29 नवंबर 2009

नवंबर ०९ के सदस्य

संपादक -हर्षा वडतकर
संपादक मंडल -कमला थोकचोम, अनामिका
शब्द संयोजन -धीरेन्द्र प्रताप सिंह, रंजीत कुमार, योगेश उमाले

संपादक के की-बोर्ड से

भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत भित्ति पत्रिका 'प्रयास' का नवीनतम अंक आपके सामने प्रस्तुत है। प्रयास पत्रिका जहाँ एक ओर किसी ध्येय को हासिल करने की ख्वाइश रखती है वही दूसरी और भाषा-विज्ञान तथा भाषा के तकनीकी पक्ष को लेकर ऐसे बिन्दुओं को सामने लाने की को‍‍शश करती है, जो पाठकों के ध्यान का केन्द्र बनती है। इस पत्रिका में भाषा-विज्ञान तथा भाषा के अन्य क्षेत्रों से जुड़े सभी विद्यार्थी और शोधार्थी को अपने विचार प्रकट करने का मौका मिल रहा है।
भाषा मानव जाति की सोच को विस्तार प्रदान करने वाली एक व्यवस्था है। भाषा के तकनीकी विकास के कारण भाषा-विज्ञान का क्षेत्र अधिक विस्तृत हो गया है। जहाँ भाषा का अध्ययन केवल सैद्धांतिक दृष्टि से ही होता था वहां अधिकांश भाषा वैज्ञानिक भाषा को कम्प्यूटर के साथ किस तरह से जोड़ा जाये अर्थात संगणकीय व्याकरण निर्माण करने की ओर लगे हुए हैं। यह भाषा का अनुप्रयुक्त क्षेत्र है अर्थात अनुप्रयुक्त भाषा-विज्ञान की भाषाओं में अनुवाद, शैली-विज्ञान, समाज भाषा-विज्ञान, मनोभाषाविज्ञान आदि का समावेश है।
पत्रिका के इस अंक में ऐसे ही भाषा के सैद्धांतिक तथा अनुप्रयुक्त पक्ष से संबंधित विषयों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है, जिनमें प्रख्यात भाषावैज्ञानिक नोम चॉम्स्की के जीवन परिचय पर प्रकाश डाला गया है। नोम चॉम्स्की ऐसे चिन्तक हैं जिन्होने भाषा-विज्ञान को ज्ञानवृत्त के केन्द्र बिन्दु के रूप में प्रतिस्थापित किया । इससे भाषिक चिन्तन को नई स्फुर्ति तथा प्रेरणा प्राप्त हुई । सामान्यत: इस विचार को बल मिला कि मानव और पशु प्रज्ञा अथवा विचार के कारण नहीं अपितु भाषिक क्षमता के कारण भिन्न होता है।
आज विश्‍व में कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहां अनुवाद की आवश्‍यकता न हो अनुवाद के द्वारा हम केवल दूसरे देश के सहित्य से ही परिचित नहीं होते बल्कि विभिन्न तरह की प्रशासनिक, शैक्षणिक, वैज्ञानिक, धार्मिक आदि जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए अनुवाद की भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी है। इस संन्दर्भ में यहाँ भाषा-विज्ञान तथा अनुवाद के महत्व को स्पष्‍ट किया गया है।
मशीनी अनुवाद के सामने कई समस्याएँ थीं परन्तु उस क्षेत्र में जो प्रयास किये गये उसमें सफल प्रयास 'स्पीच-टू-टेक्स्ट ट्रान्सलेशन सिस्टम' है जो भारत समेत पाँच देशों के भाषा वैज्ञानिको ने तैयार किया है, इसमें अंग्रेजी भाषा में बोला गया वाक्य तत्काल हिन्दी में अनुवादित होता है। एक तरह से देखा जाए तो मशीनी अनुवाद का विकास है। हमने इससे सन्दर्भित लेख को भी इस अंक में शामिल किया है।
भूमंडलीकरण के युग में भाषा पर सूचना प्रौद्योगिकी तथा वैश्‍वीकरण के प्रभाव से भाषा में नये-नये शब्दों का निर्माण हुआ है। भाषा की द्वंद्वात्मक स्थिति को देखने का प्रयास इस अंक में हमने किया है।
मैं पत्रिका के इस अंक के लिए लेख भेजने वाले सभी विद्वत्जनों की आभारी हूँ।

