सुधिर जिंदे
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहकर वह अपनी भौतिक तथा मानसिक जरुरतो ंको पूरा करने के लिए आपस में व्यवहार हेतु भाषा का प्रयोग करता है। इसका अर्थ यह है कि अपने विचारों के आदान प्रदान तथा अपनी भावनाओं को प्रदर्शित करने के लिए व्यक्ति समुदाय में भाषा का प्रयोग करता है। भाषा के बिना मनुष्य के सामाजिक जीवन की कल्पना हम नहीं कर सकते।
प््राश्न यह उठता है कि क्या वह सारे तत्व जो मानव समुदाय में सम्प्रेषण के लिए प्रयोग में लाए जाते है। उन सभी को हम भाषा कह सकते है? क्या हम उन प्रतीकों को भाषा कहे जो भाषा प्रयोग के दौरान प्रयुक्त होते है? भाषा की प्रकृति पर उठाये गये इन सवालों के जवाब के लिए हमे भाषा वास्तव में क्या है या फिर भाषाविज्ञान भाषा को किस दृष्टि से देखता है यह जानना आवश्यक सा बन जाता है। विभिन्न विद्वानों ने इसे विभिन्न रुपों में देखने और परिभाषित करने का प्रयास किया है।
सस्युर जिन्हे आधुनिक भाषाविज्ञान के जनक के रुप में देखा जाता है भाषा के मानवीय व्यवहार के अन्यतम उदाहरण के रुप में देखते है। अत: वे मानव व्यवहार के अन्य क्षेत्रों से काटकर उसे नही देखना चाहते थे। उन्होने भाषा को प्रतीकों की व्यवस्था के माध्यम से समझाया । उन्ही के शब्दों में,
‘‘भाषा प्रतीकों की व्यवस्था है जिसके सहारे हम विचारों को व्यक्त करते है। इसी कारण इस व्यवस्था तुलना लेखन पद्धति, गूंगे–बहरों द्वारा व्यवहृत वर्णमाला व्यवस्था , प्रतीकात्मक कर्मकांड विधान , शिष्टाचार के नियम , संकेत सैनिक चिन्हों के साथ करना संभव है। वस्तुत: इन विभिन्न क्षेत्रों के बीच भाषा की अपनी व्यवस्था
सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।‘‘ भाषिक प्रतीकों के संदर्भ में पहले सस्युर ने यह सिद्ध किया कि अपनी प्रकृति में मूलत: वे यादृच्छिक है जो हर भाषा को भौतिक धरातल पर पाए जानेवाले प्रवाही तथ्य को अपने–अपने ढंग से भाषिक यथार्थ के रुप में विभाजित करती है। इन्ही दो तथ्यों के आधार पर उन्होने यह भी प्रमाणित किया है कि भाषिक प्रतीक अपने में कोई स्वनिष्ठ ईकाई नही होते बल्कि वे प्रतीकों को व्यवस्था का एक अंग बनकर ही सार्थकता पाते है।
भाषा केवल भाषिक प्रतीकों का जमघट नही वह भाषिक प्रतीकों की सार्थक व्यवस्था है। उनकी एक व्यवस्थित कडी है। भाषा भाषिक प्रतीकों की कडी तो होती है पर भाषिक प्रतीकों की हर कडी भाषा का दर्जा नही पाती । प्रत्येक मातृभाषा अपनी भाषा में प्रयुक्त प्रतीकों की इस व्यवस्था को ज्ञात या अज्ञात रुप में पहचानती है और उसके आधार पर उन भाषिक प्रतिकों को पहचानने में सक्षम होती है जो मान्य होते हैं। उदाहरण के लिए शब्द स्तर पर भाषिक प्रतीक ‘कमल‘ या ‘कलम‘ को हिन्दी भाषी मान्यता देता है पर इन्ही ध्वनियों के उस संयोजन को स्वीकार नहीं करता जो ‘मकल‘ या ‘लकम‘ को जन्म देता है। इस प्रकार वाक्य के स्तर पर भाषिक प्रतीक शब्दों की कडी के रुप में देखा जाता है। भाषा व्यवस्थाओं की व्यवस्था है और यह एक व्यवस्था के भीतर दूसरी व्यवस्था का ही परिणाम है कि जिसके आधार पर एक भाषा में स्वीकृत व्यवस्था के अलावा किए गए बदलाव को भाषा स्वीकार नहीं कर पाती उदाहरण के लिए अंग्रेजी भाषा की व्यवस्था को हम देख सकते है– जैसे
Ram said to hari that how was not studying hard.
