18 फ़रवरी 2010

शोध और शिक्षण की सीमाएँ

डॉ. कृपाशंकर चौबे

पच्चीस वर्षों तक मैंने सक्रिय पत्रकारिता की और पत्रकारिता बगैर संवाद के चल ही नहीं सकती। मीडिया शिक्षण में भी मेरी रुचि इसलिए जगी क्योंकि यह भी विद्यार्थियों से जीवंत संवाद का अवसर देती है। पिछले वर्ष जुलाई में वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में रीडर बनकर आया तो यह आकांक्षा स्वाभाविक थी कि अपने विद्यार्थियों में भी जीवंत संवाद का कौशल विकसित कर सकूं। मेरा मानना है कि किसी भी तरह की रचनात्मकता के लिए, विकास के लिए, यहां तक कि किसी समुदाय को आगे ले जाने के लिए संवाद जरूरी है। मैं मीडिया में शिक्षा की पारंपरिक पद्धतियों के साथ संचार के उत्तरोत्तर आधुनिक साधनों के समन्वय का भी हिमायती हूं क्योंकि सिर्फ पारंपरिक शिक्षा पर टिके रहने से कई चीजें छूट जाएँगी और वह शिक्षा भी एकांगी होकर रह जाएगी इसलिए अपने विद्यार्थियों में द्रुत गति से विकसित हो रही टेक्नालाजी और ज्ञान प्राप्ति के नए-नए साधनों के प्रति दिलचस्पी बनाए रखना चाहता हूं ताकि जनसंचार के क्षेत्र में हो रहे नित नए आविष्कारों के प्रति वे उदासीन न हों क्योंकि वैसा होने पर वे पिछड़ जाएँगे। मीडिया शिक्षण का काम भविष्य की ओर देखने की दृष्ट विकसित करना है। एक उदाहरण दूं। मीडिया के कितने छात्रों को यह पता है कि गूगल के नए स्मार्ट फोन से भविष्य में संचार कितना सुगम होगा, उसके क्या लाभ होंगे? सनद रहे कि इंटरनेट सर्च प्रोवाइडर गूगल ने अभी-अभी अमेरिका में जो स्मार्टफोन लांच किया है, उसमें अनलिमिटेड टेलीफोन काल्स की सुविधा है। यह एप्पल के आईफोन से दोगुना तेज है। थ्री जी सुविधा के साथ इस फोन में टच स्क्रीन डिस्प्ले और गूगल एँट्राइड साफ्टवेयर का नया वर्जन शामिल किया गया है। इसकी सबसे बड़ी खूबी गूगल वाइस सेवा है। इसे मोबाइल नेटवर्क से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। उसके बाद तो लोग मुफ्त में वीडियो कालिंग का लाभ भी उठा सकेंगे। गूगल की कोशिश सर्विस प्रोवाइडर को बदले बिना ही यूजर को उसके मौजूदा सिम पर ही फोन सेवा उपलब्ध कराना है।
वस्तुतः मैं एक अग्रगामी, गतिशील और उत्तरोत्तर आधुनिक मीडिया शिक्षा पद्धति का पक्षधर हूं। मैं अपने विद्यार्थियों को बंधनों से और आत्ममुग्धता से मुक्त रखना चाहता हूं ताकि वे खुले मन से और खुले ढंग से चीजों को देख सकें और उसका उन्मुक्त होकर विश्लेषण कर सकें। लेकिन यह तो रही मेरी आकांक्षा की बात। मीडिया शिक्षण में आने के बाद मुझे जिन व्यावहारिक दिक्कतों का सामना करना पड़ा, उससे मैं बेतरह विचलित हूं। मीडिया में जो विद्यार्थी उच्च शिक्षा ग्रहण करने आ रहे हैं, उनकी अशुद्ध भाषा व व्याकरण की गलतियां विचलित करनेवाली हैं। दिलचस्प यह है कि जनसंचार में स्नातकोत्तर के इन विद्यार्थियों और शोधार्थियों ने बाकायदे प्रवेश परीक्षा देकर दाखिला लिया है। वे