18 फ़रवरी 2010

भाषा की विभिन्न भूमिकाएँ

प्रो. देवी शंकर द्विवेदी

कुछ बातों में भाषा की तुलना व्यक्ति से की जा सकती है। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति कई भूमिकाएँ निभाता है या कई व्यक्ति एक ही भूमिका निभाते हैं, उसी प्रकार एक भाषा भी कई भूमिकाएँ निभा सकती हैं और कई भाषाएँ एक भूमिका निभा सकती हैं। कोई व्यक्ति पुत्र होता है, पिता होता है, भाई होता है, मित्र होता है, अध्यापक होता है। ये उस व्यक्ति की भूमिकाएँ हैं जिसमें कोई अन्तर्विरोध नहीं है। अनेक व्यक्ति एक साथ पुत्र होते हैं, पिता होते है, भाई होते हैं, मित्र होते हैं, अध्यापक होते हैं, इसमें से प्रत्येक भूमिका अनेक व्यक्ति निभाते हैं और इसमें भी कोई अन्तर्विरोध नहीं है।यदि हम किसी व्यक्ति को बड़ा ,लम्बा या मोटा आदमी कहते हैं तो उसके किसी पक्ष पर प्रकाश डालते हैं।किसी व्यक्ति पर यह तीनों विशेषण लागू होते हैं,किसी पर दो,किसी पर एक और किसी पर एक भी नहीं। पं.जवाहरलाल नेहरू ‘बड़े आदमी थे,किंतु ‘लम्बे’ या ‘मोटे’ आदमी नहीं थे। बादशाह खान ‘बड़े’ और ‘लम्बे’ आदमी थे,किंतु ‘मोटे’ आदमी नहीं थे। पं.गोविंदवल्लभ पन्त ‘बड़े’ आदमी थे,‘लम्बे’ भी थे और ‘मोटे’ भी थे।हम लोगों को राह चलते सैकड़ों लोग ऐसे दिखते हैं जो न तो ‘बड़े’ आदमी होते हैं, न ‘लम्बे’ आदमी ,न ‘मोटे’ आदमी होते हैं। भाषा के संदर्भ में कई शब्दों का प्रयोग होता है; मातृभाषा, राष्ट्रभाषा, राज्यभाषा, संपर्क भाषा इत्यादि। किसी प्रसंग में एक ही भाषा के द्वारा इनमें किसी एक या एकाधिक भूमिकाओं का निर्वाह संभव है। यहां इसका अर्थ स्पष्ट कर देना उचित होगा क्योंकि कई बार इनके प्रयोग में भ्रान्ति पाई जाती हैं।
मातृभाषा
जो भी व्यक्ति कोई भाषा बोलता है, उसकी एक मातृभाषा अवश्य होती है मातृभाषा वह नहीं होती जो व्यक्ति जन्म के समय लेकर आता है क्योंकि उस समय की भाषा वस्तुतः केवल ‘भाषा सीखने की मानवोचित क्षमता’ होती है जो हमारी मानव-जाति में एक जैसी होती है। इसमें एक रूपरेखा-मात्र होती है जिसमें मनुष्य जन्म के बाद ध्वनियों, शब्दों, वाक्यों, अर्थों और इन सबके प्रकारों के रंग भरता है। मातृभाषा वह भी नहीं होती जो किसी की माँ की भाषा थी या माँ के अभाव में माँ की भाँति लालन-पालन करने वाली किसी दूसरी स्त्री की भाषा थी। मातृभाषा का अर्थ यह भी नहीं है कि हम उस भाषा को माँ की भाँति पूज्य मानें। मातृभाषा वह होती है जो हम जन्म के पहले-पहल सीखते हैं। जिस प्रकार किसी भी व्यक्ति की जननी उसके जीवन में सर्वप्रथम आने वाली नारी होती है या यों कहें कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में सर्वप्रथम आने वाली नारी उसकी जननी या माँ होती है, उसी प्रकार किसी भी व्यक्ति के जीवन में आने वाली सर्वप्रथम भाषा उसकी मातृभाषा