों तक सुरक्षित रख सकते हैं।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) में लैबोरेटरी इन इन्फार्मेटिक्स फार द लिबरल आर्ट्स के प्रभारी हैं।)


संचार क्रान्ति के दौर में भाषा

विवेक जायसवाल

यह बात आज किसी से छिपी हुई नहीं है कि हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जब संचार के साधनों ने अपना असीम विस्तार कर लिया है। यह यकायक घटने वाली कोई घटना नहीं है बल्कि सम्पूर्ण विश्व में इसकी एक लम्बी परम्परा रही है। आज दुनिया का कोई ऐसा कोना नहीं बचा है जिसके बारे में जानना हमारे लिए असम्भव हो। भूमण्डलीकरण और संचार के साधनों के विकास के कारण सम्पूर्ण विश्व लगातार परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। संचार साधनों के इस विकास को सूचना क्रान्ति से नवाज़ा गया है। आज हर व्यक्ति के पास इस संचार क्रान्ति का कोई न कोई उत्पाद जरूर मौजूद है, जिसका उपयोग वह नित्य प्रतिदिन करता है। यह सच है कि संचार साधनों के विकास ने मनुष्य को पहले से अधिक गतिशील और कार्यकुशल बनाया है पर इसने भाषा और संस्कृति पर जोरदार हमला भी किया है।
टेलीविजन, कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, इंटरनेट, फैक्स मशीन, टेलीप्रिन्टर इत्यादि इसी संचार क्रान्ति की ही देन हैं। यदि हम इस क्रान्ति के भाषाई सम्बन्धों पर बात करें तो इन सारी तकनीकों में किसी न किसी रूप में भाषा का इस्तेमाल होता है। इनमें प्रयुक्त की जाने वाली भाषा का न तो कोई मानक है और न ही कोई आचार संहिता। जिस तकनीक में जो भाषा सुगम लगी उसमें उसी भाषा को अपना लिया जाता है।
देश के संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय का यह दावा है कि भारत के सॉफ्टवेयर इंजीनियरों ने कंप्यूटर तथा सूचना प्रौद्योगिकी के विकास और प्रसार में अपने योगदान का लोहा दुनिया भर में मनवा लिया है। देशी-विदेशी मुद्रा कमाने में इस विकास ने भले ही योगदान दिया हो पर भारत के लोगों के लिए इसका कोई खास फायदा नजर नहीं आता। इसका फायदा तभी नजर आएगा जब देश के अधिकांश लोग इन तकनीकों का भारी पैमाने पर इस्तेमाल करना शुरू करेंगे और यह फायदा तभी संभव होगा जब भारतीय भाषाओं को ध्यान में रखते हुए इन तकनीकों का निर्माण किया जाएगा। कम्प्यूटर को ही लें। कम्प्यूटर में आज भारतीय भाषाओं के फाण्ट सम्बन्धी समस्याएँ बनी हुई हैं। भारतीय भाषाओं के फाण्ट कम्प्यूटर पर सहज रूप से नहीं उपलब्ध हैं। समस्या यह है कि उत्पादन के स्तर पर भारतीय भाषाओं के फाण्ट्स कम्प्यूटर पर नहीं डाले जाते। इस्तेमाल करने वाले लोग अपनी-अपनी जरूरतों के अनुसार अपनी-अपनी भाषाओं के फाण्ट्स डाल लेते हैं। बाजार में सैकड़ों फॉन्ट्स उपलब्ध हैं जिन्हें खरीदा भी जाता है, मुफ्त डाउनलोड भी किया जा सकता है। अनेक संस्थानों ने अपने लिए विशेष फॉन्ट्स विकसित भी कर लिए हैं। यहां तक तो ठीक है, लेकिन जब भारतीय भाषाओं में सूचनाओं के आदान-प्रदान की कोशिश की जाती है, तो असफलता ही हाथ लगती है। इस असफलता के बाद हमें सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए अंग्रेजी पर ही निर्भर होना पड़ता है। सवाल यहां यह है कि जब हम तकनीकी रूप से सक्षम हैं तो भारतीय भाषाओं के फाण्ट सम्बन्धी समस्या से सीधे तौर क्यों नहीं निपटा जा सकता?
यह समस्याएँ तो हुई तकनीकों के उत्पादन के स्तर पर। लेकिन व्यावहारिक स्तर पर भाषा की समस्याएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। भाषा पर दिनोंदिन हमला बढ़ता जा रहा है। एक तरफ हम अपनी भाषा को आगे ले जाने की बात करते हैं तो दूसरी तरफ उन्हें साम्राज्यवादी भाषा अंग्रेजी द्वारा पुन: हथिया लिया जाता है और यह काम हमारे ही जनमाध्यम बड़ी तेजी से कर रहे हैं। सूचना क्रान्ति के आने से जनमाध्यमों का तेजी से विकास हुआ। चाहे वह इलेक्ट्रानिक माध्यम हों या मुद्रित माध्यम भाषा पर हमला सभी जगह जारी है। उदाहरण के तौर पर आज की फिल्मों, विज्ञापनों और पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी के रूप में हिन्दी गायब है। किसी बात को सीधे तौर हिन्दी में न कहकर उसमें अंग्रेजी का मिश्रण करके कहा जा रहा है। यदि हम ध्यान दें तो हम अंग्रेजी चैनलों, पत्र-पत्रिकाओं, फिल्मों में ऐसा नहीं पाएँगे। दरअसल यह साम्राज्यवादी मानसिकता के तहत भाषा पर किया गया हमला है। यहां पुन: वही सवाल उठता है कि क्या आखिर ऐसा क्या है? जो हमें अपने लोगों के लिए अपनी भाषा में कुछ कहने या सुनने नहीं देता। इस तथाकथित सूचना क्रान्ति (तथाकथित यहां इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं नहीं मानता कि यह वास्तव में कोई क्रान्ति है) की आड़ में किए जा रहे भाषाई हमले के प्रति हमें जागरूक होना होगा ताकि हमारी अपनी भाषा का अस्तित्व बरकरार रहे।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के जनसंचार विभाग में कनिष्ठ शोध अध्येता हैं।)
संचार क्रान्ति के दौर में भाषा
-विवेक जायसवाल
यह बात आज किसी से छिपी हुई नहीं है कि हम एक ऐसे युग में जी रहे हैं जब संचार के साधनों ने अपना असीम विस्तार कर लिया है। यह यकायक घटने वाली कोई घटना नहीं है बल्कि सम्पूर्ण विश्व में इसकी एक लम्बी परम्परा रही है। आज दुनिया का कोई ऐसा कोना नहीं बचा है जिसके बारे में जानना हमारे लिए असम्भव हो। भूमण्डलीकरण और संचार के साधनों के विकास के कारण सम्पूर्ण विश्व लगातार परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। संचार साधनों के इस विकास को सूचना क्रान्ति से नवाज़ा गया है। आज हर व्यक्ति के पास इस संचार क्रान्ति का कोई न कोई उत्पाद जरूर मौजूद है, जिसका उपयोग वह नित्य प्रतिदिन करता है। यह सच है कि संचार साधनों के विकास ने मनुष्य को पहले से अधिक गतिशील और कार्यकुशल बनाया है पर इसने भाषा और संस्कृति पर जोरदार हमला भी किया है।
टेलीविजन, कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, इंटरनेट, फैक्स मशीन, टेलीप्रिन्टर इत्यादि इसी संचार क्रान्ति की ही देन हैं। यदि हम इस क्रान्ति के भाषाई सम्बन्धों पर बात करें तो इन सारी तकनीकों में किसी न किसी रूप में भाषा का इस्तेमाल होता है। इनमें प्रयुक्त की जाने वाली भाषा का न तो कोई मानक है और न ही कोई आचार संहिता। जिस तकनीक में जो भाषा सुगम लगी उसमें उसी भाषा को अपना लिया जाता है।
देश के संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय का यह दावा है कि भारत के सॉफ्टवेयर इंजीनियरों ने कंप्यूटर तथा सूचना प्रौद्योगिकी के विकास और प्रसार में अपने योगदान का लोहा दुनिया भर में मनवा लिया है। देशी-विदेशी मुद्रा कमाने में इस विकास ने भले ही योगदान दिया हो पर भारत के लोगों के लिए इसका कोई खास फायदा नजर नहीं आता। इसका फायदा तभी नजर आएगा जब देश के अधिकांश लोग इन तकनीकों का भारी पैमाने पर इस्तेमाल करना शुरू करेंगे और यह फायदा तभी संभव होगा जब भारतीय भाषाओं को ध्यान में रखते हुए इन तकनीकों का निर्माण किया जाएगा। कम्प्यूटर को ही लें। कम्प्यूटर में आज भारतीय भाषाओं के फाण्ट सम्बन्धी समस्याएँ बनी हुई हैं। भारतीय भाषाओं के फाण्ट कम्प्यूटर पर सहज रूप से नहीं उपलब्ध हैं। समस्या यह है कि उत्पादन के स्तर पर भारतीय भाषाओं के फाण्ट्स कम्प्यूटर पर नहीं डाले जाते। इस्तेमाल करने वाले लोग अपनी-अपनी जरूरतों के अनुसार अपनी-अपनी भाषाओं के फाण्ट्स डाल लेते हैं। बाजार में सैकड़ों फॉन्ट्स उपलब्ध हैं जिन्हें खरीदा भी जाता है, मुफ्त डाउनलोड भी किया जा सकता है। अनेक संस्थानों ने अपने लिए विशेष फॉन्ट्स विकसित भी कर लिए हैं। यहां तक तो ठीक है, लेकिन जब भारतीय भाषाओं में सूचनाओं के आदान-प्रदान की कोशिश की जाती है, तो असफलता ही हाथ लगती है। इस असफलता के बाद हमें सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए अंग्रेजी पर ही निर्भर होना पड़ता है। सवाल यहां यह है कि जब हम तकनीकी रूप से सक्षम हैं तो भारतीय भाषाओं के फाण्ट सम्बन्धी समस्या से सीधे तौर क्यों नहीं निपटा जा सकता?
यह समस्याएँ तो हुई तकनीकों के उत्पादन के स्तर पर। लेकिन व्यावहारिक स्तर पर भाषा की समस्याएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। भाषा पर दिनोंदिन हमला बढ़ता जा रहा है। एक तरफ हम अपनी भाषा को आगे ले जाने की बात करते हैं तो दूसरी तरफ उन्हें साम्राज्यवादी भाषा अंग्रेजी द्वारा पुन: हथिया लिया जाता है और यह काम हमारे ही जनमाध्यम बड़ी तेजी से कर रहे हैं। सूचना क्रान्ति के आने से जनमाध्यमों का तेजी से विकास हुआ। चाहे वह इलेक्ट्रानिक माध्यम हों या मुद्रित माध्यम भाषा पर हमला सभी जगह जारी है। उदाहरण के तौर पर आज की फिल्मों, विज्ञापनों और पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी के रूप में हिन्दी गायब है। किसी बात को सीधे तौर हिन्दी में न कहकर उसमें अंग्रेजी का मिश्रण करके कहा जा रहा है। यदि हम ध्यान दें तो हम अंग्रेजी चैनलों, पत्र-पत्रिकाओं, फिल्मों में ऐसा नहीं पाएँगे। दरअसल यह साम्राज्यवादी मानसिकता के तहत भाषा पर किया गया हमला है। यहां पुन: वही सवाल उठता है कि क्या आखिर ऐसा क्या है? जो हमें अपने लोगों के लिए अपनी भाषा में कुछ कहने या सुनने नहीं देता। इस तथाकथित सूचना क्रान्ति (तथाकथित यहां इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं नहीं मानता कि यह वास्तव में कोई क्रान्ति है) की आड़ में किए जा रहे भाषाई हमले के प्रति हमें जागरूक होना होगा ताकि हमारी अपनी भाषा का अस्तित्व बरकरार रहे।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के जनसंचार विभाग में कनिष्ठ शोध अध्येता हैं।)

