-धनजी प्रसाद
भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग
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भाषाविज्ञान में ध्वनि को भाषा-अध्ययन की सामग्री कहा गया है। भाषिक ध्वनियों का अध्ययन करने वाली भाषाविज्ञान की शाखा का नाम ध्वनिविज्ञान है। ध्वनिविज्ञान में भाषिक ध्वनियों का अध्ययन उनके उच्चारण, संवहन तथा श्रवण के आधार पर किया जाता है। जब भाषिक ध्वनियों का अध्ययन उनके संवहन के आधार पर किया जाता है तो इसे भाषिक ध्वनियों का भौतिक अध्ययन कहते हैं। यह अध्ययन ध्वनिविज्ञान की जिस शाखा के अंतर्गत किया जाता है उसे ’भौतिक-ध्वनिविज्ञान’ कहते हैं।
ध्वनिविज्ञान में भाषिक ध्वनियों का संवहन और श्रवण के आधार पर अध्ययन बहुत कम हुआ है। अत: जब हम भाषा ध्वनियों के भौतिक अध्ययन कि बात करते हैं तो इसमें सामग्री की कमी स्वाभाविक रूप से नजर आती है। जब बात इसके इतिहास की हो, तो वह बहुत ही संक्षिप्त है जिस पर हम एक नजर इस प्रकार डाल सकते हैं।
विश्व में ध्वनि तरंगों का आरम्भिक अध्ययन संगीत के क्षेत्र में ही हुआ। महान गणितज्ञ पाइथागोरस ने ध्वनि तरंगों के संदर्भ में ’हार्मोनिक ओवरटोन सीरीज’ को गणितीय अनुपातों के आधार पर प्रस्तुत किया था। अरस्तु (384-322 ई.पू.) ने कहा कि ध्वनि द्वारा वायु के संकुचन और विस्तार में एक कण के दूसरे कण से टकराने पर तरंग की उत्पत्ति होती है। 20 ई. पू. रोमन गृहशिल्पी (architect) तथा इंजिनियर विट्रूवियस ने नाटकघरों के निर्माण में भौतिक ध्वनि तरंगों की विशेषताओं (properties) जैसे- व्याघात (interface), गूंज (echoes) और कम्पन के महत्त्व की बात की। इससे गृहशिल्प भौतिकी (architectural acoustics) की बात शुरू हुई।
वैज्ञानिक क्रान्ति के बाद ध्वनि तरंगों के भौतिक स्वरूप के अध्ययन में तेजी आई। गैलीलियो (1564-1642) और मर्सने (1582-1648) ने कम्पन करती हुई तरंग के संदर्भ में नियमों को प्रस्तुत किया।
19वीं शताब्दी में जर्मन विद्वान हेमहोल्ट (helmholtz) ने शरीरवैज्ञानिक भौतिक स्वनविज्ञान (physical acoustics) पर काम किया। इसी समय इंग्लैण्ड के लार्ड रेली (Lord Rayleigh) ने ’द थियरी आफ़ साउंड’ लिखा।
20वीं शताब्दी में आवाज की रिकार्डिंग और टेलिफोन ने ध्वनि अध्ययन को नई दिशा प्रदान की। जलीय भौतिक ध्वनिविज्ञान (underwater acoustics) का प्रयोग विश्व युद्धों के दौरान किया गया। वर्तमान में ’अल्ट्रासोनिक आवृत्ति सीमा’ (ultrasonic frequency range) ने चिकित्सा और उद्योग के क्षेत्र में इसके नये-नये प्रयोगों को बढ़ावा दिया है। इलेक्ट्रानिक्स और कम्प्यूटिंग ने इसके अध्ययन को स्पष्टता तथा शुद्धता प्रदान की है। इसके अतिरिक्त अनेक नये-नये यन्त्रों का अविष्कार हुआ है जो इस अध्ययन में मील के पत्थर साबित हुए हैं।
ध्वनिविज्ञान में भाषिक ध्वनियों का संवहन और श्रवण के आधार पर अध्ययन बहुत कम हुआ है। अत: जब हम भाषा ध्वनियों के भौतिक अध्ययन कि बात करते हैं तो इसमें सामग्री की कमी स्वाभाविक रूप से नजर आती है। जब बात इसके इतिहास की हो, तो वह बहुत ही संक्षिप्त है जिस पर हम एक नजर इस प्रकार डाल सकते हैं।
विश्व में ध्वनि तरंगों का आरम्भिक अध्ययन संगीत के क्षेत्र में ही हुआ। महान गणितज्ञ पाइथागोरस ने ध्वनि तरंगों के संदर्भ में ’हार्मोनिक ओवरटोन सीरीज’ को गणितीय अनुपातों के आधार पर प्रस्तुत किया था। अरस्तु (384-322 ई.पू.) ने कहा कि ध्वनि द्वारा वायु के संकुचन और विस्तार में एक कण के दूसरे कण से टकराने पर तरंग की उत्पत्ति होती है। 20 ई. पू. रोमन गृहशिल्पी (architect) तथा इंजिनियर विट्रूवियस ने नाटकघरों के निर्माण में भौतिक ध्वनि तरंगों की विशेषताओं (properties) जैसे- व्याघात (interface), गूंज (echoes) और कम्पन के महत्त्व की बात की। इससे गृहशिल्प भौतिकी (architectural acoustics) की बात शुरू हुई।
वैज्ञानिक क्रान्ति के बाद ध्वनि तरंगों के भौतिक स्वरूप के अध्ययन में तेजी आई। गैलीलियो (1564-1642) और मर्सने (1582-1648) ने कम्पन करती हुई तरंग के संदर्भ में नियमों को प्रस्तुत किया।
19वीं शताब्दी में जर्मन विद्वान हेमहोल्ट (helmholtz) ने शरीरवैज्ञानिक भौतिक स्वनविज्ञान (physical acoustics) पर काम किया। इसी समय इंग्लैण्ड के लार्ड रेली (Lord Rayleigh) ने ’द थियरी आफ़ साउंड’ लिखा।
20वीं शताब्दी में आवाज की रिकार्डिंग और टेलिफोन ने ध्वनि अध्ययन को नई दिशा प्रदान की। जलीय भौतिक ध्वनिविज्ञान (underwater acoustics) का प्रयोग विश्व युद्धों के दौरान किया गया। वर्तमान में ’अल्ट्रासोनिक आवृत्ति सीमा’ (ultrasonic frequency range) ने चिकित्सा और उद्योग के क्षेत्र में इसके नये-नये प्रयोगों को बढ़ावा दिया है। इलेक्ट्रानिक्स और कम्प्यूटिंग ने इसके अध्ययन को स्पष्टता तथा शुद्धता प्रदान की है। इसके अतिरिक्त अनेक नये-नये यन्त्रों का अविष्कार हुआ है जो इस अध्ययन में मील के पत्थर साबित हुए हैं।
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