होती है। जिस प्रकार व्यक्ति सामान्यतः अपनी माता की संदर्भ बिन्दु मानकर शेष सृष्टि को जानना-समझना आरंभ करता है, उसी प्रकार वह नैसर्गिक रूप से अपनी मातृभाषा का संदर्भ-बिन्दु मानकर अन्य भाषाओं को सीखता-समझता है। किसी एक व्यक्ति की दो जननियाँ नहीं होती(क्योंकि सौतेली माँ ‘जननी’ नहीं होती) लेकिन एक व्यक्ति की दो मातृभाषाएँ हो सकती हैं। यदि शिशु शैशव में ही दो भाषाएँ साथ-साथ सीखता है तो वे दोनो उसकी मातृभाषाएँ हैं। ऐसा होने पर शिशु आरंभ में दोनों भाषाओं में मिश्रण भी करता है लेकिन धीरे-धीरे उनका पार्थक्य स्थापित कर लेता है। भाषाएँ सीखने में पहले एक-दो शब्द या एक दो वाक्य किस भाषा के बोले गये हैं; इस बात को महत्व देकर किसी एक भाषा को मातृभाषा मानना और दूसरी को न मानना गलत होता है। दो मातृभाषाओं की स्थिति प्रायः दो भाषा-क्षेत्रों के संयुक्त सीमा-प्रदेशों में मिलती है जब शिशु दोनों भाषाओं के बोलने वालों के संपर्क में आता है, अन्य प्रदेशों में भी ऐसा संभव है जब शिशु दो भिन्न- भिन्न भाषाएँ बोलने वालों के भाषायी सम्पर्क में लगभग समान मात्रा में रहता है।
राष्ट्रभाषा बनाम राजभाषा
राष्ट्रभाषा प्रायः राष्ट्र के भीतर की अपनी भाषा होती है, बाहर से आई हुई परराष्ट्रीय भाषा नहीं होती। सैद्धांतिक रूप से काल्पनिक आधार पर यह माना जा सकता है कि यदि कोई राष्ट्र किसी परराष्ट्रीय भाषा को अपने ही राष्ट्र की भाषा के रूप में स्वीकार कर लें तो उसे राष्ट्रभाषा माना जाएगा क्योंकि उसकी परराष्ट्रीयता इस संदर्भ में एक ‘ऐतिहासिक’ तथ्य-मात्र बनकर रह जाएगी। किंतु ऐसी स्थिति में सामान्यतः काल्पनिक जगत् में ही प्राप्य है। किसी भाषा के ‘राष्ट्रभाषा’ होने की अनिवार्य शर्त यह है कि वह न्यूनाधिक अंशो में सारे राष्ट्रों में व्याप्त हो । राष्ट्रभाषा स्वतः इस पद पर आसीन हो जाती है । इसके लिए किसी आदेश या विधि-विधान की आवश्यकता नहीं पड़ती। धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक संदर्भों में राष्ट्र के भिन्न-भिन्न भाषाभाषी समुदाय परस्पर संपर्क में आने पर प्रायः जिस भाषा का उपयोग सहज ही करते हैं , वह उस राष्ट्र की राष्ट्रभाषा होती है । गुजराती मातृभाषा वाले महात्मा गांधी ने इस तथ्य का अन्वेषण मात्र किया था कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है; इन्होंने इस तथ्य को ईमानदारी के साथ स्वीकार किया था और निःस्वार्थ देश-सेवा की भावना के अधीन इस तथ्य का प्रसार किया था, लेकिन उन्होने इस तथ्य का आविष्कार या आदेश नहीं किया था। उनकी प्रेरणा से स्थापित अहिंदी भाषी राज्यों की ‘राष्ट्रभाषा’ प्रचार समितियाँ हिंदी का प्रचार करती थीं क्योंकि यह सर्वमान्य तथ्य था कि राष्ट्रभाषा तो एक ही है ; उसका नाम संस्था के नाम में जोड़ने की क्या आवश्यकता है?