शोध और शिक्षण की सीमाएँ

डॉ. कृपाशंकर चौबे

पच्चीस वर्षों तक मैंने सक्रिय पत्रकारिता की और पत्रकारिता बगैर संवाद के चल ही नहीं सकती। मीडिया शिक्षण में भी मेरी रुचि इसलिए जगी क्योंकि यह भी विद्यार्थियों से जीवंत संवाद का अवसर देती है। पिछले वर्ष जुलाई में वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में रीडर बनकर आया तो यह आकांक्षा स्वाभाविक थी कि अपने विद्यार्थियों में भी जीवंत संवाद का कौशल विकसित कर सकूं। मेरा मानना है कि किसी भी तरह की रचनात्मकता के लिए, विकास के लिए, यहां तक कि किसी समुदाय को आगे ले जाने के लिए संवाद जरूरी है। मैं मीडिया में शिक्षा की पारंपरिक पद्धतियों के साथ संचार के उत्तरोत्तर आधुनिक साधनों के समन्वय का भी हिमायती हूं क्योंकि सिर्फ पारंपरिक शिक्षा पर टिके रहने से कई चीजें छूट जाएँगी और वह शिक्षा भी एकांगी होकर रह जाएगी इसलिए अपने विद्यार्थियों में द्रुत गति से विकसित हो रही टेक्नालाजी और ज्ञान प्राप्ति के नए-नए साधनों के प्रति दिलचस्पी बनाए रखना चाहता हूं ताकि जनसंचार के क्षेत्र में हो रहे नित नए आविष्कारों के प्रति वे उदासीन न हों क्योंकि वैसा होने पर वे पिछड़ जाएँगे। मीडिया शिक्षण का काम भविष्य की ओर देखने की दृष्ट विकसित करना है। एक उदाहरण दूं। मीडिया के कितने छात्रों को यह पता है कि गूगल के नए स्मार्ट फोन से भविष्य में संचार कितना सुगम होगा, उसके क्या लाभ होंगे? सनद रहे कि इंटरनेट सर्च प्रोवाइडर गूगल ने अभी-अभी अमेरिका में जो स्मार्टफोन लांच किया है, उसमें अनलिमिटेड टेलीफोन काल्स की सुविधा है। यह एप्पल के आईफोन से दोगुना तेज है। थ्री जी सुविधा के साथ इस फोन में टच स्क्रीन डिस्प्ले और गूगल एँट्राइड साफ्टवेयर का नया वर्जन शामिल किया गया है। इसकी सबसे बड़ी खूबी गूगल वाइस सेवा है। इसे मोबाइल नेटवर्क से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। उसके बाद तो लोग मुफ्त में वीडियो कालिंग का लाभ भी उठा सकेंगे। गूगल की कोशिश सर्विस प्रोवाइडर को बदले बिना ही यूजर को उसके मौजूदा सिम पर ही फोन सेवा उपलब्ध कराना है।
वस्तुतः मैं एक अग्रगामी, गतिशील और उत्तरोत्तर आधुनिक मीडिया शिक्षा पद्धति का पक्षधर हूं। मैं अपने विद्यार्थियों को बंधनों से और आत्ममुग्धता से मुक्त रखना चाहता हूं ताकि वे खुले मन से और खुले ढंग से चीजों को देख सकें और उसका उन्मुक्त होकर विश्लेषण कर सकें। लेकिन यह तो रही मेरी आकांक्षा की बात। मीडिया शिक्षण में आने के बाद मुझे जिन व्यावहारिक दिक्कतों का सामना करना पड़ा, उससे मैं बेतरह विचलित हूं। मीडिया में जो विद्यार्थी उच्च शिक्षा ग्रहण करने आ रहे हैं, उनकी अशुद्ध भाषा व व्याकरण की गलतियां विचलित करनेवाली हैं। दिलचस्प यह है कि जनसंचार में स्नातकोत्तर के इन विद्यार्थियों और शोधार्थियों ने बाकायदे प्रवेश परीक्षा देकर दाखिला लिया है। वे हिन्दी प्रदेशों के नामी विश्वविद्यालयों से स्नातक या स्नातकोत्तर करके आए हैं। पर उनमें भाषा का संस्कार-अनुशासन नहीं है। हिन्दी माध्यम से जनसंचार में शोध कर रहे अधिकतर विद्यार्थियों को ‘कि’ और ‘की’ में अंतर नहीं पता। ‘है’ और ‘हैं’ का अंतर नहीं पता। शब्द के बीच में ‘ध’ व ‘भ’ लिखना नहीं आता। ‘में’ नहीं लिखना आता। ‘उन्होंने’ और ‘होंगे’ नहीं लिखना आता। ‘कार्यवाही’ व ‘कार्रवाई’ का अंतर या ‘किश्त’ व ‘किस्त’ का अंतर नहीं पता। वे अक्सर उद्धरण चिह्नों को बंद करते समय उन्हें विराम चिह्नों से पहले लगा देते हैं। विभक्तियां सर्वनाम के साथ नहीं लिखते। क्रिया पद ‘कर’ मूल क्रिया से मिलाकर नहीं लिखते। आज के अधिकतर मीडिया विद्यार्थियों या शोधार्थियों से आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे दो पैरा भी शुद्ध लिखकर आपको दिखाएँगे। उन दो पैराग्राफों में ही व्याकरण की गलतियों की भरमार मिलेगी। ‘य’ के वैकल्पिक रूपों और अनुस्वार, पंचमाक्षर और चंद्रबिंदु को लेकर अराजकता मिलेगी। अक्सर देहात, अनेक, जमीन, समय, वारदात जैसे शब्दों के बहुवचन रूप मिलेंगे। वर्तनी को लेकर तो सर्वाधिक अराजकता मिलेगी। एक ही पृष्ठ में एक ही शब्द नाना ढंग से लिखा मिलेगा। मजे की बात यह है कि बहुत कम मीडिया शिक्षक हैं कि जिनकी इन गलतियों को सुधारने में रुचि है। उन्हें किसी तरह कोर्स पूरा करने की हड़बड़ी रहती है। वैसे ऐसे शिक्षकों की संख्या बहुत कम है जिन्हें शब्दावली, वाक्य विन्यास और व्याकरण संबंधी ज्ञान प्राप्त हो। सवाल है कि मीडिया संस्थानों से एम.ए., एम. फिल. और पीएच.डी. की उपाधि लेने के बाद जब ये विद्यार्थी या शोधार्थी पत्रकारिता या मीडिया- शिक्षण करने जाएँगे तो किस तरह की हिन्दी अपने पाठकों, श्रोताओं, दर्शकों या छात्रों को देंगे? ध्यान देने योग्य है कि पिछले कुछ वर्षों में जब से मीडिया शिक्षण संस्थानों की बाढ़ आई और उनसे निकलकर जो मीडिया घरानों से जुड़े, तभी से प्रिंट या इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता में भाषा के प्रति जागरुकता में क्रमशः ज्यादा गिरावट देखी जाने लगी और व्याकरणिक शिथिलताएँ बढ़ने लगीं।
पहले ऐसा नहीं था। पहले भाषा को लेकर पत्रकार बहुत सजग रहते थे। तथ्य है कि हिन्दी गद्य के निर्माण का अधिकांश श्रेय प्रिंट मीडिया के उन पुराने पत्रकारों को है जिन्होंने अपने पत्रों के जरिए हिन्दी गद्य को रोपा-सींचा और परिनिष्ठित रूप दिया। पहले भाषा के प्रति सजगता इतनी थी कि छोटी सी त्रुटि पर भी विवाद खड़ा हो जाता था। 1905 में ‘अनस्थिरता’ शब्द को लेकर बाल मुकुंद गुप्त और महावीर प्रसाद द्विवेदी के बीच जो विवाद हुआ था, उससे भाषा व व्याकरण को एक नई व्यवस्था मिली थी। पहले के पत्रकार नए शब्द गढ़ते थे। ‘श्री’, ‘श्रीमती’, ‘राष्ट्रपति’, ‘मुद्रास्फीति’ बाबूराव विष्णु पराड़कर के दिए शब्द हैं। भाषा के प्रति तब यह जज्बा पत्रकारों की सामान्य खासियत हुआ करती थी और इसी जज्बे के कारण पुराने पत्रकार हिन्दी भाषा (और साहित्य) की समृद्ध विरासत खड़ी कर पाए थे। भारतेंदु मंडल के लेखकों से लेकर अज्ञेय, धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय तक एक लंबी परंपरा रही जिसमें प्रिंट मीडिया पाठकों को भाषाई संस्कार देती थी, उनकी रुचि का परिष्कार करती थी और साथ ही साथ लोक शिक्षण का काम करती थी। लेकिन पिछले ढाई दशकों में सारा परिदृश्य बदल गया। आज प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया में भाषा के सवाल को गौण कर दिया गया है। इन माध्यमों में भाषा व व्याकरण की गलतियां न मिलें तो वह अचरज की बात होगी। क्या हिन्दी की प्रिंट व इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता की भाषा हिन्दी की रह भी गई है? यह अहम सवाल भी हमारे सामने खड़ा है। आज हिन्दी की समूची प्रिंट व इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता घुमा-फिराकर दस हजार शब्दों का इस्तेमाल कर रही है। नब्बे हजार शब्द अप्रासंगिक बना दिए गए हैं। विज्ञप्त तथ्य है कि मीडिया पाठकों-दर्शकों-श्रोताओं के विचारों को ही नहीं, उनकी भाषा को भी गहरे प्रभावित करता रहा है। मीडिया, भाषा-शिक्षण का दावा नहीं करता पर पाठक उस माध्यम से भाषा व शब्दों के प्रयोग सीखते रहे हैं। पर आज तो मीडिया में जैसे अशुद्ध भाषा लिखने-बोलने की सनकी स्पर्धा चल रही है। हिंग्लिश को स्वीकृति दे डाली गई है। इसी माहौल में हिन्दी पत्रकारिता की पढ़ाई हो रही है जहां हिन्दी के सिर अशुद्धियां लादी जा रही हैं। यह भार वह कब तक सहेगी? बोझ ढोते-ढोते वह अचल नहीं हो जाएगी?
यदि हिन्दी पत्रकारिता के शिक्षण संस्थानों के विद्यार्थी व शिक्षक और हिन्दी की प्रिंट व इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता के पत्रकार अपनी भाषा के प्रति उदासीन रहेंगे तो यह कैसे माना जाए कि अपने भाषा-भाषियों के हित की चिंता उन्हें होगी क्योंकि कोई भाषा और उसे बोलनेवालों के हित अलगाकर नहीं देखे जा सकते।
समस्या सिर्फ भाषा को लेकर नहीं है, मीडिया शोधों की स्थिति भी उतनी ही सोचनीय है। मीडिया पर इधर जो शोध प्रबंध प्रकाशित हुए हैं, उनमें कुछ अपवादों को छोड़कर गंभीर अध्ययन और प्रौढ़ विवेचन का सर्वथा अभाव है। अधिकतर शोध प्रबंधों में मीडिया-अनुसंधान की कई दिशाएँ अछूती रह गई हैं। मीडिया शोधार्थी से जिस अनुशीलन और परिश्रम की अपेक्षा की जाती है, उसकी बेतरह कमी दिखाई पड़ती है। कहने की जरूरत नहीं कि प्राध्यापक बनने की अर्हता अर्जित करने के लिए यानी सिर्फ अकादमिक डिग्रियां लेने के लिए हो रहे ये शोध रस्म अदायगीभर हैं। इन अधिकतर शोध प्रबंधों में संबद्ध विषय को लेकर न कोई दृष्टि है न विषय पर नया प्रकाश पड़ता है न कोई नया रास्ता खुलता दिखता है। शोधार्थी के खास मत-अभिमत का भी पता नहीं चलता।
हिंदी में मीडिया पर गंभीर शोध की प्रवृत्ति नहीं होने से पूर्व में प्रकाशित पुस्तकों, संदर्भ ग्रंथों अथवा शोध प्रबंधों में दिए गए गलत तथ्य भी अविकल उद्धृत किए जाते रहे हैं और उन तथ्यों की सत्यता जांचने का जहमत प्रायः नहीं उठाया जाता और ऐसा बहुत पहले से-छह दशकों से होता चला आ रहा है।
हिंदी की प्रिंट मीडिया पर पहला शोध छह दशक से भी पहले राम रतन भटनागर ने किया था। ‘राइज ऐंड ग्रोथ आव हिंदी जर्नलिज्म ’ शीर्षक अंग्रेजी में लिखे-छपे उनके प्रबंध पर प्रयाग विश्वविद्यालय से उन्हें डाक्टरेट की उपाधि मिली थी। डा। भटनागर ने 1826 से 1945 तक की हिंदी की प्रिंट मीडिया को अपने शोध का उपजीव्य बनाया था। उनका शोध प्रबंध 1947 में प्रकाशित हुआ। उस प्रंबध की सीमा यह थी कि उसमें गलत तथ्यों की भरमार थी। उसमें पुराने पत्रों के प्रकाशन काल तक की गलत सूचनाएँ थीं। उदाहरण के लिए ‘उचित वक्ता’ का प्रकाशन 7 अगस्त 1880 को शुरू हुआ था पर भटनागर जी ने उसका प्रकाशन 1878 बताया था। इसी भांति ‘भारत मित्र ’ का प्रकाशन 17 मई 1878 को शुरू हुआ था जबकि भटनागर जी ने उसे 1877 बताया था। ‘सारसुधानधि’ का प्रकाशन 13 जनवरी 1879 को हुआ था जबकि भटनागर जी ने उसे 1878 बताया था। उन्होंने ‘नृसिंह’ पत्र का नाम बिगाड़कर ‘नरसिंह’ कर दिया था। यह पत्र 1907 में निकला था जबकि भटनागर जी ने उसका प्रकाशन काल 1909 बताया था। विडंबना यह है कि भटनागर जी के शोध प्रबंध की उक्त गलत सूचनाओं को उनके परवर्ती काल के शोधार्थी दो दशकों तक उद्धृत करते रहे। वह सिलसिला 1968 में डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र का शोध प्रबंध छपने के बाद ही थमा। मिश्र जी के प्रबंध का मूल नाम था-‘कोलकत्ता की हिंदी पत्रकारिताः उद्भव और विकास।‘ लेकिन वह छपा ‘हिंदी पत्रकारिताः जातीय चेतना और खड़ी बोली की निर्माण-भूमि’ शीर्षक से। डॉ. मिश्र ने अपने शोध में भटनागर जी के प्रबंध में दर्ज गलत सूचनाओं को सप्रमाण काटा। उसके बाद, देर से ही सही, डॉ. भटनागर के शोध प्रबंध की कमियों को दूर करते हुए उसका संशोधित संस्करण 2003 में विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी से छापा गया। वैसे अप्रामाणिक तथ्यों के लिए सिर्फ भटनागर जी को दोष देना उचित नहीं है। यह गलती दूसरे नामी अध्येताओं से भी हुई है। हिंदी पत्रकारिता का पहला इतिहास (शोध प्रबंध नहीं) राधाकृष्ण दास ने लिखा था। ‘हिंदी भाषा के सामयिक पत्रों का इतिहास’ शीर्षक उनकी पुस्तक 1894 में नागरी प्रचारिणी सभा से छपी थी। पर उसमें भी कई गलत सूचनाएँ थीं। बाबू राधाकृष्ण दास ने उस किताब में ‘बनारस अखबार’ को हिंदी का पहला पत्र बताया था। इसी किताब को आधार मानते हुए बाल मुकुंद गुप्त ने भी ‘बनारस अखबार’ को ही हिंदी का पहला अखबार लिखा। प्रो. कल्याणमल लोढ़ा और शिवनारायण खन्ना ने ‘दिग्दर्शन’ को हिंदी का पहला पत्र लिखा किंतु ब्रजेंद्रनाथ बनर्जी ने इस तथ्य को सप्रमाण प्रस्तुत किया कि 30 मई 1826 को प्रकाशित ‘उदंत मार्तंड’ हिंदी का पहला पत्र है। बहरहाल, अचरज की बात है कि तथ्य संबंधी त्रुटि आचार्य रामचंद्र शुक्ल से भी हुई। उन्होंने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में ‘उचित वक्ता’ का प्रकाशन 1878 बता डाला है। दरअसल राधाकृष्ण दास की किताब को आधार बनाने से यह चूक शुक्ल जी से हुई।
तथ्यों की प्रामाणिकता की दृष्टि से डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र का शोध प्रबंध एक मानक है और विशिष्ट उपलब्धि भी। मिश्र जी ने साबित किया कि शोध एक श्रम साध्य और गंभीर विद्या कर्म है। लेकिन त्रासद स्थिति है कि इधर के कई मीडिया शोधार्थियों ने मिश्र जी के शोध प्रबंध की सामग्री हड़प लेने में कोई संकोच नहीं किया है। एक शोधार्थी ने तो मिश्र जी के प्रबंध की पूरी सामग्री तो ली ही, उस लेखिका ने आभार का पन्ना भी जस का तस छपा लिया है। अभी-अभी मीडिया के एक अन्य शोध प्रबंध को हूबहू किसी दूसरे शोधार्थी द्वारा अपने नाम से प्रस्तुत करने का मामला प्रकाश में आया है। यह मामला इसलिए पकड़ में आया क्योंकि नकल किया गया प्रबंध जांचने के लिए उसी विशेषज्ञ के पास गया, जिसने पहले प्रबंध को जांचा था।
ऐसे प्रतिकूल परिवेश में अहम सवाल है कि मीडिया शोध का मान कैसे उन्नत होगा? कहना न होगा कि सबसे बड़ी जरूरत शोधार्थियों में शोध-वृत्ति जागृत करना और उन्हें शोध की सारस्वत महत्ता का बोध कराना है। शोध निर्देशक की यह न्यूनतम जिम्मेदारी है कि वह शोधार्थी में शोध का अपेक्षित दृष्टिकोण विकसित करे, शोध के विषय के चयन के पहले उसकी सार्थकता पर गंभीरता से गौर करे और इस पर सतर्क नजर रखे कि शोधार्थी में विषय को लेकर अपेक्षित रुचि, निरंतरता और सक्रियता है कि नहीं क्योंकि उसके बिना वह मीडिया के सम्यक अनुशीलन में सक्षम नहीं होगा। शोध निर्देशक में शोध विषयक नित्य की क्रमिक प्रगति से अवगत होते रहने की उत्सुकता भी होनी चाहिए। विडंबना यह है कि इस उत्सुकता का अभाव दिखता है।


