मोहिनी अ. मुरारका
                                                                       एम.ए., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग
   
 सूक्ष्म दृष्टि से यदि देखा जाए तो भाषा की केवल बाह्य संरचना ही नहीं होती; अपितु आंतरिक संरचना भी होती है। बाह्य संरचना में जहाँ हम भाषा का ध्वनि, शब्द, रूप का वाक्यपरक अध्ययन करतें हैं, वहीं आंतरिक संरचना का संबंध मनुष्य की मानसिक प्रक्रिया से जुड़ा होता है। मनुष्य की मन:स्थिति का अध्ययन मनोविज्ञान में किया जाता है। 
     चॉमस्की ने ‘रूपान्तरक प्रजनक व्याकरण’ सिद्धांत में बाह्य संरचना की अपेक्षा आंतरिक संरचना पर विचार करना अधिक आवश्यक समझा और यही मनोभाषाविज्ञान का आधार बना। सच तो यह है कि बोलते और सुनते समय आंतरिक संरचना ही प्रमुख होती है क्योंकि दोनों स्थितियों में हमारा मस्तिष्क ही क्रियाशील रहता है अर्थात् भाषाविज्ञान की वह शाखा जिसका अनुप्रयोग मनोविज्ञान के आधार पर हो, मनोभाषाविज्ञान है। 
       आसगुड के अनुसार मनोभाषाविज्ञान का संबंध भाषा या वाक्यों के बोधन से उत्पन्न होने वाली प्रक्रिया है। जॉनसन लेयर्ड ने भी ठीक इसी प्रकार का मत रखा जिससे स्पष्ट होता है कि मनोविज्ञान का संबंध भाषा के प्रायोगिक पक्ष से है। इसलिए मनोभाषाविज्ञान, भाषाविज्ञान का अनुप्रयुक्त पक्ष कहलाता है। हम जो कुछ भी सुनते हैं, उसका अर्थ कैसे ग्रहण करते हैं? हम जो कुछ भी बोलते हैं उसकी संरचना का निर्माण और निर्धारण कैसे होता है? कोई शिशु जब भाषा सीखता है तो जटिल रूप सहज ढंग से कैसे सीख जाता है? बोलते, सुनते समय उसके मस्तिष्क में किस प्रकार की प्रक्रिया चलती है? इन सभी प्रश्नों के उत्तर हमें मनोभाषाविज्ञान की परिधि में ही जान सकते हैं। इसलिए मनोभाषाविज्ञान भाषिक क्षमता से प्रयुक्त व्यवहार का अध्ययन करता है। इसका ज्ञान मानव की संचयन और अनुस्मरण क्षमता द्वारा होता है और यह दोनों क्षेत्र मनोविज्ञान के अंतर्गत आते हैं। इसलिए मनोभाषाविज्ञान भाषाविज्ञान का अनिवार्य पक्ष है।
 
 
क्या आप मनोभाषाविज्ञान के लिए किसी पुस्तक का प्रस्ताव दे सकते हैं?
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