हर्षा

नोम चॉम्स्की


नोम चॉम्स्की (7दिसंबर,1928 )
धीरेन्द्र प्रताप सिंह
पी–एच.डी.
भाषा–प्रौद्योगिकी


एवरम नोम चॉम्स्की प्रमुख भाषावैज्ञानिक दार्शनिक, राजनैतिक, एक्टिविस्ट लेखक एवं व्याख्याता हैं। संप्रति वे मसाचुएट्स इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नालॉजी के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर भी हैं।
चॉम्स्की का जन्म 7 दिसंबर 1928 को अमेरिका के फिलाडेल्फिया प्रांत के इस्ट ओकलेन में हुआ था। इनके पिता यूक्रेन में जन्में श्री विलियम चॉम्स्की (1896–1977) थे, जो हीब्रू के शिक्षक एवं विद्वान थे। उनकी माता एल्सी चॉम्स्की बेलारूस से थी लेकिन वे अमेरिका में पली बढ़ी थीं।
नोम चॉम्स्की को जेनेरेटिव ग्रामर के सिद्धांत का प्रतिपादक एवं 20 वीं सदी के भाषाविज्ञान में सबसे बड़ा योगदान कर्ता माना जाता है। उन्होंने जब मनोविज्ञान के ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक बी.एफ स्कीनर के पुस्तक ‘वर्बल बिहेवियर’ की आलोचना लिखी, जिसमें 1950 के दशक में व्यापक स्वीकृति प्राप्त व्यवहारवाद के सिद्धांत को चुनौती दी, तो इससे संज्ञानात्मक मनोविज्ञान में एक तरह की क्रांति का सूत्रपात हुआ। जिससे न सिफ‍र् मनोविज्ञान में अध्ययन एवं शोध प्रभावित हुआ बल्कि भाषा विज्ञान, समाजशास्त्र जैसे कई क्षेत्रों में आमूल चूल परिवर्तन आया।
‘आर्टस एंड ह्युमैनिटिक्स साइटेशन इंडेक्स’ के अनुसार 1980–92 के दैरान जितने शोधकर्ताओं एवं विद्वानों ने चॉम्स्की को उद्धृत किया है उतना शायद ही किसी जीवित लेखक को किया गया हो और इतना ही नहीं वे किसी भी समयावधि में आठवें सबसे बड़े उद्धृत किये गये लेखक हैं।
1960 के दशक के वियतनाम युद्ध की आलोचना में लिखी पुस्तक ‘द रिसपांसबिलिटी आफ इंटेलेक्चुअल्स’ के बाद चॉम्स्की खास तौर पर अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मीडिया के आलोचक एवं राजनीति के विद्वान के रूप में प्रसिद्ध हुए। वामपंथ एवं अमेरिका की राजनीति में आज वे एक प्रखर बौद्धिक के रूप में जाने एवं प्रतिष्ठित किये जाते हैं।
चॉम्स्की को पेंसिलवानिया विश्वविद्यालय से 1955 में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई। उन्होनें अपने शोध का काफी महत्वपूर्ण हिस्सा हावर्ड विश्वविद्यालय से हावर्ड जूनियर फेलो के रूप में पूरा किया था । उनके डाक्टरेट उपाधि के लिए किया गया शोध बाद में पुस्तकाकार के रूप में 1957 में ‘सिंटैक्टिक स्ट्रक्चर्स’ के रुप में सामने आया, जिसे उस समय तक की श्रेष्ठ पुस्तकों में शुमार किया गया था।
1955 में ही चॉम्स्की मसाचुएट्स तकनीकी संस्थान (MIT) में नियुक्त हुए और 1961 में उन्हें आधुनिक भाषा एवं भाषा विज्ञान विभाग में प्रोफेसर का दर्जा दिया गया। 1966–1976 तक वे फेरारी पी. बोर्ड प्रोफेसर नियुक्त हुए। 2007 की स्थिति के अनुसार वे लगातार 52 वर्षों तक MIT में प्रध्यापन का कार्य कर चुके हैं।
चॉम्स्कीयन भाषाविज्ञान की शुरूआत उनकी पुस्तक ‘सिंटैक्टिक स्ट्रक्चर्स’ से हुई मानी जा सकती है जो उनके पी–एच.डी. के शोध, ‘लाजिकल स्ट्रक्चर्स आफ लिंग्विस्टिक थीयरी’ का परिमार्जित रूप था। इस पुस्तक के द्वारा चॉम्स्की ने पूर्व स्थापित संरचनावादी भाषा वैज्ञानिकों की मान्यताओं को चुनौती देकर ‘ट्रांसफार्मेशनल ग्रामर’ की बुनियाद रखी। इस व्याकरण ने स्थापित किया कि शब्दों के समुच्चय का अपना व्याकरण होता है जिसे औपचारिक व्याकरण द्वारा निरूपित किया जा सकता है और खासकर सन्दर्भ युक्त व्याकरण द्वारा जिसे ट्र्रांसफारर्मेशनल गा्रमर के नियमों द्वारा व्याख्यायित किया जा सकता है।
चॉम्स्की की महानता इससे स्पष्ट हो जाती है कि एक प्रसिद्ध कम्प्यूटर वैज्ञानिक डोनाल्ड क्नूथ तो यहां तक कहते हैं कि चॉम्स्की की किताब से मैं इतना प्रभावित हुआ कि 1961 में अपने साइंटिफिक प्रोजेक्ट के दौरान इसे हमेशा अपने साथ रखता था और सोचता था कि भाषा के इस गणितीय व्याख्या का प्रयोग मैं प्रोग्रामन के लिए कैसे कर सकता हूं।
चॉम्स्की के अन्य कार्यों में एक महत्वपुर्ण कार्य मास मीडिया की व्याख्या का भी रहा है जिसकी वजह से मास मीडिया के क्षेत्र में खासकर अमेरीकी मीडिया और उसके गठन, कार्य प्रणाली एवं सीमाएं काफी खुलकर सामने आयीं और बहस का मुद्दा बन गयीं ।
एडवर्ड सईद एवं चॉम्स्की की किताब ‘मेन्युफैक्चरिंग कांसेट द पॉलिटीकल इकोनॉमी आफ मास मीडिया’ जो 1988 में प्रकाशित हुई, उसमें मीडिया के ‘प्रोपोगैंडा मॉडल’ की विशद् चर्चा की गई और इसकी कई दृष्टांतो के माध्यम से विवेचना की गयी ।

चॉम्स्की को प्राप्त अकादमिक उपलब्धियॉं, सम्मान एंव पुरस्कार–
1. 1969 में जॉन लाक संभाषण, आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय।
2. 1970 में वर्टेड रसेल स्मारक संभाषण, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय।
3. 1972 नेहरू स्मारक व्याख्यान, नई दिल्ली।
4. 1977 हुइजिंग संभाषण, लेदेन।
5. 1997 अकादमिक स्वतंता पर देइप स्मारक व्याख्यान, केपटाउन।

नोम चॉम्स्की को विश्व के निम्नलिखित विश्वविद्यालयों द्वारा मानद उपाधियां भी प्राप्त हैं –
1. लंदन विश्वविद्यालय।
2. शिकागो विश्वविद्यालय।
3. कोलकाता विश्वविद्यालय।
4. दिल्ली विश्वविद्यालय।
5. मसाचुएट्स विश्वविद्यालय।
6 पेंसिलवानिया विश्वविद्यालय।
7 टोरंटो विश्वविद्यालय।
8 एथेंस विश्वविद्यालय।