कुछ लोग कहते हैं कि गुजराती , उड़िया आदि भी तो राष्ट्रभाषाएँ हैं, यदि नहीं तो क्या वे अराष्ट्रीय हैं? कुछ लोग कहते हैं कि हिंदी राष्ट्रभाषा है, गुजराती आदि राष्ट्रीय भाषाएँ हैं ये अंतर कृत्रिम और भ्रामक हैं। यदि गुजराती राष्ट्रभाषा रही होती तो महात्मा गांधी किस ‘भावना’ के अधीन ऐसा कहते हिचकते? यदि गुजराती आदि राष्ट्रीय भाषाएँ हैं तो हिंदी राष्ट्रीय भाषा क्यों नहीं है? वास्तविकता यह है कि ‘राष्ट्रभाषा’ शब्द का प्रयोग एक पारिभाषिक अर्थ में होता है जिसका निर्देश ऊपर किया गया है । गुजराती , उड़िया आदि भारत ‘राष्ट्र की भाषाएँ’ हैं जिनमें हिंदी भी आती है। हिंदी “राष्ट्रभाषा” भी है। यह बात उसी प्रकार की है, जैसे मनुष्य शरीर के घटको में त्वचा और कान दोनों परिगणित होते हैं। लेकिन त्वचा सारे शरीर को आच्छादित करती है जब कि कानों का सीमित और निर्धारित स्थान है। दोनों ही हमें प्रिय है, किन्तु दोनों का प्रसार क्षेत्र तो अलग-अलग मानना पड़ेगा। जिसे अपनी त्वचा प्यारी होती है, वह कान कटवाने के लिए उद्यत नही घूमता।

कोई भाषा राजाज्ञा से राजभाषा बनती है। राजसत्ता राज काज के लिए जिस भाषा का निर्देश करती है, उसे राजभाषा कहा जाता है। कुछ लोग राजभाषा के अर्थ में ’राष्ट्रभाषा’ शब्द का प्रयोग करते हैं। जो अशुद्ध है (यद्यपि ‘राष्ट्रभाषा’ के अर्थ में ‘राजभाषा’ शब्द का प्रयोग नहीं करता) भारत के स्वतन्त्र होने से पहले हिन्दी राष्ट्रभाषा तो थी राजभाषा वह नहीं थी। भारतीय संविधान ने हिन्दी राष्ट्रभाषा को भारत की राजभाषा के पद पर भी आसीन कर दिया। उससे पहले अंग्रेजी राजभाषा थी यद्यपि वह राष्ट्रभाषा कमी नहीं थी, न है। अंग्रेजी से पहले फारसी भी राजभाषा रह चुकी है, यद्यपि वह भी कभी राष्ट्रभाषा नहीं रही।
हिन्दी की स्थिति भारत की राजभाषा के पद पर दुर्बल करने के लिए जो प्रयास होते रहे हैं, वे सर्वविदित हैं। हिन्दी को भारत की सह राजभाषा बनाना ,फिर उसे इस पद पर दीर्घ , दीर्घतर काल तक प्रतिष्ठित रखने का प्रयत्न करना इसी प्रक्रिया का अंग रहा है। राष्ट्रभाषा के पद पर उसकी स्थिति को दुर्बल प्रतिपादित करना भी इसी प्रक्रिया का एक अंग रहा है। वर्षों तक यह प्रचार प्रबलता के साथ किया गया कि भारत के कई राज्यों में हिन्दी जानने वाला नहीं मिलता जब कि अंग्रेजों का ज्ञान रिक्शे तांगेवालों और कुलियों तक को है। इस प्रकार के प्रभाव से मैं स्वयं इस बात पर विश्वास करने लगा था। अनेक अनुभवों ने मेरी आंखें खोलीं और मुझे पता चला कि यह प्रचार मिथ्या है। मेरे ये अनुभव रोचक हैं। वैविध्यपूर्ण हैं और ज्ञानवर्द्धक हैं।
राज्यभाषा
