आज समूची शिक्षा जगत में भाषा संबंधी नित नए-नए विमर्श उपज रहे हैं। साहित्य, समाज विज्ञान, दर्शन, मानव विज्ञान, जेंडर अध्ययन समेत ज्ञान की समस्त विधाओं ने भाषा संबंधी अपने अलग-अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किए हैं। चूंकि कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में भाषा हमारे व्यक्तित्व एवं संस्कृति की निर्धारक होती है अत: हम इन विधाओं द्वारा उपजी बहसों और विमर्शों को नजरअंदाज़ नहीं कर सकते।
भाषा विज्ञान में भाषा को लेकर मौजूदा समय में अनेक चिन्ताएँ व्याप्त हैं। सबसे बड़ी जो चिन्ता है वह है भाषा के मानकीकरण की। एक ही भाषा के अवयवों को हम अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग पाते हैं। हिन्दी भाषा के साथ विशेष रूप से यह समस्या जुड़ी हुई है। आज जहां हिन्दी को विश्वभाषा बनाने की पूरी मुहिम चल पड़ी है वहीं इसके साथ नित नए-नए संकट भी खड़े हो रहे हैं और इस समस्या से निज़ात पाने के लिए भाषा वैज्ञानिक लगातार प्रयासरत हैं। वैश्वीकरण की भागमभाग ने सूचना क्रान्ति के तहत हमें आधुनिकतम तकनीकों से लैस किया। यह अलग प्रश्न है कि इस क्रान्ति का स्वरूप और चरित्र क्या है? भाषा विज्ञान और आधुनिक तकनीकों की सहायता से भाषा सम्बन्धी अनेक समस्याएँ धीरे-धीरे सुलझ रही हैं।
आज शिक्षा के बारे में भी धारणाएँ बदल रही हैं। पहले थोड़ा बहुत अंग्रेजी का ज्ञान होने पर ही शिक्षित होने का पर्याय मान लिया जाता था परन्तु सूचना प्रौद्योगिकी के विकास ने इस धारणा को बदल दिया है। हिन्दी को विश्वभाषा बनाने की मुहिम का जो मुख्य लक्ष्य है ज्ञान की समस्त विधाओं को केवल हिन्दी में ही लाना नहीं है बल्कि हिन्दी में ही ज्ञान का सृजन भी करना है। और यह तभी सम्भव है जब हम तकनीकी रूप से सक्षम होंगे। ऐसे में जरूरत होगी ऐसे मानक तकनीक की जिसे एक साथ सम्पूर्ण विश्व में लागू किया जा सके। भारतीय भाषाओं में प्रौद्योगिकी का विकास अंग्रेजी की तुलना में कम है या हम यह कह सकते हैं कि अभी विकासशील स्थिति में है। इसका मूल कारण यह है कि प्रौद्योगिकी को हमेशा से ही विज्ञान से जोड़कर देखा गया और इस विधा के शोध आदि अंग्रेजी में होते रहे हैं। परन्तु आज जनसामान्य के प्रौद्योगिकी से जुड़ने का सारा श्रेय भारतीय भाषाओं में विकसित उपकरणों को जाता है, जिसे वे आसानी से समझ सकते हैं।
भारतीय भाषाओं को प्रौद्योगिकी से जोड़ने के क्रम में भाषा-प्रौद्योगिकी नामक ज्ञान की नई विधा का जन्म हुआ। यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है और इसके लिए आवश्यकता है, भाषा वैज्ञानिकों के एक नई पीढ़ी की जो हिन्दी भाषा के साथ-साथ संगणकीय भाषाविज्ञान का समग्र ज्ञान रखते हों और पश्चिमी भाषा वैज्ञानिक अध्ययन की तुलना में भारतीय भाषाविज्ञान को नई दिशा प्रदान कर सकें। हिन्दी को विश्वभाषा बनाने को भी इस विधा को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करना होगा और इसके लिए हर सम्भव प्रयत्न करना होगा।
इसी उद्देश्य और कामना के साथ ‘प्रयास’ का यह अंक आपके समक्ष प्रस्तुत है। मैं उन समस्त लेखकों का आभारी हूं जिन्होंने विभिन्न विषयों पर अपने आलेख दिए। भाषा विद्यापीठ और विश्वविद्यालय के उन समस्त मित्रों का हृदय से आभार जिन्होंने इस पत्रिका को अपना सहयोग प्रदान किया।
अखिलेश कुमार
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