26 नवंबर 2009

हिन्‍दी में प्रयुक्‍त परसर्गीय पदबंधों का विश्‍लेषणात्‍मक अध्ययन

चन्दन सिंह
पी-एच.डी. हिन्दी (भाषा-प्रौद्योगिकी)
व्याकरणिक नियमों से सुव्यवस्थित भाषा मानव जगत् के व्यवहार का सफल क्रियान्वयन करती है। मानव जगत् के इस मूलभूत तत्व का अध्ययन भाषाविज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है। व्यावहारिक स्तर पर भाषा विश्‍लेषण करने पर विचारों की लिखित या मौखिक अभिव्यक्ति के संदर्भ में वाक्य की महत्ता स्पष्‍ट हो जाती है। वाक्य की संरचना कुछ घटकों- संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया, क्रियाविशेषण, परसर्ग, निपात, अव्यय, संयोजन आदि से होता है। ये घटक तकनीकी शब्दावली में पदंबध कहलाते हैं। पदबंध वस्तुत: एक या एक से अधिक पदों के निबंधन से निर्मित व्याकरणिक इकाई होती है। वाक्य संरचना के विभिन्न घटकों में परसर्ग अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं, क्‍योंकि यह वाक्य संरचना को प्रभावित करते हैं। यद्यपि इनका कोशीय अर्थ तो नहीं होता किंतु इनका व्याकरणिक प्रकार्य महत्वपूर्ण होता है। हिन्दी में 'ने', 'को' ,'से' ,'में' ,'पर' ,'के' मूल परसर्ग कहलाते हैं। इनके अतिरिक्त मिश्र व यौगिक परसर्ग भी होते हैं। परसर्ग ऐसे पदबंधो की रचना करते हैं जो संज्ञा, विशेषण या क्रियाविशेषण की भांति प्रकार्य करते हैं। ये पदबंध परसर्गीय पदबंध कहलाते हैं।
वाक्य संरचना में परसर्गीय पदबंध की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। परसर्गों के स्थान परिवर्तन से पूरी वाक्य संरचना ही बदल जाती है और जब वाक्य संरचना बदलेगी तो निश्चित रुप से उसका अर्थ भी बदलेगा और यह भाषा में एक बड़ी समस्या को उत्पन्न करता है। यथा-'राम ने रावण को मारा।' इस वाक्य में प्रयुक्त परसर्गों 'ने' और 'को' का यदि परस्पर स्थान परिवर्तन कर दिया जाए तो वाक्य का स्वरूप-'राम को रावण ने मारा।' हो जाएगा, जो पूर्व वाक्य के विपरीत अर्थ दे रहा है। इसी प्रकार हिन्दी में परसर्ग में एक और समस्या यह उत्पन्न होती है कि किन परसर्गों का प्रयोग किन अर्थों में करें, जबकि एक ही अर्थ के लिए कई परसर्गों का प्रयोग किया जाता है, यथा -'पर'/के उपर, में/के अन्दर/के भीतर इत्यादि। इनके विपरीत कभी एक ही परसर्ग के अनेक अर्थ निकल आते हैं तथा कभी परसर्ग योग या परसर्ग वियोग से वाक्य विपरीत अर्थ देने लगता है। यथा-'वह विद्यालय से लौट आया' में से यदि 'से' परसर्ग हटा लिया जाए तो वाक्य विपरित अर्थ देगा।
यदि वाक्य संरचना के संदर्भ में परसर्गीय पदबंध की भूमिका पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि परसर्ग संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण या कृदन्त के साथ कुछ नियमों के अधीन बहुतायत में प्रयुक्त होते हैं, किन्तु क्रियाविशेषण शब्दों के साथ इनका प्रयोग अपेक्षाकृत कम होता है। 'ने' परसर्ग तो क्रियाविशेषण-पदबंध की रचना ही नही करता है। वह केवल संज्ञा-पदबंध की रचना करता है, और वह भी केवल कर्ता कारक के साथ । किसी विशेष परिस्थिति में सरल परसर्गों के स्थान पर मिश्र/यौगिक परसर्ग भी प्रयुक्त होकर पदबंध संरचना करते हैं। परसर्गीय प्रयोग की यह वैकल्पिकता यथा-'को'/'के लिए', 'से'/'के साथ', 'पर'/'के उपर', 'में'/'के अंदर'/'के भीतर' आदि उनके संगत संज्ञा पदबंध के व्याकरणिक प्रकार्य से अनुबंधित होती है। उदाहरणार्थ- 'मुझ को नहाना है' के स्थान पर 'मेरे लिए नहाना है' वाक्य असंगत हो जाएगा जबकि 'मैं पढ़ने को जा रहा हूँ' के स्थान पर 'मैं पढ़ने के लिए जा रहा हँ' वाक्य प्रयुक्त हो सकता है। इसी प्रकार वाक्यगत क्रिया या अन्य घटकों द्वारा निर्मित संदर्भ भी परसर्गों के वैकल्पिक प्रयोग का आधार निर्मित करते हैं। उदाहरण स्वरूप 'चोर तेजी से भाग गया' के स्थान पर 'चोर तेजी के साथ भाग गया' सम्भव है, किन्तु 'वह दिल्ली से आया' के स्थान पर 'वह दिल्ली के साथ आया' वाक्य सम्भव नहीं है।
यदि हिन्दी के संदर्भ में कारक व्यवस्था, पदबंध एवं परसर्ग के परस्पर संबंधो पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि संज्ञा पदबंध पर संलग्न परसर्ग उसे एक निश्चित कारक प्रारूप में परिवर्तित कर देता है। अलग-अलग परसर्गों से संयुक्त होने पर एक ही संज्ञा पदबंध अलग-अलग कारकीय संबंधों को द्योतित करता है। यथा-मेरे छात्र से, मेरे छात्र में, मेरे छात्र ने, मेरे छात्र क़ो, मेरे छात्र पर, मेरे छात्र के, मेरे छात्र का, मेरे छात्र के लिए इत्यादि में संज्ञा पदबंध एक है किन्तु भिन्न-भिन्न परसर्ग उसे भिन्न-भिन्न कारकों में परिवर्तित कर देते हैं।
स्पष्‍ट है कि वाक्य के संदर्भ में परसर्गीय पदबंध के संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक आयाम की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।
(एम.फिल. उपाधि हेतु प्रस्तुत लघु शोध-प्रबंध का सारांश)

भाषा-प्रौद्योगिकी से संबंधित लिन्क

सलाम अमित्रा देवी
एम.ए. कम्प्यूटेशनल लिंग्विस्टिक्स
भाषा विद्यापीठ

1-http://en.wikipedia.org/wiki/ psycholinguistics
2- http://en.wikipedia.org/wiki/computional linguistics.
3-http://www.duke.edu /language/psych.htm
4-http://www.i.e.languages.com/linguist.htme
5-http://www.ciil-books.net/htme/lexico/link4.htm