‘राज्यभाषा’ एक ऐसा शब्द जिसका प्रयोग कुछ लोग करते हैं और प्रायः त्रुटिपूर्ण अर्थ में करते हैं। किसी राज्य में बोली जाने वाली भाषा को राज्यभाषा कहा जा सकता हैं, उसी प्रकार जैसे किसी राष्ट्र में बोली जाने वाली भाषा को राष्ट्रभाषा कहा जाता है। राज्यभाषा का प्रसार राज्य भर सर्वत्र होना चाहिए। यदि राज्य की राज्यसत्ता उसे राज काज की भाषा भी बना ले तो वह उस राज्य की ‘राजभाषा’ भी हो जाती है। पंजाबी और तामिल आज पंजाब और तमिलनाडु की राजभाषाएँ हैं, पहले उनके इस पद पर अंग्रेजी आसीन थी। लेकिन पंजाबी और तमिल, पंजाब और तमिलनाडु में राज्यभाषा पद सदैव विद्यमान थी, अंग्रेजी उनका यह स्थान कभी नहीं ले पाई। हिन्दी उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान की राज्यभाषा भी है और इन राज्यों की राजभाषा भी थी।
सम्पर्क भाषा
दो भिन्न भिन्न भाषा-भाषी समुदायों में पारस्परिक सम्पर्क के लिए जो भाषा अपनाई जाती है,उसे सम्पर्क भाषा कहते हैं। यह सम्पर्क भाषा उन दोनों भाषा-भाषी समुदायों में से किसी एक की अपनी ही भाषा हो सकती है। और कोई तीसरी भाषा भी सम्पर्क भाषा की भूमिका निभा सकती है। दो समुदायों में एक से अधिक सम्पर्क भाषा भी हो सकती है। जिनका प्रयोग यादृच्छिक तौर पर या प्रसंग भेद के अनुसार या सामाजिक स्तर और पृष्ठभूमि के अधार पर वितरित होता है। हिन्दी समाज और गुजराती समाज के बीच विचार विनिमय यदि प्रायः हिन्दी में होता है तो हिन्दी उनकी सम्पर्क-भाषा है। संभव है कि किसी सामाजिक स्तर पर इन दोनों समुदायों में एक तीसरी ही भाषा अंग्रेजी भी सम्पर्क भाषा की भूमिका निभाती हो। सम्पर्क भाषा का निर्धारण जनता स्वयं ही कर लेती है। राजसत्ता भी इस दिशा में निर्देश दे सकती है। राष्ट्रभाषा बनने की दिशा में अग्रसर कोई भी भाषा अनिवार्य रूप से सम्पर्क भाषा का काम करती हुई चलती है। इस कार्य में अन्य भाषाएँ उसकी सहायक हो सकती हैं।
विश्व भाषा
यदि हम यह मानकर चलें कि किसी भाषा को विश्व भाषा कहने के लिए यह आवश्यक है कि वह समग्र विश्व भाषा में व्याप्त हो तो यह बात व्याहारिक नहीं है। इस अर्थ में कोई भी भाषा आज विश्व नहीं कही जा सकती है। विश्वभाषा कहलाने के लिए किसी भाषा के दो लक्षण आवश्यक हैं। एक तो, वह कम से कम एक देश की राष्ट्रभाषा हो। दूसरे कम से कम एक अन्य देश में भी उसे बोलने वाले पर्याप्त संख्या में विद्यामान हो। यह दूसरा प्रतिबन्ध अंतरराष्ट्रीयता लाने के लिए अनिवार्य है,क्योंकि एक देश की सीमा के परे जाना भाषा को विश्वोन्मुख बनाने के लिए आवश्यक है। हिन्दी एक विश्व भाषा भी है क्योकि वह भारत की राष्ट्रभाषा होने के साथ साथ मारीशस, फ़ीजी आदि में पर्याप्त संख्या में लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है।
(लेखक प्रख्यात भाषाविद्‍और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के अतिथि प्राध्यापक हैं)

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