लेखक परिचय- समकालीन पत्रकारिता के साथ ही आधुनिक गद्य लेखन में एक सुपरिचित नाम। मीडिया शिक्षण में आने के पहले ‘हिन्दुस्तान’ में विशेष संवाददाता थे। उसके पूर्व ‘सहारा समय’ में मुख्य संवाददाता रहे। ‘जनसत्ता’ में ग्यारह वर्षों से ज्यादा समय तक उप संपादक रहे। ‘आज’, ‘स्वतंत्र भारत’, ‘सन्मार्ग’ (कोलकाता) और ‘प्रभात खबर’ में भी काम किया।
प्रमुख कृतियां- 1.’चलकर आए शब्द’ (राजकमल प्रकाशन), 2. ‘रंग, स्वर और शब्द’ (वाणी प्रकाशन), 3. ‘संवाद चलता रहे’ (वाणी), 4. ‘पत्रकारिता के उत्तर आधुनिक चरण’ (वाणी), 5. ‘समाज, संस्कृति और समय’ (प्रकाशन संस्थान), 6. ‘नजरबंद तसलीमा’ (शिल्पायन), 7. ‘महाअरण्य की मां’, 8. ‘मृणाल सेन का छायालोक’, 9. ‘करुणामूर्ति मदर टेरेसा’ (तीनों आधार प्रकाशन) और 10. ‘पानी रे पानी’ (आनंद प्रकाशन)।
(संप्रति महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं
)

हिन्दी में प्रत्यय विचार (लिंग निर्धारण के विषेश सन्दर्भ में)