भाषाविदों ने गिराई भाषा की दीवार

योगेश विजय उमाले
एम.ए.-हिन्दी (भाषा प्रौद्यौगिकी)
कहतें हैं विज्ञान के आगे कुछ भी असम्भव नही है। भारत समेत पाँच देशों के वैज्ञानिकों ने मिलकर भाषा की दीवार तोड़ दी है। वैज्ञानिकों ने ऐसा सिस्टम तैयार किया है, जिसकी मदद से अंग्रेजी समेत अन्य किसी भाषा में बोला गया वाक्य तत्काल आपकी मनचाही भाषा में अनुवादित होकर सुनाई पड़ेगा। ''एशियन लैग्वेंज स्पीच ट्रांसलेशन प्रोग्राम'' के अंतर्गत भारत सहित पाँच देशों के वैज्ञानिको ने यह कमाल कर दिखाया हैं।
इस सॉफ्टवेयर की विशेषता यह है कि भले ही दूसरी तरफ से कोई जापानी, इंडोनेशियाई ,थाई, कोरियाई भाषा में बोले लेकिन आपको वह वाक्य हिन्दी में ही सुनाई देगा। ''स्पीच-टु-स्पीच ट्रांसलेशन सिस्टम'' को तैयार करने में भारत की ओर से नोएडा सेक्टर-62 स्मिथ 'सी-डैक' के वैज्ञानिकों की मदद ली गई है। वैज्ञानिक यहीं नहीं रूके हैं वे इस सिस्टम को और आसान बनाते हुए मोबाईल में भी लगाना चाहते हैं। अगर ऐसा हुआ तो वास्तव में एक चमत्कार ही होगा और दुनिया भर में सभी भाषाई दीवारें टूट जाएगी।
जापान, इंडोनेशिया, थाईलैंड, चीन, कोरिया एवं भारत के वैज्ञानिकों ने मिलकर यह सिस्टम तैयार किया है। एशियाई देशों में भ्रमण करते हुए अब न तो वहां की स्थानीय भाषा सीखने की जरूरत है और न ही अनुवादक रखने की। वैज्ञानिकों ने एक विशेष तरह का 'स्पीच-टू-टेक्स्ट' सॉफ्टवेयर तैयार किया है, जिसे कम्प्यूटर में लोड कर दिया जाएगा। यह सॉफ्टवेयर बोले गये वाक्य को उसी भाषा के टेक्स्ट में बदल देगा। बाद में इस टेक्स्ट का उस भाषा में अनुवाद होगा जिसमें सुना जाता है। यह अनुवाद फिर वॉयस में बदल कर मनचाही भाषा में सुनाई देगा। 'सी-डैक' के वैज्ञानिक वी.एन. शुक्ला ने बताया कि यह सिस्टम पुरी तरह से तैयार है।
जुलाई 2009 को जापान, इंडोनेशिया, थाईलैंड, चीन,कोरिया और भारत (नोएडा) में एक साथ प्रयोगात्मक तौर पर इसे परखा गया। इसमें हम हिन्दी में बोलते हैं और इस प्रोग्राम से जुड़े अन्य देशों के वैज्ञानिकों को हमारी ओर से बोली गयी बात वहां की स्थानीय भाषा में सुनाई देती है। वैसे ही उधर से वह अपनी भाषा में बोलते हैं और हमें यहां हिन्दी में सुनाई देती है। यह सब इंटरनेट तथा 'स्पीच-टू-टेक्स्ट' सॉफ्टवेयर की मदद से होता है। इसका उद्देश्‍य है कि लोग एक दूसरे की भाषा को अपने मातृभाषा में आसानी से समझ सकें और जनसंचार के माध्यमों से सभी एशियाई देश एकजुट हो जाएं। 'स्पीच-टू-स्पीच ट्रांसलेशन सिस्टम' को तैयार करने में जापान की एन.आई.सी.टी./ए.टी.आर. थाईलैंड और नेशनल इलेक्ट्रॉनिक एंड कम्प्यूटर टेक्नोलॉजी सेंटर, इंडोनेशिया की बी.पी.पी.टी. चीन के एन.एल.पी.आर.-सी.ए.एस.आई.ए. तथा भारत से सी-डैक के वैज्ञानिक जुड़े हुए हैं।

हिन्दी भाषा का तकनीकी व्याकरण

गोबिन्द प्रसाद
पी-एच.डी. हिन्दी (भाषा-प्रौद्योगिकी)

विश्‍व की प्रत्येक भाषा में लेखन के स्तर पर सम्बन्धित भाषा के व्याकरणिक नियमों का अनुसरण करना पड़ा है, क्योंकि किसी भी भाषा का व्याकरण मुख्यत: ऐसे नियमों के योग से बना होता है जो उस भाषा का संस्कार एवं परिष्‍कार कर उसे उसकी स्वाभाविक प्रकृति के अनुरुप बनाते हैं। विभिन्न व्याकरणिक तत्व ही भाषा की शुध्‍दता-अशुध्दता का द्योतन करते हैं और भाषिक अस्तित्व को कायम रखते हैं।
आज जब की भाषा सामान्य और तकनीकी जैसी कोटियों में विभाजित होने लगी है जाहिर है दोनों प्रकार की भाषाओं के लिए व्याकरणिक भेद भी होता होगा यह भेद क्या है ? वास्तव में तकनीकी भाषा का व्याकरण सामान्य भाषा के व्याकरण से भिन्न कोई चीज है और यदि है तो उसका औचित्य क्या है? और उसकी आवश्‍यकता क्यों है? वर्तमान सन्दर्भ में भाषा का वर्गीकरण निम्नांकित प्रकार से किया जा सकता है-

भाषा

१. सामान्य भाषा
क) मातृभाषा (घर परिवाऱ्में)
ख) बोलचाल की सम्पर्क भाषा (सामाजिक व्‍यवहार में)
२. तकनीकी भाषा
क) साहित्यिक भाषा - साहित्य में प्रयुक्त शास्त्रीय भाषा, दार्शनिक भाषा सभी
साहित्यों के साहित्य अध्ययन हेतु

ख)साहित्येत्तर भाषा-

मानविकी भाषा - इतिहास,राजनीतिक गणित अर्थशास्त्र
व्यावसायिक भाषा - अभियांत्रिक, प्रौद्योगिकी एवं चिकित्सा में उच्चशिक्षा