Hard said to hari be was Ram not that studying.
उपयुर्क्त दोनो वाक्य व्यवस्थाओं को देखने के बाद हम यह कह सकते है कि भाषिक प्रतीक किसी विशिष्ट व्यवस्था में आने के बाद ही भाषिक प्रकार्य पूर्ण हो सकता है। अगर कोई भाषिक प्रतीक उस विशिष्ट भाषिक व्यवस्था के साथ न आकर अन्य व्यवस्था बनाते है
तो हम उसे भाषा नहीं कह सकते।
भाषिक प्रतीकों की व्यवस्था भाषा सापेक्ष होती है, और हर एक व्यवस्था कुछेक संरचनात्मक नियमों की अपेक्षा रखती है ये नियम ही भाषिक संरचना और इस संरचना के आधार बने भाषिक प्रतीकों की अभिरचना का निर्माण कर सकते है। भाषिक संरचना भाषिक प्रतीकों की व्यवस्था न होकर उनके प्रकार्यो की व्यवस्था होती है। किसी भाषा व्यवस्था में भाषिक प्रतीक अपने प्रकार्य को सिद्ध करने के बाद ही उस संरचना उस व्यवस्था का अंग बन सकती है। अंत में भाषा के विषय में हम यह कह सकते हैं कि, षाभा भाषा नहीं है, वह तभी भाषा बन सकती है जब वह समाज द्वारा स्वीकृत होगी।
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पहली और सबसे बडी समाज सेवा
यदि हम अंग्रेजी के आदी नहीं हो गये होते, तो यह समझने में हमें देर नहीं लगती कि अंग्रेजी के शिक्षा का माध्यम होने से हमारी बौद्धिक चेतना जीवन से कट कर दूर हो गयी है, हम अपनी जनता से अलग हो गये हैं, जाति के सर्वश्रेष्ट विभागों का विकास रुक गया है और जो विचार हमें अंग्रेजी के माध्यम से मिले, उन्हें हम जनता में फैलाने नाकामयाब रहे हैं। पिछले साठ वर्षों से हमने विचित्र शब्दों को केवल रटना सईखा है, तथ्यपूर्ण ज्ञान पचाने के बदले हमने शब्दों का उच्चारण सीखा है। जो विरासत हमें अपने बाप-दादों से हासिल हुई, उसके आधार पर नव-निर्माण करने के बदले, हमने उस विरासत को भूलना सीखा है। इस दुर्गति की मिसाल सारी दुनिया के इतिहास में नहीं है। यह तो राष्ट्रीय शोक अथवा ट्रेजडी का विषय है।
आज की पहली और सबसे बडी समाज सेवा यह है कि हमारा अपनी देशी भाषाओं की ओर मुडें और हिन्दी को राष्ट्रभाषा के क्पद पर प्रतिष्ठित करें। हमें अपनी सभी प्रादेशिक कार्रवाईयां अपनी-अपनी भाषाओं से चलानी चाहिएं तथा हमारी राष्ट्रीय कार्रवाईयों की भाषा हिन्दी होनी चहिये। जब तक हमारे स्कूल और कालेज विभिन्न देशी भाषाओं में शिक्षा देना आरंभ नही करते, तब तक हमें आराम लेने का अधिकार नहीं है।
-महात्मा गांधी
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