डॉ. अनिल कुमार पाण्डेय

हिन्दी में प्रत्यय (Suffix) उस शब्दांश को कहते हैं; जो शब्द के अन्त में जुड़कर शब्दों के अर्थ एवं रूप को बदलने की क्षमता रखता है। प्रत्यय का कोई स्वतंत्र अर्थ नहीं होता परंतु शब्द के साथ जुड़कर कुछ न कुछ अर्थ अवश्य देता है। इसका प्रयोग स्वतंत्र रूप से नहीं किया जा सकता वरन् ये शब्दों के साथ जुड़कर ही प्रयुक्त होते हैं। शब्दों के साथ प्रत्यय के जुड़ने पर मूल शब्दों में कुछ रूपस्वनिमिक परिवर्तन भी होते हैं।
अंग्रेजी में Affixes की तीन अवस्था होती है-
1. Preffix (पूर्व प्रत्यय)
2. Infix (मध्य प्रत्यय)
3. Suffix (अंत्य प्रत्यय)
परन्तु हिन्दी में पूर्व प्रत्यय एवं अंत्य प्रत्यय की ही व्यवस्था है, मध्य प्रत्यय की नहीं। पूर्व प्रत्यय को उपसर्ग कहा गया है। प्रत्यय शब्द केवल ‘अन्त्य’ प्रत्यय के लिए ही प्रयुक्त होता है। प्रस्तुत आलेख में ‘पर’ अथवा ‘अन्त्य’ प्रत्यय के लिए ही प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। संस्कृत में दो प्रकार के प्रत्यय होते हैं-
1. सुबन्त
2. तिङन्त
सुबन्त अर्थात् सुप् प्रत्यय सभी नामपद अर्थात् संज्ञा अथवा विशेषण के साथ जुड़ते हैं। यथा- रामः, बालकौ, बालकस्य, सुन्दरः, मनोहरं आदि।
तिङन्त अर्थात् तिङ् प्रत्यय आख्यात अर्थात् क्रिया के साथ जुड़ते हैं। यथा- गच्छति, गमिष्यन्ति, अगच्छत्, गच्छेयूः आदि।
संस्कृत में सुबन्त एवं तिङन्त विभक्ति के द्योतक है। जबकि तद्धित एवं कृदंत को प्रत्यय कहा गया है। हिन्दी में प्रत्यय के दो प्रकार माने गए हैं- तद्धित एवं कृदंत। तद्धित प्रत्यय संज्ञा एवं विशेषण के साथ जुड़ते हैं जबकि कृदंत अर्थात् कृत् प्रत्यय क्रिया के साथ।
तद्धित प्रत्यय -
- ता स्वतंत्रता, ममता, मानवता।
- पन बचपन, पागलपन, अंधेरापन।
- इमा लालिमा, कालिमा।
- त्व अमरत्व, ममत्व, कृतित्व, व्यक्तित्व।

कृदंत प्रत्यय -
-अक - पाठक, लेखक, दर्शक, भक्षक।
- आई - पढ़ाई, लड़ाई, सुनाई, चढ़ाई, कटाई, बुनाई।
- आवट - लिखावट, सजावट, बुनावट, मिलावट। हिन्दी में किसी शब्द को एक वचन से बहुवचन बनाने पर जो परिवर्तन होता है वह प्रत्यय के स्तर पर ही होता है, ऐसे प्रत्यय को भाषावैज्ञानिक दृष्टि से बद्धरूपिम; (Bound Morphome) की संज्ञा दी गई है, जैसे-
एकवचन बहुवचन प्रत्यय
1. लड़का लड़के -ए
2. कुर्सी कुर्सियाँ -याँ
3. मेज मेजें -एँ
4. समाज समाज -शून्य

उपर्युक्त उदाहरणों में -ए , -या -एँ तथा शून्य बहुवचन प्रत्यय जुड़े हैं। शून्य प्रत्यय को शून्य विभक्ति कहा जाता है। बहुवचन प्रत्यय के भी दो रूप मिलते हैं। पहला रूप वह प्रत्यय जो शब्दों के बहुवचन रूप बनने पर सीधे-सीधे रूपों में दिखे। जैसा कि उपर्युक्त उदाहरणों में दिया गया है। दूसरा रूप वह जो तिर्यक रूप में दिखे, जैसे- लड़कों, कुर्सियों, मेजों, समाजों, मनुष्यों, जानवरों आदि में ‘-ओं’ के रूप में। दोनों बहुवचन प्रत्ययों में व्याकरणिक दृष्टि से वाक्यगत जो अंतर है वह यह कि सीधे रूप के साथ कोई परसर्ग (विभक्ति चिह्न) नहीं जुड़ता। हाँ, आकारान्त शब्दों के बहुवचन रूप बनने पर उसमें ‘-ए’ प्रत्यय जुड़ता है परंतु परसर्ग (विभक्ति चिह्न) के जुड़ने पर वह बहुवचन न होकर एकवचन रूप हो जाता है।

उदाहरण के लिए-
कपड़े फट गए।
कपड़े पर दाग है। (एकवचन रूप)
लड़के खेल रहे हैं।
लड़के ने खेला है। (एकवचन रूप)
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि बहुवचन प्रत्यय के लगने पर कोई परसर्ग नहीं लगेगा। आकारांत शब्दों में बहुवचन प्रत्यय ‘-ए’ लगने पर उसके साथ परसर्ग तो लग सकता है परंतु परसर्ग लगने पर बहुवचन न होकर एकवचन रूप हो जाता है। सभी आकारांत शब्दों में बहुवचन प्रत्यय (-ए) नहीं लगता। यह प्रत्यय केवल जातिवाचक, पुल्लिंग संज्ञाओं में ही लगता है। व्यक्तिवाचक, संबंधवाचक एवं जातिवाचक स्त्रीलिंग संज्ञाओं में नहीं लगता।

बहुवचन का तिर्यक रूप
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि बहुवचन प्रत्यय का तिर्यक रूप ‘-ओं’ है। किसी भी शब्द में ‘-ओं’ प्रत्यय लग सकता है। -ओं प्रत्यय से बनने वाले सभी शब्द बहुवचन होते हैं परंतु इनका वाक्यगत प्रयोग बिना परसर्ग के नहीं हो सकता है। दूसरे शब्दों में तिर्यक बहुवचन प्रत्यय(-ओं) का प्रयोग परसर्ग सहित ही होता है,
जैसे-
लड़कों को बुलाओ।
लड़कों बुलाओ।
कुर्सियों पर धूल जमा है।
*कुर्सियों धूल जमा है।
अलग-अलग मेजों को लगाओ।
*अलग-अलग मेजों लगाओ। (*यह चिह्न अस्वाभाविक प्रयोग का वाचक है)
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि बहुवचन शब्दों का तिर्यक रूप प्रत्यय -ओं का प्रयोग परसर्ग सहित ही प्रयुक्त होगा, परसर्ग के बिना नहीं।
लिंग (Gender) : स्वरूप एवं निर्धारण- किसी भी भाषा में लिंग वह है, जिसके द्वारा मूर्तवस्तु अथवा अमूर्त भावनात्मक शब्दों के बारे में यह जाना जाता है कि वह पुरुष का बोध कराता है स्त्री का अथवा दोनों का। लिंग का अध्ययन व्याकरणिक कोटियों (Grammetical Categories) के अंतर्गत किया जाता है।
अधिकांश भाषाओं में तीन लिंग होते हैं- पुल्लिंग, स्त्रीलिंग एवं नपुंसक लिंग। परंतु हिन्दी में दो ही लिंग हैं- पुल्लिंग और स्त्रीलिंग। हिन्दी भाषा में लिंग निर्धारण के संदर्भ में अभी तक कोई समुचित सिद्धान्त अथवा व्यवस्था नहीं दी गई है, जिसके आधार पर लिंग का निर्धारण आसानी से किया जा सके। हिन्दीतर भाषियों की हिन्दी सीखते समय सबसे बड़ी समस्या यही है कि किन शब्दों को पुल्लिंग माने, किन शब्दों को स्त्रीलिंग और मानने का आधार क्या है?
इस संदर्भ में प्रसिद्ध वैयाकरणों ने भी अपनी विवशता प्रकट की है। हिन्दी के मूर्धन्य वैयाकरण कामता प्रसाद गुरू के शब्दों में निम्नलिखित कथन उद्धृत है-
‘‘हिन्दी में अप्राणीवाचक शब्दों का लिंग जानना विशेष कठिन है; क्योंकि यह बात अधिकांश व्यवहार के अधीन है। अर्थ और रूप दोनों ही साधनों से इन शब्दों का लिंग जानने में कठिनाई होती है’’। -कामता प्रसाद गुरू- हिन्दी व्याकरण- पृ.151. 1920
हिन्दी में लिंग का निर्धारण कुछ हद तक प्रत्ययों के आधार पर किया जा सकता है। जब किसी शब्द में कोई प्रत्यय जुड़ता है तो मूल शब्द संज्ञा, विशेषण अथवा कृदंत होते हैं। यदि संज्ञा है तो या तो स्त्रीलिंग होगा अथवा पुल्लिंग। विशेषण शब्दों का अपना कोई लिंग नहीं होता। जिस संज्ञा शब्द की विशेषता बताते हैं उन्हीं संज्ञा के साथ विशेषण की अन्विति होती है।
वह प्रत्यय जो किसी शब्द के साथ जुड़कर उस शब्द को पुल्लिंग बनाता है, उसे पुरुषवाची तथा वह प्रत्यय जो किसी शब्द के साथ जुड़कर स्त्रीलिंग बनाता है, उसे स्त्रीवाची प्रत्यय कह सकते हैं। इस प्रकार प्रयोग अथवा प्रकार्य की दृष्टि से दो प्रकार के प्रत्यय हो सकते हैं- 1. स्त्रीवाची प्रत्यय और 2. पुरुषवाची प्रत्यय।