विज्ञान की भाषा - प्राकृतिक विज्ञानों जैसे-भौतिकी, रसायन उच्चशिक्षा



उपर्युक्त विभाजन के आधार पर भाषा की व्यापकता को देखते हुए कहा जा सकता है कि 'तकनीकी भाषा' नामक शब्द खण्ड एक ऐसा विशिष्‍ट प्रयुक्त क्षेत्र है जिसमें भाषिक अध्ययन की गहन आवश्‍यकता है। प्राय: सभी भाषाओं में इसें अत्यंत एवं महत्वपूर्ण एवं विशेष प्रयुक्ति क्षेत्र माना गया है। पारिभाषिक शब्‍दों की भी अधिकता होती है।
जब हिन्दी भाषा के तकनीकी व्याकरण का सवाल उठता है तो भाषा संरचना के उन केन्द्रों पर अधिक ध्यान देने की आवश्‍यकता होती है जहाँ 'तकनीकीपन' की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है। तकनीकी लेखन में इसकी अनिवार्य आवश्‍यकता होती है, क्योंकि भाषा की प्रकृति को कायम रखते हुए रुढ़ीबध्द शब्दों की सहायता से कथ्य की शुध्दता और प्रासंगिकता प्राप्त की जाती है। अत: भाषा तकनीकी का अलग व्याकरण का औचित्य सिध्द होता है, किन्तु यह भी उल्लेखनीय है कि तकनीकी भाषा का व्याकरण किसी भी सामान्य भाषा के व्याकरण से अलग नहीं हो सकता है। वह उसी का एक अंग हो सकता है और उसी के सामान्य नियमों से परिचालित होता है। फर्क सिर्फ इतना है कि भाषा की तकनीक में सामान्य भाषा के कुछ शब्द और रुपों का प्रयोग प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। प्रसिध्द भाषाशास्त्री प्रो. सुरजभान सिंह भी इसी मत का समर्थन करते हैं। वे लिखते हैं कि ...... यह प्रवृत्ति इतनी प्रबल होती है कि स्थिर तथा रुढ़ हो जाती है। रुढ़ीकरण का यह गुण ही तकनीकी भाषा व्यवस्था का एक भेदक लक्षण हैं । इन रुढीतत्वों और रुपों का विश्‍लेषण और नियमन ही तकनीकी भाषा के व्याकरण की विषयवस्तु हैं। हिन्दी भाषा की तकनीकी शब्दावली निर्माण हेतु गठित शब्दावली आयोग ने शब्द-निर्माण के जिन सर्वसामान्य नियमों और सिध्दांतों का निर्माण किया है । वे भाषा तकनीक में व्याकरणिक व्यवस्था को द्योतन करते हैं। हिन्दी में तकनीकी लेखन विकास और प्रयोग की बाधाओं में एक बाधा संप्रेषण के रुप में भी विद्यमान है। जिसमें यह होता है कि हिन्दी लेखन कला इतनी क्लिष्‍ट होती है कि वह पाठक के समझ में नहीं आती चाहे वह संबन्धित विषय का जानकार हो अथवा नहीं। इसके मुल में भी हमें तकनीकी हिन्दी व्याकरण की समस्या परिलक्षित होती है । क्योंकि किसी निश्चित व्याकरणिक व्यवस्था के अभाव में हिन्दी भाषा में तकनीकी लेखन के स्तर पर स्वेच्छैचारिता देखने को मिलती है । लिंग, वचन, कारक, वर्तनी और शब्द चयन तथा निर्माण स्तर के आधार पर प्रान्तीयता की स्पष्‍ट झलक दिखती है। इतना ही नहीं शब्दावली निमार्ण के सिध्दातों का मनमाने ढंग से उपयोग भी और जटिल बना देता है।
आधुनिक हिन्दी भाषा का तकनीकी विकास स्वाभाविक रुप में न हो कर नियोजित रुप में हुआ है। इसके अधिकांश नवनिर्मित शब्द मौलिक ज्ञान और चिन्तन से सीधे न जुड़कर एक मध्यस्थ भाषा अंग्रेजी के माध्यम से जुड़ा है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव तकनीकी भाषा की शाब्दिक तथा व्याकरणिक संरचना पर पड़ा है । हिन्दी भाषा का तकनीकी व्याकरण संरचना और शैली का एवं दुसरा महत्वपूर्ण प्रभाव अनुवाद की भाषा का है। क्योंकि हिन्दी में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की तकनीकी भाषा शैली और अभिव्यक्ति का प्रयोग सर्वप्रथम भाषा चिन्तकों के स्तर पर नहीं अपितु अनुवादकों के स्तर पर हुआ। ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि हिन्दी की अधिकांश वैज्ञानिक तथा तकनीकी पुस्तकों में जो भाषा रुप और शैली अभिव्यक्त और विकसित हुई है उसमें जहाँ एक ओर अंग्रेजी संरचना की छाप है वहीं दुसरी ओर अनुवादकों और लेखकों की सामर्थ्य की सीमाएँ भी दिखाई देती हैं ।
निष्‍कर्षत: यह कहा जा सकता है सामान्य हिन्दी की भाँति तकनीकी हिन्दी के समुचित व्याकरण का विकास होना आवश्‍यक है। जिसमें वाक्य संरचना, उपसर्ग, प्रत्यय लगाकर शब्दनिर्माण तथा अन्य व्याकरणिक कोटियों से संबंन्धित कारकीय संबंध का बोध हो सके और अभिव्यक्ति के स्तर पर एकरुपता लाई जा सके। इससे हिन्दी भाषा में तकनीकी शब्दों के प्रयोग का मार्ग प्राप्त होगा।