हिन्दी प्रदेशों के नामी विश्वविद्यालयों से स्नातक या स्नातकोत्तर करके आए हैं। पर उनमें भाषा का संस्कार-अनुशासन नहीं है। हिन्दी माध्यम से जनसंचार में शोध कर रहे अधिकतर विद्यार्थियों को ‘कि’ और ‘की’ में अंतर नहीं पता। ‘है’ और ‘हैं’ का अंतर नहीं पता। शब्द के बीच में ‘ध’ व ‘भ’ लिखना नहीं आता। ‘में’ नहीं लिखना आता। ‘उन्होंने’ और ‘होंगे’ नहीं लिखना आता। ‘कार्यवाही’ व ‘कार्रवाई’ का अंतर या ‘किश्त’ व ‘किस्त’ का अंतर नहीं पता। वे अक्सर उद्धरण चिह्नों को बंद करते समय उन्हें विराम चिह्नों से पहले लगा देते हैं। विभक्तियां सर्वनाम के साथ नहीं लिखते। क्रिया पद ‘कर’ मूल क्रिया से मिलाकर नहीं लिखते। आज के अधिकतर मीडिया विद्यार्थियों या शोधार्थियों से आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे दो पैरा भी शुद्ध लिखकर आपको दिखाएँगे। उन दो पैराग्राफों में ही व्याकरण की गलतियों की भरमार मिलेगी। ‘य’ के वैकल्पिक रूपों और अनुस्वार, पंचमाक्षर और चंद्रबिंदु को लेकर अराजकता मिलेगी। अक्सर देहात, अनेक, जमीन, समय, वारदात जैसे शब्दों के बहुवचन रूप मिलेंगे। वर्तनी को लेकर तो सर्वाधिक अराजकता मिलेगी। एक ही पृष्ठ में एक ही शब्द नाना ढंग से लिखा मिलेगा। मजे की बात यह है कि बहुत कम मीडिया शिक्षक हैं कि जिनकी इन गलतियों को सुधारने में रुचि है। उन्हें किसी तरह कोर्स पूरा करने की हड़बड़ी रहती है। वैसे ऐसे शिक्षकों की संख्या बहुत कम है जिन्हें शब्दावली, वाक्य विन्यास और व्याकरण संबंधी ज्ञान प्राप्त हो। सवाल है कि मीडिया संस्थानों से एम.ए., एम. फिल. और पीएच.डी. की उपाधि लेने के बाद जब ये विद्यार्थी या शोधार्थी पत्रकारिता या मीडिया- शिक्षण करने जाएँगे तो किस तरह की हिन्दी अपने पाठकों, श्रोताओं, दर्शकों या छात्रों को देंगे? ध्यान देने योग्य है कि पिछले कुछ वर्षों में जब से मीडिया शिक्षण संस्थानों की बाढ़ आई और उनसे निकलकर जो मीडिया घरानों से जुड़े, तभी से प्रिंट या इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता में भाषा के प्रति जागरुकता में क्रमशः ज्यादा गिरावट देखी जाने लगी और व्याकरणिक शिथिलताएँ बढ़ने लगीं।
पहले ऐसा नहीं था। पहले भाषा को लेकर पत्रकार बहुत सजग रहते थे। तथ्य है कि हिन्दी गद्य के निर्माण का अधिकांश श्रेय प्रिंट मीडिया के उन पुराने पत्रकारों को है जिन्होंने अपने पत्रों के जरिए हिन्दी गद्य को रोपा-सींचा और परिनिष्ठित रूप दिया। पहले भाषा के प्रति सजगता इतनी थी कि छोटी सी त्रुटि पर भी विवाद खड़ा हो जाता था। 