स्त्रीवाची प्रत्यय
जिस शब्द के साथ स्त्रीवाची प्रत्यय जुड़ते हैं वे सभी शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। नीचे कुछ स्त्रीवाची प्रत्ययों एवं उनसे बनने वाले शब्दों के उदाहरण दिए जा रहें हैं-
‘-ता’ स्त्रीवाची प्रत्यय - इस प्रत्यय के शब्द में जुड़ने से जो शब्द बनते हैं, वे सभी भाववाचक स्त्रीलिंग संज्ञा शब्द बनते हैं-
मूलशब्द प्रत्यय योग भाववाचक संज्ञा
मानव -ता मानवता
स्वतंत्र -ता स्वतंत्रता
पतित -ता पतिता
विवाह -ता विवाहिता
महत् -ता महत्ता
दीर्घ -ता दीर्घता
लघु -ता लघुता
दुष्ट -ता दुष्टता
प्रभु -ता प्रभुता
आवश्यक -ता आवश्यकता
नवीन -ता नवीनता आदि।
नोटः- -ता प्रत्यय जिन शब्दों में लगता है, वे शब्द बहुधा विशेषण पद होते हैं। -ता प्रत्यय लगने के पश्चात् वे सभी (विशेषण अथवा संज्ञा) शब्द भाववाचक संज्ञा हो जाते हैं। प्रत्ययों का किसी शब्द में जुड़ना भी किसी नियम के अंतर्गत होता है, उसकी एक व्यवस्था होती है। एक शब्द में दो-दो विशेषण प्रत्यय अथवा एक ही शब्द में दो-दो भाववाचक प्रत्यय नहीं लग सकते। हाँ, विशेषण प्रत्यय के साथ भाववाचक प्रत्यय अथवा भाववाचक प्रत्यय के साथ विशेषण प्रत्यय जुड़ सकते हैं, जैसे- आत्म+ ईय(विशेषण) + ता(भाववाचक) - आत्मीयता। ’ मम+ ता (भाववाचक) +त्व (भाववाचक) - नहीं जुड़ सकते। संज्ञा शब्द में विशेषण प्रत्यय के साथ संज्ञा प्रत्यय जुड़ सकता है। जहाँ विशेषण शब्द में विशेषण प्रत्यय नहीं जुड़ता वहीं संज्ञा शब्द में संज्ञा प्रत्यय जुड़ सकता है।,
उपर्युक्त सभी -ता प्रत्यय से युक्त भाववाचक संज्ञा शब्द स्त्रीलिंग हैं। -ता प्रत्यय से कुछ समूह वाचक अथवा अन्य शब्द भी निर्मित होते हैं परंतु वे शब्द भी स्त्रीलिंग ही होते हैं- जन+ता = जनता, कवि+ता= कविता आदि। इनकी संख्या सीमित है।
(-इमा) स्त्रीवाची प्रत्यय-
मूल शब्द प्रत्यय योग भाववाचक शब्द
लाल -इमा लालिमा
काला -इमा कालिमा
रक्त -इमा रक्तिमा
गुरू -इमा गरिमा
लघु -इमा लघिमा आदि।
-इमा प्रत्यय से युक्त सभी शब्द भाववाचक स्त्रीलिंग होते हैं।
-आवट स्त्रीवाची प्रत्यय-
मूल शब्द प्रत्यय योग भाववाचक शब्द
लिख -आवट लिखावट
रूक -आवट रुकावट
मेल -आवट मिलावट आदि।
उपर्युक्त सभी शब्द स्त्रीलिंग हैं। -आवट प्रत्यय कृदंत प्रत्यय है। उससे बनने वाले सभी शब्द भाववाचक संज्ञा होते हैं।
-आहट स्त्रीवाची प्रत्यय-
कड़ूआ -आहट कड़ुवाहट
चिकना -आहट चिकनाहट
गरमा -आहट गरमाहट
मुस्करा -आहट मुस्कराहट आदि।
उपर्युक्त सभी भाववाचक संज्ञा शब्द स्त्रीलिंग हैं। -आहट प्रत्यय कृदंत प्रत्यय है।
-ती स्त्रीवाची प्रत्यय-
यह प्रत्यय तद्धित और कृदंत दोनों रूपों में प्रयुक्त हो सकता है। इससे बनने वाले सभी शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। (सजीव शब्दों को छोड़कर)
पा -ती पावती
चढ़ -ती चढ़ती
गिन -ती गिनती
भर -ती भरती
मस्(त) -ती मस्ती आदि।
-इ/-ति प्रत्यय-
-इ, अथवा -ति प्रत्यय से युक्त शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। प्राणीवाचक शब्दों को छोड़कर। (जैसे- कवि, रवि आदि)।
कृ -ति कृति
प्री -ति प्रीति
शक् -ति शक्ति
स्था -ति स्थिति आदि।
इसी प्रकार भक्ति, कांति, क्रांति, नियुक्ति, जाति, ज्योति, अग्नि, रात्रि, सृष्टि, दृष्टि, हानि, ग्लानि, राशि, शांति, गति आदि सभी इकारांत शब्द स्त्रीलिंग होते हैं।
नोटः- जब दो शब्द जुड़ते हैं तो द्वितीय घटक के आधार पर ही पूरे पद का लिंग निर्धारण होता है-
पुनः + युक्ति = पुनरुक्ति(स्त्री।)
सहन + शक्ति = सहनशक्ति(स्त्री।)
मनस् + स्थिति = मनःस्थिति(स्त्री।)
यदि द्वितीय घटक स्त्रीलिंग है तो संपूर्ण घटक स्त्रीलिंग होगा, इसके विपरीत पुल्लिंग।,
-आई स्त्रीवाची प्रत्यय
सच -आई सचाई
साफ -आई सफाई
ढीठ -आई ढीठाई आदि।
नोटः- -आई प्रत्यय कृदंत और तद्धित दोनों रूपों में प्रयुक्त होता है। -आई प्रत्यय से युक्त सभी भाववाचक शब्द स्त्रीलिंग होते हैं।
-ई स्त्रीवाची प्रत्यय
-ईकारांत सभी भाववाचक शब्द स्त्रीलिंग होते हैं-
सावधान-ई =सावधानी खेत-ई =खेती महाजन-ई= महाजनी
डाक्टर-ई = डाक्टरी गृहस्थ-ई =गृहस्थी दलाल-ई =दलाली आदि।
-औती स्त्रीवाची प्रत्यय
बूढ़ा-औती =बुढ़ौती मन-औती = मनौती
फेर-औती = फिरौती चुन-औती = चुनौती आदि।
उपर्युक्त सभी भाववाचक शब्द स्त्रीलिंग हैं।
-आनी स्त्रीवाची प्रत्यय-
यह प्रत्यय स्त्रीवाचक प्रत्यय है। किसी भी सजीव शब्द के साथ जुड़कर स्त्रीलिंग बनाता है, जैसे-
पंडित-आनी = पंडितानी, मास्टर-आनी = मस्टरानी आदि।
-इन स्त्रीवाची प्रत्यय- यह प्रत्यय भी -आनी प्रत्यय की भांति ही सजीव शब्दों में लगकर स्त्रीलिंग बनाता है, जैसे-
सुनार-इन=सुनारिन, नात/नाती-इन=नातिन, लुहार-इन=लुहारिन आदि।
पुरुषवाची प्रत्यय
पुरुषवाची प्रत्यय उन शब्दांशों को कहते हैं, जो किसी शब्द के साथ जुड़कर पुल्लिंग बनाते हैं। स्त्रीवाची प्रत्ययों की भांति पुरुषवाची प्रत्ययों की भी संख्या अधिक है।
नीचे कुछ पुरुषवाची प्रत्यय के उदहारण दिए गए हैं।
-त्व पुरुषवाची प्रत्यय - यह भाववाचक तद्धित प्रत्यय है, जिन शब्दों के साथ यह प्रत्यय जुड़ता है, वे शब्द भाववाचक पुल्लिंग हो जाते हैं।
मम-त्व = ममत्व बंधु-त्व = बंधुत्व
एक-त्व = एकत्व घन-त्व = घनत्व आदि।
नोटः- उपर्युक्त सभी भाववाचक शब्द स्त्रीलिंग हैं।
-आव प्रत्यय
यह एक कृदंत प्रत्यय है। इससे बनने वाले सभी शब्द पुल्लिंग होते हैं।
लग-आव = लगाव बच-आव = बचाव
गल-आव = गलाव पड़-आव = पड़ाव
झुक-आव = झुकाव छिड़क-आव = छिड़काव आदि।

-आवा पुरुषवाची प्रत्यय
यह प्रत्यय भी -आव प्रत्यय की भांति कृदंत प्रत्यय है। इससे बनने वाले सभी शब्द पुल्लिंग होते हैं।
बुला-आवा = बुलावा
पहिर-आवा = पहिरावा
-पन/पा पुरुषवाची प्रत्यय
ये प्रत्यय भाववाचक तद्धित प्रत्यय हैं। ये किसी भी शब्द के साथ जुड़कर भाववाचक पुल्लिंग शब्द बनाते हैं।
काला -पन = कालापन
बाल -पन = बालपन
लचीला -पन = लचीलापन
बूढ़ा -पा = बुढ़ापा
मोटा -पा = मोटापा
अपना -पन = अपनापन आदि।
-ना पुरुषवाची प्रत्यय
यह एक कृदंत प्रत्यय है। हिन्दी में ‘-ना’ से युक्त सभी क्रियार्थक संज्ञाएँ (Gerund) पुल्लिंग होती हैं। इन्हीं क्रियार्थक संज्ञाओं में से ‘-ना’ प्रत्यय हटा लेने पर जो भाववाचक संज्ञाएँ बनती हैं, वे सभी स्त्रीलिंग होती हैं। उदहारण के लिए- जाँचना, लूटना, महकना, डाँटना आदि सभी क्रियार्थक संज्ञाएँ पुल्लिंग हैं; जबकि जाँच, लूट, महक, डाँट सभी भाववाचक संज्ञाएँ स्त्रीलिंग हैं।
क्रियार्थक संज्ञा से दो प्रकार से प्रत्ययों का लोप संभव है। पहला वह जो क्रियार्थक संज्ञा से सीधे -ना प्रत्यय का लोप कर भाववाचक संज्ञा बनती हैं। दूसरी वह जो क्रियार्थक संज्ञा में से -आ प्रत्यय का लोप कर भाववाचक संज्ञा बनती हैं। क्रियार्थक संज्ञा में से -ना एवं -आ प्रत्यय के लोप से सभी भाववाचक संज्ञा बनती हैं, साथ ही उक्त सभी संज्ञा शब्द स्त्रीलिंग होते हैं।
ऊपर -ना लोप के कुछ उदहारण दिए गए हैं। -आ लोप के उदहारण इस प्रकार हैं-
धड़कना-धड़कन,जलना-जलन, चलना-चलन, लगना-लगन आदि।
इनमें धड़कन, जलन, चलन, लगन, आदि भाववाचक स्त्रीलिंग संज्ञा हैं।
नीचे कुछ क्रियार्थक संज्ञा एवं -ना प्रत्यय लोप के उदाहरण दिए जा रहें हैं। जहाँ क्रियार्थक संज्ञा पुल्लिंग हैं, वहीं -ना लोप भाववाचक संज्ञा स्त्रीलिंग हैं-
-ना युक्त क्रियार्थक संज्ञा लिंग -ना प्रत्यय लोप लिंग
जाँचना पुल्लिंग जाँच स्त्रीलिंग
लूटना - लूट -
पहुँचना - पहुँच -
चमकना - चमक -
नीचे कुछ -ना प्रत्यय युक्त क्रियार्थक संज्ञा एवं -आ प्रत्यय लोप के उदहारण दिए जा रहें हैं। जहाँ -ना प्रत्यय युक्त क्रियार्थक संज्ञा पुल्लिंग हैं, वहीं -आ प्रत्यय लोप भाववाचक संज्ञा स्त्रीलिंग।
-ना युक्त क्रि.सं. लिंग -आ लोप प्रत्यय लिंग
धड़कना पुल्लिंग धड़कन स्त्रीलिंग
जलना - जलन -
चलना - चलन - आदि।
कुछ उर्दू के स्त्रीवाची और पुरुषवाची प्रत्यय
हिंदी में कुछ उर्दू के प्रत्ययों का प्रयोग हो रहा है, जो स्त्रीवाची और पुरुषवाची प्रत्यय के रूप में प्रयुक्त हो रहे हैं। इनके आधार पर भी लिंग निर्धारण संभव है; जैसे-
उर्दू के पुरुषवाची प्रत्यय-
-दान
चायदान, पायदान, इत्रदान, पानदान, कलमदान, कदरदान, रोशनदान, ख़ानदान आदि सभी शब्द पुल्लिंग होते हैं।
-आना
नजराना, घराना, जुर्माना, याराना, मेहनताना, दस्ताना, आदि सभी पुल्लिंग शब्द हैं।
-आत
जवाहरात, कागज़ात, मकानात, ख्यालात आदि पुल्लिंग शब्द हैं।
कुछ उर्दू के स्त्रीवाची प्रत्यय-
-गी - दिवानगी, विरानगी, नाराजगी, ताजगी, पेचीदगी, शर्मिंदगी, रवानगी आदि सभी शब्द स्त्रीलिंग हैं।
-इयत-असलीयत, खासियत, मनहुसियत, मासूमियत, महरूमियत, इंसानियत, अंग्रेजियत, कब्ज़ियत आदि सभी शब्द स्त्रीलिंग हैं।
-इश - बंदिश, रंजिश, ख्वाहिश, आदि शब्द स्त्रीलिंग हैं।
-अत -नजा़कत, खि़लाफ़त, हिफ़ाज़त आदि शब्द स्त्रीलिंग हैं।
-गिरी -नेतागिरी, राजगिरी, गुंडागिरी, बाबूगिरी आदि शब्द स्त्रीलिंग हैं।
उपर्युक्त प्रत्ययों में कुछ महत्त्वपूर्ण स्त्रीवाची एवं पुरुषवाची प्रत्ययों के उदहारण दिए गए हैं। इनमें कुछ कृदंत प्रत्यय हैं, कुछ तद्धित प्रत्यय तथा कुछ कृदंत एवं तद्धित दोनों रूपों में प्रयुक्त प्रत्यय। हिंदी के लिंग निर्धारण की एक दूसरी व्यवस्था दी जा रही है, जिसके अंतर्गत अधिकांष शब्द आ जाते हैं। हिन्दी में बहुवचन प्रत्यय एँ, याँ, ए एवं शून्य होता है। इसमें एँ तथा याँ प्रत्यय स्त्रीवाची प्रत्यय हैं। ये जिस किसी शब्द के साथ जुड़ते हैं, वे सभी शब्द स्त्रीलिंग होते हैं तथा -ए एवं -शून्य प्रत्यय जिस शब्द के साथ जुड़ते हैं, वे सभी पुल्लिंग होते हैं। ‘-ए’ बहुवचन प्रत्यय केवल आकारांत पुल्लिंग, जातिवाचक शब्द के साथ ही जुड़ते हैं। यहाँ शून्य से तात्पर्य है प्रत्यय रहित। जिस शब्द के साथ कोई भी बहुवचन प्रत्यय नहीं जुड़ता वहाँ शून्य प्रत्यय होता है। शून्य प्रत्यय वाले शब्द स्त्रीलिंग एवं कुछ शब्द पुल्लिंग भी हो सकते हैं। परंतु ‘-ए’ बहुवचन प्रत्यय वाले सभी शब्द पुल्लिंग होते हैं। नीचे इनके उदहारण दिए जा रहें हैं-
एकव. शब्द बहुव. शब्द प्रत्यय लिंग
मेज़ मेज़ें -एँ स्त्रीलिंग
कुर्सी कुर्सियाँ -याँ -
लकड़ी लकड़ियाँ -याँ -
भावना भावनाएँ -एँ -
पुस्तक पुस्तकें -एँ -
जहाज जहाजें -एँ -
फोड़ा फोड़े -ए पुल्लिंग
लड़का लड़के -ए -
प्रेम प्रेम शून्य -
प्यार प्यार शून्य -
घोड़ा घोड़े -ए -
कमरा कमरे -ए - आदि।
स प्रकार हिंदी में प्रत्यय पर विचार करते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रत्ययों के आधार पर हिंदी में लिंग निर्धारण संबंधी समस्याओं को दूर किया जा सकता है, जो प्रस्तुत लेख का उद्देश्य है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) के भाषा विद्यापीठ में व्याख्याता हैं।)

