संतोष कुमार सिंह
एम। आई. एल. ई.
एम। आई. एल. ई.
सबसे अधिक हैरानी और दु:ख होता है जब पूरे देश में 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है। कार्यालयों, विद्यालयों तथा अन्य संस्थाओं में अजीब तमाशे का माहोेल होता है। 14 सितम्बर को देश के छोटे–बडे लगभग सभी हिन्दी संस्थाओं में इस उपलक्ष्य में आयोजन होता है। उनमें सरकारी या गैर सरकारी संस्थाओं के अंगे्रजी भक्त ही मुख्य अतिथि बनाए जाते है। जो अपने विचार हिन्दी के समर्थन में रखते तो है पर इनमें भी 70 प्रतिशत शब्द अंग्रेजी भाषा के ही होते हैं और तो और इन समारोह में पधारे कवियों और साहित्यकारों व अन्य को उपहार स्वरुप दिया जानेवाला उपहार भी अपने देश का नहीं बल्कि दूसरे देशों का बना होता है और अगली सुबह समाचार पत्रों में बडे–बडे अक्षरों में छपा होता है
‘‘संस्थान में हिन्दी दिवस का आयोजन सफल रहा।‘‘और हिन्दी दिवस की औपचारिकता पूरी हो जाती हैं। यह सब देख कथाकार भीष्म साहनी की एक कहानी ‘‘चीफ की दावत‘‘ के नायक की बूढी मॉं बहुत याद आती है। चीफ अमेरिकन है उसे दावत पर बुलाया गया है उसके साथ–साथ दप्तर के अन्य अफसर भी अपनी पत्नी सहित आते है। घर को पाश्चात्य शैली से जितना संभव है सजाया गया था पर पति–पत्नी बूढी मॉं को लेकर बेहद परेशान हैं, मॉं उनके आधुनिक वातावरण में कही फिट नही बैठती है। डरी सहमी मॉं पुत्र के हर आदेश का पालन करती हुई सबसे अलग एक कोने में छुपी बैठी है। पर अफसोस अमेरिकन बांॅस घर में घुमता फिरता , घर के रख रखाव की प्रशंसा करता हुआ उस कोने में पहुॅच जाता है। रात में मॉं के पीछे पडकर अपनी तरक्की का वासता देकर मॉं को फुलकारी बनाने के लिए तैयार कर लेता है। वह एक दिन मॉं की महत्ता का दिन बन जाता है।
क्या भारतवर्ष में हिन्दुस्तान में हिन्दी की ऐसी ही दशा होने वाली है? विदेशों की ओर गमन और अंग्रेजी का नमन हमें किस ओर ले जा रहा है अथवा ले जाएगा आज भी परीक्षा के परिणामों में गणित, विज्ञान और अंग्रेजी महत्वपूर्ण होते है जबकि हिन्दी के शत–प्रतिशत परिणाम की ओर किसी का ध्यान नही जाता। आज प्रत्यक्ष या अनौपचारिक रुप से लोग को राष्ट्रभाषा कह देते है। किन्तु संविधान के अनुसार हिन्दी राजभाषा है। यह भारतीयों की हीन भावना का ही परिणाम है कि देश मे हिन्दी की स्थिति बद से बदतर होती जा रही हैं।
खैर इस विषय को आगे बढाते हुए ‘‘यह कहना चाहता हूं कि भारत का राष्ट्रगान एक है, राष्ट्रध्वज एक हैं , राष्ट्रीय पशु एक हैं, राष्ट्रीय पक्षी एक है, तो हमारी राष्ट्रभाषा एक क्यों नहीं?
क्या हम अपनी राष्ट्रभाषा के विकास के द्वारा देश का विकास नही कर सकते हैं? देशवासी प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस मनाते है और उसमें रोष और रुदन करते है कि हिन्दी का विकास होना चाहिए। क्या अर्थ है इसका ? अर्थात् सब कुछ ठीक नहीं है। सच कहा जाय तो ‘‘14 सितम्बर हिन्दी दिवस नहीं, बल्कि हिन्दी का शोक दिवस ही है’’ और इसका समाधान भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की इन पंक्तियों में छिपा हुआ है–
‘‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिट न हिय को शूल।।‘‘
‘‘संस्थान में हिन्दी दिवस का आयोजन सफल रहा।‘‘और हिन्दी दिवस की औपचारिकता पूरी हो जाती हैं। यह सब देख कथाकार भीष्म साहनी की एक कहानी ‘‘चीफ की दावत‘‘ के नायक की बूढी मॉं बहुत याद आती है। चीफ अमेरिकन है उसे दावत पर बुलाया गया है उसके साथ–साथ दप्तर के अन्य अफसर भी अपनी पत्नी सहित आते है। घर को पाश्चात्य शैली से जितना संभव है सजाया गया था पर पति–पत्नी बूढी मॉं को लेकर बेहद परेशान हैं, मॉं उनके आधुनिक वातावरण में कही फिट नही बैठती है। डरी सहमी मॉं पुत्र के हर आदेश का पालन करती हुई सबसे अलग एक कोने में छुपी बैठी है। पर अफसोस अमेरिकन बांॅस घर में घुमता फिरता , घर के रख रखाव की प्रशंसा करता हुआ उस कोने में पहुॅच जाता है। रात में मॉं के पीछे पडकर अपनी तरक्की का वासता देकर मॉं को फुलकारी बनाने के लिए तैयार कर लेता है। वह एक दिन मॉं की महत्ता का दिन बन जाता है।
क्या भारतवर्ष में हिन्दुस्तान में हिन्दी की ऐसी ही दशा होने वाली है? विदेशों की ओर गमन और अंग्रेजी का नमन हमें किस ओर ले जा रहा है अथवा ले जाएगा आज भी परीक्षा के परिणामों में गणित, विज्ञान और अंग्रेजी महत्वपूर्ण होते है जबकि हिन्दी के शत–प्रतिशत परिणाम की ओर किसी का ध्यान नही जाता। आज प्रत्यक्ष या अनौपचारिक रुप से लोग को राष्ट्रभाषा कह देते है। किन्तु संविधान के अनुसार हिन्दी राजभाषा है। यह भारतीयों की हीन भावना का ही परिणाम है कि देश मे हिन्दी की स्थिति बद से बदतर होती जा रही हैं।
खैर इस विषय को आगे बढाते हुए ‘‘यह कहना चाहता हूं कि भारत का राष्ट्रगान एक है, राष्ट्रध्वज एक हैं , राष्ट्रीय पशु एक हैं, राष्ट्रीय पक्षी एक है, तो हमारी राष्ट्रभाषा एक क्यों नहीं?
क्या हम अपनी राष्ट्रभाषा के विकास के द्वारा देश का विकास नही कर सकते हैं? देशवासी प्रतिवर्ष हिन्दी दिवस मनाते है और उसमें रोष और रुदन करते है कि हिन्दी का विकास होना चाहिए। क्या अर्थ है इसका ? अर्थात् सब कुछ ठीक नहीं है। सच कहा जाय तो ‘‘14 सितम्बर हिन्दी दिवस नहीं, बल्कि हिन्दी का शोक दिवस ही है’’ और इसका समाधान भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की इन पंक्तियों में छिपा हुआ है–
‘‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिट न हिय को शूल।।‘‘
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