1905 में ‘अनस्थिरता’ शब्द को लेकर बाल मुकुंद गुप्त और महावीर प्रसाद द्विवेदी के बीच जो विवाद हुआ था, उससे भाषा व व्याकरण को एक नई व्यवस्था मिली थी। पहले के पत्रकार नए शब्द गढ़ते थे। ‘श्री’, ‘श्रीमती’, ‘राष्ट्रपति’, ‘मुद्रास्फीति’ बाबूराव विष्णु पराड़कर के दिए शब्द हैं। भाषा के प्रति तब यह जज्बा पत्रकारों की सामान्य खासियत हुआ करती थी और इसी जज्बे के कारण पुराने पत्रकार हिन्दी भाषा (और साहित्य) की समृद्ध विरासत खड़ी कर पाए थे। भारतेंदु मंडल के लेखकों से लेकर अज्ञेय, धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय तक एक लंबी परंपरा रही जिसमें प्रिंट मीडिया पाठकों को भाषाई संस्कार देती थी, उनकी रुचि का परिष्कार करती थी और साथ ही साथ लोक शिक्षण का काम करती थी। लेकिन पिछले ढाई दशकों में सारा परिदृश्य बदल गया। आज प्रिंट या इलेक्ट्रानिक मीडिया में भाषा के सवाल को गौण कर दिया गया है। इन माध्यमों में भाषा व व्याकरण की गलतियां न मिलें तो वह अचरज की बात होगी। क्या हिन्दी की प्रिंट व इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता की भाषा हिन्दी की रह भी गई है? यह अहम सवाल भी हमारे सामने खड़ा है। आज हिन्दी की समूची प्रिंट व इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता घुमा-फिराकर दस हजार शब्दों का इस्तेमाल कर रही है। नब्बे हजार शब्द अप्रासंगिक बना दिए गए हैं। विज्ञप्त तथ्य है कि मीडिया पाठकों-दर्शकों-श्रोताओं के विचारों को ही नहीं, उनकी भाषा को भी गहरे प्रभावित करता रहा है। मीडिया, भाषा-शिक्षण का दावा नहीं करता पर पाठक उस माध्यम से भाषा व शब्दों के प्रयोग सीखते रहे हैं। पर आज तो मीडिया में जैसे अशुद्ध भाषा लिखने-बोलने की सनकी स्पर्धा चल रही है। हिंग्लिश को स्वीकृति दे डाली गई है। इसी माहौल में हिन्दी पत्रकारिता की पढ़ाई हो रही है जहां हिन्दी के सिर अशुद्धियां लादी जा रही हैं। यह भार वह कब तक सहेगी? बोझ ढोते-ढोते वह अचल नहीं हो जाएगी?
यदि हिन्दी पत्रकारिता के शिक्षण संस्थानों के विद्यार्थी व शिक्षक और हिन्दी की प्रिंट व इलेक्ट्रानिक पत्रकारिता के पत्रकार अपनी भाषा के प्रति उदासीन रहेंगे तो यह कैसे माना जाए कि अपने भाषा-भाषियों के हित की चिंता उन्हें होगी क्योंकि कोई भाषा और उसे बोलनेवालों के हित अलगाकर नहीं देखे जा सकते।
समस्या सिर्फ भाषा को लेकर नहीं है, मीडिया शोधों की स्थिति भी उतनी ही सोचनीय है। मीडिया पर इधर जो शोध प्रबंध प्रकाशित हुए हैं, उनमें कुछ अपवादों को छोड़कर गंभीर अध्ययन और प्रौढ़ विवेचन का सर्वथा अभाव है। अधिकतर शोध प्रबंधों में मीडिया-अनुसंधान की कई दिशाएँ अछूती रह गई हैं। मीडिया शोधार्थी से जिस अनुशीलन और परिश्रम की अपेक्षा की जाती है, उसकी बेतरह कमी दिखाई पड़ती है। कहने की जरूरत नहीं कि प्राध्यापक बनने की अर्हता अर्जित करने के लिए यानी सिर्फ अकादमिक डिग्रियां लेने के लिए हो रहे ये शोध रस्म अदायगीभर हैं। इन अधिकतर शोध प्रबंधों में संबद्ध विषय को लेकर न कोई दृष्टि है न विषय पर नया प्रकाश पड़ता है न कोई नया रास्ता खुलता दिखता है। शोधार्थी के खास मत-अभिमत का भी पता नहीं चलता।