भाषा की विभिन्न भूमिकाएँ

प्रो. देवी शंकर द्विवेदी

कुछ बातों में भाषा की तुलना व्यक्ति से की जा सकती है। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति कई भूमिकाएँ निभाता है या कई व्यक्ति एक ही भूमिका निभाते हैं, उसी प्रकार एक भाषा भी कई भूमिकाएँ निभा सकती हैं और कई भाषाएँ एक भूमिका निभा सकती हैं। कोई व्यक्ति पुत्र होता है, पिता होता है, भाई होता है, मित्र होता है, अध्यापक होता है। ये उस व्यक्ति की भूमिकाएँ हैं जिसमें कोई अन्तर्विरोध नहीं है। अनेक व्यक्ति एक साथ पुत्र होते हैं, पिता होते है, भाई होते हैं, मित्र होते हैं, अध्यापक होते हैं, इसमें से प्रत्येक भूमिका अनेक व्यक्ति निभाते हैं और इसमें भी कोई अन्तर्विरोध नहीं है।यदि हम किसी व्यक्ति को बड़ा ,लम्बा या मोटा आदमी कहते हैं तो उसके किसी पक्ष पर प्रकाश डालते हैं।किसी व्यक्ति पर यह तीनों विशेषण लागू होते हैं,किसी पर दो,किसी पर एक और किसी पर एक भी नहीं। पं.जवाहरलाल नेहरू ‘बड़े आदमी थे,किंतु ‘लम्बे’ या ‘मोटे’ आदमी नहीं थे। बादशाह खान ‘बड़े’ और ‘लम्बे’ आदमी थे,किंतु ‘मोटे’ आदमी नहीं थे। पं.गोविंदवल्लभ पन्त ‘बड़े’ आदमी थे,‘लम्बे’ भी थे और ‘मोटे’ भी थे।हम लोगों को राह चलते सैकड़ों लोग ऐसे दिखते हैं जो न तो ‘बड़े’ आदमी होते हैं, न ‘लम्बे’ आदमी ,न ‘मोटे’ आदमी होते हैं। भाषा के संदर्भ में कई शब्दों का प्रयोग होता है; मातृभाषा, राष्ट्रभाषा, राज्यभाषा, संपर्क भाषा इत्यादि। किसी प्रसंग में एक ही भाषा के द्वारा इनमें किसी एक या एकाधिक भूमिकाओं का निर्वाह संभव है। यहां इसका अर्थ स्पष्ट कर देना उचित होगा क्योंकि कई बार इनके प्रयोग में भ्रान्ति पाई जाती हैं।
मातृभाषा
जो भी व्यक्ति कोई भाषा बोलता है, उसकी एक मातृभाषा अवश्य होती है मातृभाषा वह नहीं होती जो व्यक्ति जन्म के समय लेकर आता है क्योंकि उस समय की भाषा वस्तुतः केवल ‘भाषा सीखने की मानवोचित क्षमता’ होती है जो हमारी मानव-जाति में एक जैसी होती है। इसमें एक रूपरेखा-मात्र होती है जिसमें मनुष्य जन्म के बाद ध्वनियों, शब्दों, वाक्यों, अर्थों और इन सबके प्रकारों के रंग भरता है। मातृभाषा वह भी नहीं होती जो किसी की माँ की भाषा थी या माँ के अभाव में माँ की भाँति लालन-पालन करने वाली किसी दूसरी स्त्री की भाषा थी। मातृभाषा का अर्थ यह भी नहीं है कि हम उस भाषा को माँ की भाँति पूज्य मानें। मातृभाषा वह होती है जो हम जन्म के पहले-पहल सीखते हैं। जिस प्रकार किसी भी व्यक्ति की जननी उसके जीवन में सर्वप्रथम आने वाली नारी होती है या यों कहें कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में सर्वप्रथम आने वाली नारी उसकी जननी या माँ होती है, उसी प्रकार किसी भी व्यक्ति के जीवन में आने वाली सर्वप्रथम भाषा उसकी मातृभाषा होती है। जिस प्रकार व्यक्ति सामान्यतः अपनी माता की संदर्भ बिन्दु मानकर शेष सृष्टि को जानना-समझना आरंभ करता है, उसी प्रकार वह नैसर्गिक रूप से अपनी मातृभाषा का संदर्भ-बिन्दु मानकर अन्य भाषाओं को सीखता-समझता है। किसी एक व्यक्ति की दो जननियाँ नहीं होती(क्योंकि सौतेली माँ ‘जननी’ नहीं होती) लेकिन एक व्यक्ति की दो मातृभाषाएँ हो सकती हैं। यदि शिशु शैशव में ही दो भाषाएँ साथ-साथ सीखता है तो वे दोनो उसकी मातृभाषाएँ हैं। ऐसा होने पर शिशु आरंभ में दोनों भाषाओं में मिश्रण भी करता है लेकिन धीरे-धीरे उनका पार्थक्य स्थापित कर लेता है। भाषाएँ सीखने में पहले एक-दो शब्द या एक दो वाक्य किस भाषा के बोले गये हैं; इस बात को महत्व देकर किसी एक भाषा को मातृभाषा मानना और दूसरी को न मानना गलत होता है। दो मातृभाषाओं की स्थिति प्रायः दो भाषा-क्षेत्रों के संयुक्त सीमा-प्रदेशों में मिलती है जब शिशु दोनों भाषाओं के बोलने वालों के संपर्क में आता है, अन्य प्रदेशों में भी ऐसा संभव है जब शिशु दो भिन्न- भिन्न भाषाएँ बोलने वालों के भाषायी सम्पर्क में लगभग समान मात्रा में रहता है।
राष्ट्रभाषा बनाम राजभाषा
राष्ट्रभाषा प्रायः राष्ट्र के भीतर की अपनी भाषा होती है, बाहर से आई हुई परराष्ट्रीय भाषा नहीं होती। सैद्धांतिक रूप से काल्पनिक आधार पर यह माना जा सकता है कि यदि कोई राष्ट्र किसी परराष्ट्रीय भाषा को अपने ही राष्ट्र की भाषा के रूप में स्वीकार कर लें तो उसे राष्ट्रभाषा माना जाएगा क्योंकि उसकी परराष्ट्रीयता इस संदर्भ में एक ‘ऐतिहासिक’ तथ्य-मात्र बनकर रह जाएगी। किंतु ऐसी स्थिति में सामान्यतः काल्पनिक जगत् में ही प्राप्य है। किसी भाषा के ‘राष्ट्रभाषा’ होने की अनिवार्य शर्त यह है कि वह न्यूनाधिक अंशो में सारे राष्ट्रों में व्याप्त हो । राष्ट्रभाषा स्वतः इस पद पर आसीन हो जाती है । इसके लिए किसी आदेश या विधि-विधान की आवश्यकता नहीं पड़ती। धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक संदर्भों में राष्ट्र के भिन्न-भिन्न भाषाभाषी समुदाय परस्पर संपर्क में आने पर प्रायः जिस भाषा का उपयोग सहज ही करते हैं , वह उस राष्ट्र की राष्ट्रभाषा होती है । गुजराती मातृभाषा वाले महात्मा गांधी ने इस तथ्य का अन्वेषण मात्र किया था कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है; इन्होंने इस तथ्य को ईमानदारी के साथ स्वीकार किया था और निःस्वार्थ देश-सेवा की भावना के अधीन इस तथ्य का प्रसार किया था, लेकिन उन्होने इस तथ्य का आविष्कार या आदेश नहीं किया था। उनकी प्रेरणा से स्थापित अहिंदी भाषी राज्यों की ‘राष्ट्रभाषा’ प्रचार समितियाँ हिंदी का प्रचार करती थीं क्योंकि यह सर्वमान्य तथ्य था कि राष्ट्रभाषा तो एक ही है ; उसका नाम संस्था के नाम में जोड़ने की क्या आवश्यकता है?
कुछ लोग कहते हैं कि गुजराती , उड़िया आदि भी तो राष्ट्रभाषाएँ हैं, यदि नहीं तो क्या वे अराष्ट्रीय हैं? कुछ लोग कहते हैं कि हिंदी राष्ट्रभाषा है, गुजराती आदि राष्ट्रीय भाषाएँ हैं ये अंतर कृत्रिम और भ्रामक हैं। यदि गुजराती राष्ट्रभाषा रही होती तो महात्मा गांधी किस ‘भावना’ के अधीन ऐसा कहते हिचकते? यदि गुजराती आदि राष्ट्रीय भाषाएँ हैं तो हिंदी राष्ट्रीय भाषा क्यों नहीं है? वास्तविकता यह है कि ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द का प्रयोग एक पारिभाषिक अर्थ में होता है जिसका निर्देश ऊपर किया गया है । गुजराती , उड़िया आदि भारत ‘राष्ट्र की भाषाएँ’ हैं जिनमें हिंदी भी आती है। हिंदी “राष्ट्रभाषा” भी है। यह बात उसी प्रकार की है, जैसे मनुष्य शरीर के घटको में त्वचा और कान दोनों परिगणित होते हैं। लेकिन त्वचा सारे शरीर को आच्छादित करती है जब कि कानों का सीमित और निर्धारित स्थान है। दोनों ही हमें प्रिय है, किन्तु दोनों का प्रसार क्षेत्र तो अलग-अलग मानना पड़ेगा। जिसे अपनी त्वचा प्यारी होती है, वह कान कटवाने के लिए उद्यत नही घूमता।