भाषा-प्रौद्योगिकी की अवधारणा तथा उद्भव

शिल्पा
एम.ए.-हिन्दी (भाषा-प्रौद्योगिकी)
सामुहिक रूप से रहने की प्रवृत्ति तथा भाषा का विकास ये दो ऐसे कारण हैं, जिन्होनें मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग करते हुए एक सामाजिक तथा संस्कृतियुक्त प्राणी बना दिया। भाषा के कारण ही मनुष्य में सोचने तथा विचार करने की शक्ति आई और धीरे-धीरे ज्ञान की शाखाओं का विस्तार हुआ। मनुष्य किसी भी वस्तु के संबंध में व्यवस्थित वैज्ञानिक अध्ययन करता आ रहा है।
मानव द्वारा किये गये अविष्कारों तथा खोजों में आग, विद्युत ऐसे हैं, जिनका उपयोग न करने पर वह अब भी आदिमानव की श्रेणी में चला जाएगा। विद्युत के अविष्कार के साथ ही प्रौद्योगिकी को एक नई दिशा मिली क्योंकि प्रौद्योगिकी वैज्ञानिक अध्ययन सिध्दांतो के क्षेत्र में अनुप्रयोग है। भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन करने वाली ज्ञान की शाखा भाषा-विज्ञान है। कम्प्यूटर में भाषा के अनुप्रयोग के लिए भाषाविज्ञान के सिध्दांतों की आवश्यकता पड़ी। इस प्रक्रिया को व्यापक पैमाने पर सम्पन्न करने वाली ज्ञान की शाखा को भाषा प्रौद्योगिकी कहा जाता है।
अवधारणा- भाषा प्रौद्योगिकी भाषा और प्रौद्योगिकी का सम्मिलित रूप नही है, बल्कि यह तो भाषा-विज्ञान (लिंग्विस्टिक्स) के सिद्धांतों का प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अनुप्रयोग है। यह भाषा की व्यवस्था में निहित नियमों तथा उसकी संरचना का गहन विश्लेषण करता है। भाषा में प्रयुक्त वाक्यों आदि के घटकों के विश्लेषण स्वनिम, रूपिम, शब्द, उपवाक्य, आदि रूप में होते हैं। नये वाक्यों की रचना संभव होती है।
इन नियमों तथा सिध्दांतो का प्रयोग प्रौद्योगिकी के साधनों, संगणक, मोबाईल, तथा रोबोट आदि में करने के लिए जिस ज्ञान के शाखा की आवश्यकता पड़ी उसे हम ’भाषा प्रौद्योगिकी’ कहते हैं। इसमें अभिकलनात्मक भाषाविज्ञान, कृत्रिम बुद्धि, अर्थ विज्ञान, गणित, तर्कशास्त्र, दर्शन आदि अन्य क्षेत्र भी सहायता करते हैं।

अनुवाद में भाषाविज्ञान का महत्व

मधुप्रिया
एम.ए.-हिन्दी (भाषा प्रोद्योगिकी)
भाषा परंपरागत और अर्जित संपत्ति है। जिस प्रकार मनुष्य पारम्परिक विचार-विनिमय से लाभान्वित होता है। उसी प्रकार भाषा का विकास भी आदान-प्रदान से होता है। अर्जन की प्रकृति के कारण भाषा का विकास और परिष्कार होता है। आज बहुभाषिकता की दुनिया में अनुवाद कार्य दो भिन्न भाषा भाषियों के बीच सेतु के समान है। आज ज्यों-ज्यों संसार के विभिन्न भागों के लोग एक दूसरे के निकट आ रहे हैं तथा भाषाओं एवं राजनीति की सीमाओं को भुलकर एक दूसरे को समझने, जानने का प्रयत्न कर रहे हैं त्यों-त्यों अनुवाद एक आवश्यक सेतु के रूप में प्रयोग होता है। भाषा परिवर्तनशील है और यह परिवर्तन कई कारणों से होता है फलत: भाषा में नये शब्दों का निमार्ण भी होता है नए शब्द या तो उसी भाषा के आधार पर या दूसरी भाषा से अनुदित होकर प्रयोग में लाए जाते हैं। इस परिवर्तन से भाषा की अभिव्यंजना शक्ति, माधुर्य तथा ओज की दृष्टि से उँची उठ सकती है या नीचे भी जा सकती है।
वैश्वीकरण के युग में अनुवाद की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गयी है जब से पश्चिमी देशों से परिचय हुआ है। सभी देशों की भाषा जनसामान्य तक पहुंचाने का एक ही माध्यम है- अनुवाद । प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं है कि वह एक या दो से अधिक भाषाएं भली भांति सीख सके इसलिए यह आवश्यक है कि उनके लिए वैज्ञानिक तथा तकनीकि साहित्य अपनी भाषा में उपलब्ध कराया जाए।
अनुवाद और भाषाविज्ञान का सीघा संबंघ है। अनुवाद भाषांतरण की एक प्रक्रिया है, जिसमें स्त्रोत भाषा की विषय वस्तु को लक्ष्य भाषा में रूपांतरित किया जाता है। मशीनी अनुवाद तो भाषा-विज्ञान की देन है। आज सूचना प्रौद्योगिकी के बढ़ते युग में अनुवाद का महत्व और बढ़ गया है। अत: अनुवाद करते समय भाषा विज्ञान की दृष्टि से अनुवाद को बहुत सावधानी रखनी होती है। अनुवाद करते समय मूल पाठ को महत्व देते हुए अनुवाद करना होता है। अनुवाद को लक्ष्य भाषा में अभिव्यक्ति करते समय जहाँ मूल पाठ के भाव को सुरक्षित रखना होता है वहीं वाक्यविन्यास, लक्ष्य भाषा की संरचना, प्रकृति और प्रयोग के अनुरूप प्रस्तुत करना होता है। संपूर्ण अनुवाद में अनुवादक को स्त्रोत भाषा के शैली को सुरक्षित रखते हुए रचना के समग्र प्रभाव को कायम रखना होता है। अभिव्यक्ति में मानकीकृत वर्तनी तथा शब्दावली की एकरूपता का ध्यान रखना होता है।
इन सावधानियों के बाद भी एक अच्छे अनुवाद से विषय विशेष से संबंधी अनेक अपेक्षाएं रखी जाती हैं। विभिन्न क्षेत्र के विषय में अनुवाद करते समय एक अच्छे अनुवादक को संबंधित विषय का विशेष ज्ञान रखना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि विज्ञान या गणित से संबंधित विषय है, तो अनुवादक को इस विषय का विशेष ज्ञान रखना चाहिए।
अनुवाद में लिप्यंतरण का भी विशेष महत्व है और अनुवादक को लिप्यंतरण पद्धति को अपनाना चाहिए। लिप्यंतरण का वैज्ञानिक अनुवाद में विशेष महत्व है। जो लोग वैज्ञानिक प्रक्रिया से जुड़े हुए हैं वे अनुवाद के धरातल पर अग्रेंजी और हिन्दी की विज्ञानपरक अनुवाद स्थिति से भली भांति परिचित होगें । जिस गति से अंग्रेजी में विज्ञान लेखन हो रहा है उस गति से वैज्ञानिक अनुवाद नहीं । अत: अनुवाद में किसी भाषा के क्लिष्ट शब्द को अपनाने के स्थान पर मूल भाषा के शब्दों में ही लिप्यंतरित करने की जरूरत जिससे विद्यार्थी के मन में शब्दों को लेकर भ्रम की स्थिति न उत्पन्न हो। उदाहरण के लिए-
इलेक्ट्रॉन
प्रोटॉन
इन शब्दों को यदि हिन्दी के शब्दों में रूपांतरित किया जाए तो भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। अनुवाद में सांस्कृतिक शब्दों का चयन भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। अंग्रेजी शब्द प्रोसीजन के सांस्कृतिक और सामाजिक अनेक अर्थ हैं। प्रोसीजन अधिकांशत: राजनीतिक पृष्ठभूमि में अत्यधिक होते हैं। राजनीतिक संदर्भ में प्रोसीजन का अर्थ प्राय: जुलूस या प्रदर्शन माना जाता है। लेकिन मॅरेज प्रोसीजन में प्रोसीजन के लिए 'बारात' शब्द अधिक सटीक है। अनुवाद में अर्थ विश्लेषण भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। अर्थ विश्लेषण करते समय अर्थ परिवर्तन की दिशाओं पर अनुवादक को अवश्य ध्यान देना चाहिए। यह अर्थ देश, काल, परिस्थिति और प्रयोजन सापेक्ष हो सकता है। अनुवाद का अर्थ विश्लेषण करते समय अनुवादक को विषय संबंधित शब्द का अच्छा ज्ञान होना चाहिए।
अत: आज के युग के मांग की उपज 'अनुवाद' है। संसार का समग्र ज्ञान पाने के लिए जीवन सीमित है और यह समग्र ज्ञान-विज्ञान किसी एक भाषा में समाहित नहीं है। ऐसी स्थिति में अनुवाद का अपना विशेष महत्व है जिसकी कल्पना भाषा के बगैर नहीं की जा सकती।