हिंदी में मीडिया पर गंभीर शोध की प्रवृत्ति नहीं होने से पूर्व में प्रकाशित पुस्तकों, संदर्भ ग्रंथों अथवा शोध प्रबंधों में दिए गए गलत तथ्य भी अविकल उद्धृत किए जाते रहे हैं और उन तथ्यों की सत्यता जांचने का जहमत प्रायः नहीं उठाया जाता और ऐसा बहुत पहले से-छह दशकों से होता चला आ रहा है।
हिंदी की प्रिंट मीडिया पर पहला शोध छह दशक से भी पहले राम रतन भटनागर ने किया था। ‘राइज ऐंड ग्रोथ आव हिंदी जर्नलिज्म ’ शीर्षक अंग्रेजी में लिखे-छपे उनके प्रबंध पर प्रयाग विश्वविद्यालय से उन्हें डाक्टरेट की उपाधि मिली थी। डा। भटनागर ने 1826 से 1945 तक की हिंदी की प्रिंट मीडिया को अपने शोध का उपजीव्य बनाया था। उनका शोध प्रबंध 1947 में प्रकाशित हुआ। उस प्रंबध की सीमा यह थी कि उसमें गलत तथ्यों की भरमार थी। उसमें पुराने पत्रों के प्रकाशन काल तक की गलत सूचनाएँ थीं। उदाहरण के लिए ‘उचित वक्ता’ का प्रकाशन 7 अगस्त 1880 को शुरू हुआ था पर भटनागर जी ने उसका प्रकाशन 1878 बताया था। इसी भांति ‘भारत मित्र ’ का प्रकाशन 17 मई 1878 को शुरू हुआ था जबकि भटनागर जी ने उसे 1877 बताया था। ‘सारसुधानधि’ का प्रकाशन 13 जनवरी 1879 को हुआ था जबकि भटनागर जी ने उसे 1878 बताया था। उन्होंने ‘नृसिंह’ पत्र का नाम बिगाड़कर ‘नरसिंह’ कर दिया था। यह पत्र 1907 में निकला था जबकि भटनागर जी ने उसका प्रकाशन काल 1909 बताया था। विडंबना यह है कि भटनागर जी के शोध प्रबंध की उक्त गलत सूचनाओं को उनके परवर्ती काल के शोधार्थी दो दशकों तक उद्धृत करते रहे। वह सिलसिला 1968 में डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र का शोध प्रबंध छपने के बाद ही थमा। मिश्र जी के प्रबंध का मूल नाम था-‘कोलकत्ता की हिंदी पत्रकारिताः उद्भव और विकास।‘ लेकिन वह छपा ‘हिंदी पत्रकारिताः जातीय चेतना और खड़ी बोली की निर्माण-भूमि’ शीर्षक से। डॉ. मिश्र ने अपने शोध में भटनागर जी के प्रबंध में दर्ज गलत सूचनाओं को सप्रमाण काटा। उसके बाद, देर से ही सही, डॉ. भटनागर के शोध प्रबंध की कमियों को दूर करते हुए उसका संशोधित संस्करण 2003 में विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी से छापा गया। वैसे अप्रामाणिक तथ्यों के लिए सिर्फ भटनागर जी को दोष देना उचित नहीं है। यह गलती दूसरे नामी अध्येताओं से भी हुई है। हिंदी पत्रकारिता का पहला इतिहास (शोध प्रबंध नहीं) राधाकृष्ण दास ने लिखा था। ‘हिंदी भाषा के सामयिक पत्रों का इतिहास’ शीर्षक उनकी पुस्तक 1894 में नागरी प्रचारिणी सभा से छपी थी। पर उसमें भी कई गलत सूचनाएँ थीं। बाबू राधाकृष्ण दास ने उस किताब में ‘बनारस अखबार’ को हिंदी का पहला पत्र बताया था। इसी किताब को आधार मानते हुए बाल मुकुंद गुप्त ने भी ‘बनारस अखबार’ को ही हिंदी का पहला अखबार लिखा। प्रो. कल्याणमल लोढ़ा और शिवनारायण खन्ना ने ‘दिग्दर्शन’ को हिंदी का पहला पत्र लिखा किंतु ब्रजेंद्रनाथ बनर्जी ने इस तथ्य को सप्रमाण प्रस्तुत किया कि 30 मई 1826 को प्रकाशित ‘उदंत मार्तंड’ हिंदी का पहला पत्र है। बहरहाल, अचरज की बात है कि तथ्य संबंधी त्रुटि आचार्य रामचंद्र शुक्ल से भी हुई। उन्होंने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में ‘उचित वक्ता’ का प्रकाशन 1878 बता डाला है। दरअसल राधाकृष्ण दास की किताब को आधार बनाने से यह चूक शुक्ल जी से हुई।