कोई भाषा राजाज्ञा से राजभाषा बनती है। राजसत्ता राज काज के लिए जिस भाषा का निर्देश करती है, उसे राजभाषा कहा जाता है। कुछ लोग राजभाषा के अर्थ में ’राष्ट्रभाषा’ शब्द का प्रयोग करते हैं। जो अशुद्ध है (यद्यपि ‘राष्ट्रभाषा’ के अर्थ में ‘राजभाषा’ शब्द का प्रयोग नहीं करता) भारत के स्वतन्त्र होने से पहले हिन्दी राष्ट्रभाषा तो थी राजभाषा वह नहीं थी। भारतीय संविधान ने हिन्दी राष्ट्रभाषा को भारत की राजभाषा के पद पर भी आसीन कर दिया। उससे पहले अंग्रेजी राजभाषा थी यद्यपि वह राष्ट्रभाषा कमी नहीं थी, न है। अंग्रेजी से पहले फारसी भी राजभाषा रह चुकी है, यद्यपि वह भी कभी राष्ट्रभाषा नहीं रही।
हिन्दी की स्थिति भारत की राजभाषा के पद पर दुर्बल करने के लिए जो प्रयास होते रहे हैं, वे सर्वविदित हैं। हिन्दी को भारत की सह राजभाषा बनाना ,फिर उसे इस पद पर दीर्घ , दीर्घतर काल तक प्रतिष्ठित रखने का प्रयत्न करना इसी प्रक्रिया का अंग रहा है। राष्ट्रभाषा के पद पर उसकी स्थिति को दुर्बल प्रतिपादित करना भी इसी प्रक्रिया का एक अंग रहा है। वर्षों तक यह प्रचार प्रबलता के साथ किया गया कि भारत के कई राज्यों में हिन्दी जानने वाला नहीं मिलता जब कि अंग्रेजों का ज्ञान रिक्शे तांगेवालों और कुलियों तक को है। इस प्रकार के प्रभाव से मैं स्वयं इस बात पर विश्वास करने लगा था। अनेक अनुभवों ने मेरी आंखें खोलीं और मुझे पता चला कि यह प्रचार मिथ्या है। मेरे ये अनुभव रोचक हैं। वैविध्यपूर्ण हैं और ज्ञानवर्द्धक हैं।
राज्यभाषा
‘राज्यभाषा’ एक ऐसा शब्द जिसका प्रयोग कुछ लोग करते हैं और प्रायः त्रुटिपूर्ण अर्थ में करते हैं। किसी राज्य में बोली जाने वाली भाषा को राज्यभाषा कहा जा सकता हैं, उसी प्रकार जैसे किसी राष्ट्र में बोली जाने वाली भाषा को राष्ट्रभाषा कहा जाता है। राज्यभाषा का प्रसार राज्य भर सर्वत्र होना चाहिए। यदि राज्य की राज्यसत्ता उसे राज काज की भाषा भी बना ले तो वह उस राज्य की ‘राजभाषा’ भी हो जाती है। पंजाबी और तामिल आज पंजाब और तमिलनाडु की राजभाषाएँ हैं, पहले उनके इस पद पर अंग्रेजी आसीन थी। लेकिन पंजाबी और तमिल, पंजाब और तमिलनाडु में राज्यभाषा पद सदैव विद्यमान थी, अंग्रेजी उनका यह स्थान कभी नहीं ले पाई। हिन्दी उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान की राज्यभाषा भी है और इन राज्यों की राजभाषा भी थी।
सम्पर्क भाषा
दो भिन्न भिन्न भाषा-भाषी समुदायों में पारस्परिक सम्पर्क के लिए जो भाषा अपनाई जाती है,उसे सम्पर्क भाषा कहते हैं। यह सम्पर्क भाषा उन दोनों भाषा-भाषी समुदायों में से किसी एक की अपनी ही भाषा हो सकती है। और कोई तीसरी भाषा भी सम्पर्क भाषा की भूमिका निभा सकती है। दो समुदायों में एक से अधिक सम्पर्क भाषा भी हो सकती है। जिनका प्रयोग यादृच्छिक तौर पर या प्रसंग भेद के अनुसार या सामाजिक स्तर और पृष्ठभूमि के अधार पर वितरित होता है। हिन्दी समाज और गुजराती समाज के बीच विचार विनिमय यदि प्रायः हिन्दी में होता है तो हिन्दी उनकी सम्पर्क-भाषा है। संभव है कि किसी सामाजिक स्तर पर इन दोनों समुदायों में एक तीसरी ही भाषा अंग्रेजी भी सम्पर्क भाषा की भूमिका निभाती हो। सम्पर्क भाषा का निर्धारण जनता स्वयं ही कर लेती है। राजसत्ता भी इस दिशा में निर्देश दे सकती है। राष्ट्रभाषा बनने की दिशा में अग्रसर कोई भी भाषा अनिवार्य रूप से सम्पर्क भाषा का काम करती हुई चलती है। इस कार्य में अन्य भाषाएँ उसकी सहायक हो सकती हैं।
विश्व भाषा
यदि हम यह मानकर चलें कि किसी भाषा को विश्व भाषा कहने के लिए यह आवश्यक है कि वह समग्र विश्व भाषा में व्याप्त हो तो यह बात व्याहारिक नहीं है। इस अर्थ में कोई भी भाषा आज विश्व नहीं कही जा सकती है। विश्वभाषा कहलाने के लिए किसी भाषा के दो लक्षण आवश्यक हैं। एक तो, वह कम से कम एक देश की राष्ट्रभाषा हो। दूसरे कम से कम एक अन्य देश में भी उसे बोलने वाले पर्याप्त संख्या में विद्यामान हो। यह दूसरा प्रतिबन्ध अंतरराष्ट्रीयता लाने के लिए अनिवार्य है,क्योंकि एक देश की सीमा के परे जाना भाषा को विश्वोन्मुख बनाने के लिए आवश्यक है। हिन्दी एक विश्व भाषा भी है क्योकि वह भारत की राष्ट्रभाषा होने के साथ साथ मारीशस, फ़ीजी आदि में पर्याप्त संख्या में लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है।
(लेखक प्रख्यात भाषाविद्‍और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के अतिथि प्राध्यापक हैं)

भाषा की विभिन्न भूमिकाएँ

-प्रो. देवीशंकर द्विवेदी

कुछ बातों में भाषा की तुलना व्यक्ति से की जा सकती है। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति कई भूमिकाएँ निभाता है या कई व्यक्ति एक ही भूमिका निभाते हैं, उसी प्रकार एक भाषा भी कई भूमिकाएँ निभा सकती हैं और कई भाषाएँ एक भूमिका निभा सकती हैं। कोई व्यक्ति पुत्र होता है, पिता होता है, भाई होता है, मित्र होता है, अध्यापक होता है। ये उस व्यक्ति की भूमिकाएँ हैं जिसमें कोई अन्तर्विरोध नहीं है। अनेक व्यक्ति एक साथ पुत्र होते हैं, पिता होते है, भाई होते हैं, मित्र होते हैं, अध्यापक होते हैं, इसमें से प्रत्येक भूमिका अनेक व्यक्ति निभाते हैं और इसमें भी कोई अन्तर्विरोध नहीं है।यदि हम किसी व्यक्ति को बड़ा ,लम्बा या मोटा आदमी कहते हैं तो उसके किसी पक्ष पर प्रकाश डालते हैं।किसी व्यक्ति पर यह तीनों विशेषण लागू होते हैं,किसी पर दो,किसी पर एक और किसी पर एक भी नहीं। पं.जवाहरलाल नेहरू बड़े आदमी थे,किंतु लम्बे या मोटे आदमी नहीं थे। बादशाह खान बड़े और लम्बे आदमी थे,किंतु मोटे आदमी नहीं थे। पं.गोविंदवल्लभ पन्त बड़े आदमी थे,लम्बे भी थे और मोटे भी थे।हम लोगों को राह चलते सैकड़ों लोग ऐसे दिखते हैं जो न तो बड़े आदमी होते हैं, लम्बे आदमी ,मोटे आदमी होते हैं। भाषा के संदर्भ में कई शब्दों का प्रयोग होता है; मातृभाषा, राष्ट्रभाषा, राज्यभाषा, संपर्क भाषा इत्यादि। किसी प्रसंग में एक ही भाषा के द्वारा इनमें किसी एक या एकाधिक भूमिकाओं का निर्वाह संभव है। यहां इसका अर्थ स्पष्ट कर देना उचित होगा क्योंकि कई बार इनके प्रयोग में भ्रान्ति पाई जाती हैं।

मातृभाषा

जो भी व्यक्ति कोई भाषा बोलता है, उसकी एक मातृभाषा अवश्य होती है मातृभाषा वह नहीं होती जो व्यक्ति जन्म के समय लेकर आता है क्योंकि उस समय की भाषा वस्तुतः केवल भाषा सीखने की मानवोचित क्षमता होती है जो हमारी मानव-जाति में एक जैसी होती है। इसमें एक रूपरेखा-मात्र होती है जिसमें मनुष्य जन्म के बाद ध्वनियों, शब्दों, वाक्यों, अर्थों और इन सबके प्रकारों के रंग भरता है। मातृभाषा वह भी नहीं होती जो किसी की माँ की भाषा थी या माँ के अभाव में माँ की भाँति लालन-पालन करने वाली किसी दूसरी स्त्री की भाषा थी। मातृभाषा का अर्थ यह भी नहीं है कि हम उस भाषा को माँ की भाँति पूज्य मानें। मातृभाषा वह होती है जो हम जन्म के पहले-पहल सीखते हैं। जिस प्रकार किसी भी व्यक्ति की जननी उसके जीवन में सर्वप्रथम आने वाली नारी होती है या यों कहें कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में सर्वप्रथम आने वाली नारी उसकी जननी या माँ होती है, उसी प्रकार किसी भी व्यक्ति के जीवन में आने वाली सर्वप्रथम भाषा उसकी मातृभाषा होती है। जिस प्रकार व्यक्ति सामान्यतः अपनी माता की संदर्भ बिन्दु मानकर शेष सृष्टि को जानना-समझना आरंभ करता है, उसी प्रकार वह नैसर्गिक रूप से अपनी मातृभाषा का संदर्भ-बिन्दु मानकर अन्य भाषाओं को सीखता-समझता है। किसी एक व्यक्ति की दो जननियाँ नहीं होती(क्योंकि सौतेली माँ जननी नहीं होती) लेकिन एक व्यक्ति की दो मातृभाषाएँ हो सकती हैं। यदि शिशु शैशव में ही दो भाषाएँ साथ-साथ सीखता है तो वे दोनो उसकी मातृभाषाएँ हैं। ऐसा होने पर शिशु आरंभ में दोनों भाषाओं में मिश्रण भी करता है लेकिन धीरे-धीरे उनका पार्थक्य स्थापित कर लेता है। भाषाएँ सीखने में पहले एक-दो शब्द या एक दो वाक्य किस भाषा के बोले गये हैं; इस बात को महत्व देकर किसी एक भाषा को मातृभाषा मानना और दूसरी को न मानना गलत होता है। दो मातृभाषाओं की स्थिति प्रायः दो भाषा-क्षेत्रों के संयुक्त सीमा-प्रदेशों में मिलती है जब शिशु दोनों भाषाओं के बोलने वालों के संपर्क में आता है, अन्य प्रदेशों में भी ऐसा संभव है जब शिशु दो भिन्न- भिन्न भाषाएँ बोलने वालों के भाषायी सम्पर्क में लगभग समान मात्रा में रहता है।