स्वाभिमान, अभिमान और हम

सत्येंद्र कुमार
पी-एच.डी.-हिन्दी (भाषा प्रौद्यौगिकी)
स्वाभिमान कब अभिमान व अभिमान कब स्वाभिमान बन जाता है अक्सर लोगों को इसका आभास तक नहीं चलता और बात आकर रुक जाती है अपने प्रभुत्व, स्वामित्व पर कि हम कैसे इसकी स्थापना इनके मूल्यों के मानदंडों पर करें जिसका सर्वसाधारण से कोई सरोकार नहीं होता। हम यह भूल जाते हैं कि हमारा अस्तित्व केवल हमसे नहीं वरन हमसे जुड़े लोगों के चलते भी है, पर ’स्व’ की विशिष्‍टताओं के लिए हम इतने स्वार्थी और सरोकारी बन जाते हैं कि किसी भी स्वांग को अपनाने के लिए तैयार हो जाते हैं। वैश्‍वीकरण और उत्तर आधुनिकता के इस दौर में हम अपनी पहचान बनाने के लिए दूसरों के हितों का दोहन और शोषण करते हैं जिसमें मानवीय मुल्यों का क्षरण होता है यह क्षरण उस तीसरी दुनिया का निर्माण करती है जो कि पीड़ितों और शोषितों की दुनिया है। हम अपने स्वाभिमान या अभिमानवश जिसमें कई बार कोई अंतर नही देखा जाता। स्वार्थवश दुसरों की तकलीफ को अपने मनोरंजन से जोड़कर देखते हैं।इस बात से स्पष्‍ट होता है कई समाज में कुछ ऐसे अराजक व असामाजिक तत्व पल रहे हैं जो तथाकथित संभ्रात वर्ग से होते हैं जिनकी छत्रछाया मे ’आतंकवाद’ जैसे कितने ’वाद’ पलते हैं और जन्म लेते हैं। दरअसल स्वाभिमान और अभिमान दो ऐसे शब्द हैं जिन्हें व्यक्ति अपने सरोकार के निमित्त सहुलियत के हिसाब से प्रयोग में लाते हैं और केवल अभिजात वर्ग के लोग इसकी व्याख्या के बिंदुओं को निर्धारित करते हैं। जिसमें मानवता की लाश पर दानवता का तांडव, करुणा के स्वांग पर निर्ममता का वरण, पीड़ा की कराह पर मनोरंजन का वादन निर्मित किया जा रहा है। हमें अमानवीयकरण की प्रक्रिया में ग्लोबलाइजेशन, पोस्ट मॉडर्निजम में कहाँ स्थान मिलता है और कब तक...

वैश्‍वीकरण और सूचना प्रौद्योगिकी का भाषा पर प्रभाव

सुमेध हाड़के
एम.ए.-हिन्दी (अनुवाद-प्रौद्योगिकी)
बीसवीं सदी का विश्‍व मौलिक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। औद्योगिक क्रान्ति की आधारशिला वाली अर्थव्यवस्था से आज विश्‍व एक ऐसी अभिनव अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहा है जिससे समाज वैश्‍वीकरण की ओर प्रवेश कर चूका है। वैश्‍वीकरण का केन्द्रीय तत्व है- सूचना और ज्ञान की विश्‍वव्यापी सर्वसुलभता साधनों का वाणिज्यीकरण और प्रौद्योगिकी आश्रित कार्यक्रमों का उपकरण के रुप में अधिक से अधिक विकास करना है। सूचना प्रौद्योगिकी के युग में भाषा को मनुष्‍य की आवश्‍यकताओं के अलावा मशीन कम्प्यूटर को नित नई मांगों को पूरा करना पड़ रहा है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आज भाषा से अधिक प्रौद्योगिकी का महत्व बढ़ रहा है। लेकिन ज्ञान-विज्ञान के लिए भाषा के माध्यम से ही आगे बढ़ा जा सकता है। भाषा विज्ञान के क्षेत्र विशेष में भाषा के अध्ययनों का विकास हुआ जो किसी न किसी रुप में प्रौद्यागिकी तक जा पहुंचा है और भाषा की प्रकृति अर्थ संभावनाओं पर चिन्तन कर भाषा की गहराईयों का पता लगाया जा रहा है।
भाषा की संरचना सौष्‍ठव से अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है। सूचना का संरक्षण, सम्प्रेषण और दुसरी और शब्द रचना के व्याकरणिकरण के कारण भाषा में सुबोधता और प्रयोग में सुलभता आई है। ई-मेल, मोबाईल संदेश और विज्ञापन में प्रयुक्त भाषा-रुप इसके उदाहरण हैं। अत: भू-मंडलीकरण तथा आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से भाषा का स्वरुप बदल गया है ।