तथ्यों की प्रामाणिकता की दृष्टि से डॉ. कृष्णबिहारी मिश्र का शोध प्रबंध एक मानक है और विशिष्ट उपलब्धि भी। मिश्र जी ने साबित किया कि शोध एक श्रम साध्य और गंभीर विद्या कर्म है। लेकिन त्रासद स्थिति है कि इधर के कई मीडिया शोधार्थियों ने मिश्र जी के शोध प्रबंध की सामग्री हड़प लेने में कोई संकोच नहीं किया है। एक शोधार्थी ने तो मिश्र जी के प्रबंध की पूरी सामग्री तो ली ही, उस लेखिका ने आभार का पन्ना भी जस का तस छपा लिया है। अभी-अभी मीडिया के एक अन्य शोध प्रबंध को हूबहू किसी दूसरे शोधार्थी द्वारा अपने नाम से प्रस्तुत करने का मामला प्रकाश में आया है। यह मामला इसलिए पकड़ में आया क्योंकि नकल किया गया प्रबंध जांचने के लिए उसी विशेषज्ञ के पास गया, जिसने पहले प्रबंध को जांचा था।
ऐसे प्रतिकूल परिवेश में अहम सवाल है कि मीडिया शोध का मान कैसे उन्नत होगा? कहना न होगा कि सबसे बड़ी जरूरत शोधार्थियों में शोध-वृत्ति जागृत करना और उन्हें शोध की सारस्वत महत्ता का बोध कराना है। शोध निर्देशक की यह न्यूनतम जिम्मेदारी है कि वह शोधार्थी में शोध का अपेक्षित दृष्टिकोण विकसित करे, शोध के विषय के चयन के पहले उसकी सार्थकता पर गंभीरता से गौर करे और इस पर सतर्क नजर रखे कि शोधार्थी में विषय को लेकर अपेक्षित रुचि, निरंतरता और सक्रियता है कि नहीं क्योंकि उसके बिना वह मीडिया के सम्यक अनुशीलन में सक्षम नहीं होगा। शोध निर्देशक में शोध विषयक नित्य की क्रमिक प्रगति से अवगत होते रहने की उत्सुकता भी होनी चाहिए। विडंबना यह है कि इस उत्सुकता का अभाव दिखता है।


लेखक परिचय- समकालीन पत्रकारिता के साथ ही आधुनिक गद्य लेखन में एक सुपरिचित नाम। मीडिया शिक्षण में आने के पहले ‘हिन्दुस्तान’ में विशेष संवाददाता थे। उसके पूर्व ‘सहारा समय’ में मुख्य संवाददाता रहे। ‘जनसत्ता’ में ग्यारह वर्षों से ज्यादा समय तक उप संपादक रहे। ‘आज’, ‘स्वतंत्र भारत’, ‘सन्मार्ग’ (कोलकाता) और ‘प्रभात खबर’ में भी काम किया।
प्रमुख कृतियां- 1.’चलकर आए शब्द’ (राजकमल प्रकाशन), 2. ‘रंग, स्वर और शब्द’ (वाणी प्रकाशन), 3. ‘संवाद चलता रहे’ (वाणी), 4. ‘पत्रकारिता के उत्तर आधुनिक चरण’ (वाणी), 5. ‘समाज, संस्कृति और समय’ (प्रकाशन संस्थान), 6. ‘नजरबंद तसलीमा’ (शिल्पायन), 7. ‘महाअरण्य की मां’, 8. ‘मृणाल सेन का छायालोक’, 9. ‘करुणामूर्ति मदर टेरेसा’ (तीनों आधार प्रकाशन) और 10. ‘पानी रे पानी’ (आनंद प्रकाशन)।
(संप्रति महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं
)

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