राष्ट्रभाषा बनाम राजभाषा

राष्ट्रभाषा प्रायः राष्ट्र के भीतर की अपनी भाषा होती है, बाहर से आई हुई परराष्ट्रीय भाषा नहीं होती। सैद्धांतिक रूप से काल्पनिक आधार पर यह माना जा सकता है कि यदि कोई राष्ट्र किसी परराष्ट्रीय भाषा को अपने ही राष्ट्र की भाषा के रूप में स्वीकार कर लें तो उसे राष्ट्रभाषा माना जाएगा क्योंकि उसकी परराष्ट्रीयता इस संदर्भ में एक ऐतिहासिक तथ्य-मात्र बनकर रह जाएगी। किंतु ऐसी स्थिति में सामान्यतः काल्पनिक जगत् में ही प्राप्य है। किसी भाषा के राष्ट्रभाषा होने की अनिवार्य शर्त यह है कि वह न्यूनाधिक अंशो में सारे राष्ट्रों में व्याप्त हो । राष्ट्रभाषा स्वतः इस पद पर आसीन हो जाती है । इसके लिए किसी आदेश या विधि-विधान की आवश्यकता नहीं पड़ती। धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक संदर्भों में राष्ट्र के भिन्न-भिन्न भाषाभाषी समुदाय परस्पर संपर्क में आने पर प्रायः जिस भाषा का उपयोग सहज ही करते हैं , वह उस राष्ट्र की राष्ट्रभाषा होती है । गुजराती मातृभाषा वाले महात्मा गांधी ने इस तथ्य का अन्वेषण मात्र किया था कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है; इन्होंने इस तथ्य को ईमानदारी के साथ स्वीकार किया था और निःस्वार्थ देश-सेवा की भावना के अधीन इस तथ्य का प्रसार किया था, लेकिन उन्होने इस तथ्य का आविष्कार या आदेश नहीं किया था। उनकी प्रेरणा से स्थापित अहिंदी भाषी राज्यों की राष्ट्रभाषा प्रचार समितियाँ हिंदी का प्रचार करती थीं क्योंकि यह सर्वमान्य तथ्य था कि राष्ट्रभाषा तो एक ही है ; उसका नाम संस्था के नाम में जोड़ने की क्या आवश्यकता है?

कुछ लोग कहते हैं कि गुजराती , उड़िया आदि भी तो राष्ट्रभाषाएँ हैं, यदि नहीं तो क्या वे अराष्ट्रीय हैं? कुछ लोग कहते हैं कि हिंदी राष्ट्रभाषा है, गुजराती आदि राष्ट्रीय भाषाएँ हैं ये अंतर कृत्रिम और भ्रामक हैं। यदि गुजराती राष्ट्रभाषा रही होती तो महात्मा गांधी किस भावना के अधीन ऐसा कहते हिचकते? यदि गुजराती आदि राष्ट्रीय भाषाएँ हैं तो हिंदी राष्ट्रीय भाषा क्यों नहीं है? वास्तविकता यह है कि राष्ट्रभाषा शब्द का प्रयोग एक पारिभाषिक अर्थ में होता है जिसका निर्देश ऊपर किया गया है । गुजराती , उड़िया आदि भारत राष्ट्र की भाषाएँ हैं जिनमें हिंदी भी आती है। हिंदी राष्ट्रभाषा भी है। यह बात उसी प्रकार की है, जैसे मनुष्य शरीर के घटको में त्वचा और कान दोनों परिगणित होते हैं। लेकिन त्वचा सारे शरीर को आच्छादित करती है जब कि कानों का सीमित और निर्धारित स्थान है। दोनों ही हमें प्रिय है, किन्तु दोनों का प्रसार क्षेत्र तो अलग-अलग मानना पड़ेगा। जिसे अपनी त्वचा प्यारी होती है, वह कान कटवाने के लिए उद्यत नही घूमता।

कोई भाषा राजाज्ञा से राजभाषा बनती है। राजसत्ता राज काज के लिए जिस भाषा का निर्देश करती है, उसे राजभाषा कहा जाता है। कुछ लोग राजभाषा के अर्थ में राष्ट्रभाषा शब्द का प्रयोग करते हैं। जो अशुद्ध है (यद्यपि राष्ट्रभाषा के अर्थ में राभाषा शब्द का प्रयोग नहीं करता) भारत के स्वतन्त्र होने से पहले हिन्दी राष्ट्रभाषा तो थी राजभाषा वह नहीं थी। भारतीय संविधान ने हिन्दी राष्ट्रभाषा को भारत की राजभाषा के पद पर भी आसीन कर दिया। उससे पहले अंग्रेजी राजभाषा थी यद्यपि वह राष्ट्रभाषा कमी नहीं थी, न है। अंग्रेजी से पहले फारसी भी राजभाषा रह चुकी है, यद्यपि वह भी कभी राष्ट्रभाषा नहीं रही।

हिन्दी की स्थिति भारत की राजभाषा के पद पर दुर्बल करने के लिए जो प्रयास होते रहे हैं, वे सर्वविदित हैं। हिन्दी को भारत की सह राजभाषा बनाना ,फिर उसे इस पद पर दीर्घ , दीर्घतर काल तक प्रतिष्ठित रखने का प्रयत्न करना इसी प्रक्रिया का अंग रहा है। राष्ट्रभाषा के पद पर उसकी स्थिति को दुर्बल प्रतिपादित करना भी इसी प्रक्रिया का एक अंग रहा है। वर्षों तक यह प्रचार प्रबलता के साथ किया गया कि भारत के कई राज्यों में हिन्दी जानने वाला नहीं मिलता जब कि अंग्रेजों का ज्ञान रिक्शे तांगेवालों और कुलियों तक को है। इस प्रकार के प्रभाव से मैं स्वयं इस बात पर विश्वास करने लगा था। अनेक अनुभवों ने मेरी आंखें खोलीं और मुझे पता चला कि यह प्रचार मिथ्या है। मेरे ये अनुभव रोचक हैं। वैविध्यपूर्ण हैं और ज्ञानवर्द्धक हैं।

राज्यभाषा

राज्यभाषा एक ऐसा शब्द जिसका प्रयोग कुछ लोग करते हैं और प्रायः त्रुटिपूर्ण अर्थ में करते हैं। किसी राज्य में बोली जाने वाली भाषा को राज्यभाषा कहा जा सकता हैं, उसी प्रकार जैसे किसी राष्ट्र में बोली जाने वाली भाषा को राष्ट्रभाषा कहा जाता है। राज्यभाषा का प्रसार राज्य भर सर्वत्र होना चाहिए। यदि राज्य की राज्यसत्ता उसे राज काज की भाषा भी बना ले तो वह उस राज्य की राजभाषा भी हो जाती है। पंजाबी और तामिल आज पंजाब और तमिलनाडु की राजभाषाएँ हैं, पहले उनके इस पद पर अंग्रेजी आसीन थी। लेकिन पंजाबी और तमिल, पंजाब और तमिलनाडु में राज्यभाषा पद सदैव विद्यमान थी, अंग्रेजी उनका यह स्थान कभी नहीं ले पाई। हिन्दी उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान की राज्यभाषा भी है और इन राज्यों की राजभाषा भी थी।

सम्पर्क भाषा

दो भिन्न भिन्न भाषा-भाषी समुदायों में पारस्परिक सम्पर्क के लिए जो भाषा अपनाई जाती है,उसे सम्पर्क भाषा कहते हैं। यह सम्पर्क भाषा उन दोनों भाषा-भाषी समुदायों में से किसी एक की अपनी ही भाषा हो सकती है। और कोई तीसरी भाषा भी सम्पर्क भाषा की भूमिका निभा सकती है। दो समुदायों में एक से अधिक सम्पर्क भाषा भी हो सकती है। जिनका प्रयोग यादृच्छिक तौर पर या प्रसंग भेद के अनुसार या सामाजिक स्तर और पृष्ठभूमि के अधार पर वितरित होता है। हिन्दी समाज और गुजराती समाज के बीच विचार विनिमय यदि प्रायः हिन्दी में होता है तो हिन्दी उनकी सम्पर्क-भाषा है। संभव है कि किसी सामाजिक स्तर पर इन दोनों समुदायों में एक तीसरी ही भाषा अंग्रेजी भी सम्पर्क भाषा की भूमिका निभाती हो। सम्पर्क भाषा का निर्धारण जनता स्वयं ही कर लेती है। राजसत्ता भी इस दिशा में निर्देश दे सकती है। राष्ट्रभाषा बनने की दिशा में अग्रसर कोई भी भाषा अनिवार्य रूप से सम्पर्क भाषा का काम करती हुई चलती है। इस कार्य में अन्य भाषाएँ उसकी सहायक हो सकती हैं।

विश्व भाषा

यदि हम यह मानकर चलें कि किसी भाषा को विश्व भाषा कहने के लिए यह आवश्यक है कि वह समग्र विश्व भाषा में व्याप्त हो तो यह बात व्याहारिक नहीं है। इस अर्थ में कोई भी भाषा आज विश्व नहीं कही जा सकती है। विश्वभाषा कहलाने के लिए किसी भाषा के दो लक्षण आवश्यक हैं। एक तो, वह कम से कम एक देश की राष्ट्रभाषा हो। दूसरे कम से कम एक अन्य देश में भी उसे बोलने वाले पर्याप्त संख्या में विद्यामान हो। यह दूसरा प्रतिबन्ध अंतरराष्ट्रीयता लाने के लिए अनिवार्य है,क्योंकि एक देश की सीमा के परे जाना भाषा को विश्वोन्मुख बनाने के लिए आवश्यक है। हिन्दी एक विश्व भाषा भी है क्योकि वह भारत की राष्ट्रभाषा होने के साथ साथ मारीशस, फ़ीजी आदि में पर्याप्त संख्या में लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है।

(लेखक प्रख्यात भाषाविद्‍ और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के अतिथि प्राध्यापक हैं)