1.अर्थ का बदलता आयाम :
आज जिस तेज गति से कम्प्यूटर और सूचना-प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नित नये उपकरण नई संकल्पनाएँ और नयी व्याख्या सामने आ रही है, उसी तेजी से नये शब्दों में भी निरंतर वृद्धि हो रही है। शब्द और अर्थ के बीच द्वंद्व की स्थिति पैदा हो रही है।

2. शब्द निर्माण का बदलता आयाम :
कम्प्यूटर टेक्नोलोजी का एक महत्वपूर्ण प्रभाव भाषा की शब्दावली और शब्द-निर्माण प्रक्रिया पर पड़ रहा है। कम्प्यूटर और सूचना प्रौद्योगिकी स्वयं अंग्रेजी भाषा की शब्दावली, शब्द रचना पद्धति और अभिव्यक्ति शैली में एक अभूतपूर्व क्रान्ति ला चूकी है। अभी तक सामान्यत: शब्द निर्माण के लिए प्रत्यय, उपसर्ग के योग से अर्थात संश्‍लेषणात्मक पद्धति का अनुसरण किया जाता था और नये शब्दों का निर्माण किया जाता था। जैसे- Orthopaedics,Dermatology, Metamorphosis, Ophthalmology Gynaecology आदि अनेक भाषाओं में शब्दनिर्माण की संश्लिष्‍ट पद्धति कहलाती है। जिसका अनुसरण संस्कृत ,हिन्दी तमिल आदि अनेक भाषाओं में परम्परागत रूप से किया जाता रहा है।
कम्प्यूटर वैज्ञानिकों के द्वारा भाषा को अधिक आसान तथा आकर्षक बनाया गया ताकि भाषा के माध्यम से आम आदमी भी नजदीक आए। दरअसल आज कम्प्यूटर की शब्दावली को गढ़ने की बजाए उसे विस्तार करने की अधिक जरुरत है जिसे हिन्दी में रचित कम्प्यूटर साहित्य और सॉफ्टवेयर सामान्य प्रयोक्ताओं को बोधगम्य हो सकें।
3. भाषा का मानकीकरण :
कम्प्यूटर भाषा से कई अपेक्षा करता है जिनमें सबसे पहला है भाषा का मानकीकरण। इसके अंतर्गत भाषा की लिपि, वर्तनी, शब्दावली और प्रतीक आदि का मानकीकरण शामिल है। मानकीकरण के दो प्रमुख सोपान कोडीकरण और विस्तारीकरण हैं। कोडीकरण का तात्पर्य भाषा में एक ही प्रकार्य के लिए प्रयुक्त रुपों की विविधता को कम-से-कम करना। जैसे हम हिन्दी में एक ही वर्ण को दो या अधिक रुप में लिखतें हैं तो इनमें से एक ही रुप को मानक स्वीकार करें जैसे हिन्दी/हिंदी। भाषा मानकीकरण प्रक्रिया का दूसरा सोपान विस्तारीकरण है, भाषा व्यवहार के अधिक से अधिक क्षेत्र में इन मानकीकृत रूपों का व्यापक प्रयोग सुनिश्चित करना दूसरे शब्दों में, एकाधिक विकल्पों में से किसी एक विकल्प का चयन करके उसे रुढ़ कर देना ही मानकीकरण के लिए प्राप्ति नहीं है इस प्रक्रिया में शब्दों का प्रयोग परीक्षण भी होता है और इन्हें समाजिक स्वीकृति या अस्वीकृति भी मिलती है।
भाषा का संबंध समाज से होने के कारण सामाजिक भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले शब्दों में सामाजिक परिस्थितियों के सापेक्ष निरंतर बदलाव एक स्वभाविक एवं चिरंतन प्रक्रिया है। अंग्रेजी भाषा में हिन्दी तथा देवनागरी लिपि की तुलना में लाख कमियाँ होने के बावजुद उसके अंतरराष्‍ट्रीय विस्तार एवं स्वीकार्यता के पीछे इस तथ्य ने काम किया है। लेकिन इनमें सूचना प्रौद्योगिकी का काफी प्रभाव पड़ा है, जो एशियाई पड़ोसी जापान, कोरिया ,हांगकांग, चीन की तुलना में भारत अपने विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी शोध समुदाय को अन्तरराष्ट्रीय स्तर का आंकड़ा उपलब्ध कराने में काफी पीछे हैं। 1980 के दशक के राष्ट्रीय स्तर पर कुछ आंकड़ा संचय सुविधाओं का स्थापना करके कुछ प्रगति जरुर हुई थी। यद्यपि इससे अनुसंधानों को कुछ हद तक आंकड़ा संचय सुविधाएं उपलब्ध हो गयी किन्तु यह अपेक्षा से काफी कम हुई थी।
निष्‍कर्षत: यह कह सकते हैं कि सूचना-प्रौद्योगिकी ने वैश्‍वीकरण के दौर में भाषा संप्रेषण को ज्यादा महत्व दिया है जिसके कारण संचार व्यवस्था में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं। ऐसी अपेक्षा की जा सकती है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विद्यमान भाषा की समस्या को सुलझाने के लिए संगणक एवं प्रौद्योगिकी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। भारतीय वैज्ञानिक समुदाय अपेक्षित उद्देश्‍य के लिए सफलतापूर्वक इसका उपयोग करे तो भाषा की समस्या दूर हो जाएगी।