18 फ़रवरी 2010

देह भाषा की राजनीति

प्रत्युष प्रशांत


भाषा सम्बन्धी चिन्ता और चिन्तन आजकल एक पुरातन सोच का प्रतीक मानी जाती है। ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में इस प्रकार की चर्चा गैर-सामयिक और अप्रासंगिक मानी जा रही है। भाषा सम्बन्धी चिन्ताओं से किसी को अवगत कराओ तो वे कहते हैं क्या गैर-प्रोडक्टिव सोचते रहते हों? कोई कहता है यार आज मार्केट इतना चढ़ गया तुमको भाषा की चिन्ता सता रही है। यहाँ भाषा से हमारा तात्पर्य भौतिक जगत को जानने, अन्य मनुष्यों के साथ सम्पर्क स्थापित करने और अपने विचारों और भावनाओं को अभिव्यक्त करने में सहायता मिलती है। इसलिए ऐसा माना जाता है कि भाषा बाह्य जगत् में मनुष्य की गतिविधियों के लिए एक साधन है। सांस्कृतिक प्रवाह में और समय की धारा में भाषाएँ आती जाती रहती हैं, नई-नई भाषाएँ पुरानी भाषाओं का स्थान लेती रहती हैं परन्तु कई बार सांस्कृतिक प्रवाह में और समय की धारा में हम कुछ चीजों के बारे में नहीं सोच पाते या वो चीजें छूट जाती हैं. हम जब कभी भाषा की बात करते हैं तो क्या कभी देह भाषा के बारे में भी सोचते हैं शायद नहीं? अक्सर देह भाषा का मतलब अंग्रेजी के शब्द Body language से ही लगाया जाता है। अगर हम linguistics में देखें तो वहाँ भाषा को विभिन्न मुखाव्यवों द्वारा उच्चारित भाषा ही कहा जाता है और अगर किसी आम आदमी से पूछा जाये तो वह भी यही कहेगा कि भाषा तो वही है जो मुँह से बोली जाती है और बहुत से बड़े विद्वानों (सस्यूर, ब्लूमफ़ील्ड, नोअम चॉम्स्की, फर्ग्युसन, लेबाव, रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, भोलानाथ तिवारी)ने भी भाषा के बारे में जो खोज किए हैं वो भी भाषा की सरंचना के आधार पर ही किए हैं या फिर उसे समाज के साथ जोड़ कर ही देखा है पर उन्होंने कहीं भी भाषा को देह के साथ जोड़ कर नहीं देखा ,जबकि अगर ध्यान से देखा जाए तो हमारी भाषा की शुरुआत ही संकेतों और देह भाषा ही से हुई है। एक जमाना ऐसा था मानव इतिहास में जब संकेतों और खास तरह के बीप्स के द्वारा मानव व्यवहार से जुड़ी चीजें की जाती थीं। भारत में कई पारंपरिक नृत्यों में हाथ की अलग-अलग मुद्राओं का संकेत अलग-अलग होता है। आँखों की भाव-भंगिमा का संकेत भी अलग-अलग होता है। पहले के समय में जब हमारे पास भाषा नहीं थी तब हम संकेतों, इशारों शरीर के विभिन्न अंगों व चिन्हों के माध्यम से ही अपनी बात दूसरों तक पहुंचाते थे पर जैसे-जैसे भाषा का विकास होता गया, वैसे-वैसे हम सिर्फ़ मुँह से बोलने वाली भाषा तक ही सीमित रह गए और यहाँ तक के सारे शोध वगैरह भी बाद में इसी पर सीमित हो गए और हमने अपनी भाषा का विकास जहाँ से शुरू किया था, हम उसे भूल ही गए पर अगर हम गौर करें तो हम कम से कम अपनी आधी बातें तो संकेतों, इशारों, चिन्हों आदि से ही कहते हैं,जैसे मुझे नहीं पता के लिए कंधे उचकाना, अंगुली मुँह पर रखने का अर्थ है चुप रहना, हाथ को घुमाकर पूछने का अर्थ है क्या हुआ? ताली बजाने का अर्थ है किसी काम का अच्छा करने पर उसकी तारीफ़ करना, किसी का हाथ छूना। अब देखिये हाथ को छूने के भी अर्थ निकलते है जैसे किसी माँ का अपने बेटे को छूने में ममता झलकती है। जाने इस तरह के कितने ही संकेतों का इस्तेमाल हम अपने रोज़मर्रा के भावों और विचारों को बताने के लिए करते हैं पर हम फ़िर भी इस देह भाषा के बारे में कभी भी नहीं सोचते जबकि हमें अपनी भाषा में इसे भी जगह देनी चाहिए माना कि ये भाषा का सीमित रूप है पर फ़िर भी जब हम समाज और भाषा के सम्बन्ध को देखते हुए भाषा की बात करते हैं तो जहाँ तक मुझे लगता है हम इस देह भाषा को अनदेखा नहीं कर सकते हैं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और इनसे prashant.pratyush @gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।)

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