03 अगस्त 2009

भाषा का लोकार्पण

मनीष
हिन्दी तुलनात्मक साहित्य विभाग
मानव के सामाजिक-ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया से गुजरते हुए हम पाते हैं कि मानव-सभ्यता को विकसित/स्थापित करने हेतु जो भी आविष्कार/खोज हुए हैं उनमें भाषा का आविष्कार सर्वथा एक महत्वपूर्ण घटना है। भाषा का विकास नैसर्गिक रूप में हुआ है, प्रक्रिया में यह प्रकृति और मानव के सामूहिक प्रयत्न का परिणाम है। तब यह मात्र संकेत स्तर पर थी। कालान्तर में इसे ध्वनि मिली, ध्वनि समूह मिले और मिला ध्वनि-चिह्न यानि 'लिपि'।
समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप भाषा का विकास होता रहा, जब जैसा समाज, समाज की जैसी आवश्यकता , भाषा का वैसा और उतना विकास। मानव के समाजिकीकरण के आरंभिक कबीलाई अवस्था में प्रत्येक कबीले/समुदाय की अपनी एक खास भाषा, भाषिक ध्वनि-संकेत, शब्द, शैली होती थी जिसे उसी समुदाय के लोग बोलते-समझते थे। एक कबिलाई समाज के दूसरे कबिलाई समाज से परस्पर मिलने-जुलने से उनकी भाषा का आदान-प्रदान हुआ जिससे एक नई सशक्त भाषा विकसित हुई। इसी प्रक्रियाओं से गुजरते हुए लोक-भाषाएं शिष्ट-भाषाओं में तब्दील हुईं।
यह जगजाहिर है कि लोकभाषा ही शिष्ट भाषा की जननी है। अपनी कृत्रिमता के कारण जब कभी शिष्ट/साहित्यिक भाषा में रूखापन आया है या उसकी संवेदनक्षमता में गिरावट आई है, लोकभाषा ने उसे संजीवनी रस पिलाया है, उसे नई चेतना, नया आयाम दिया है।
लोकभाषा, लोकजीवन की भाषा है। यह बहता नीर है। व्याकरण के कूल-किनारों को तोड़ती हुई इसकी सतत् प्रवाहमयी धारा में नैसर्गिक संगीत है, निष्कलुषता है जिससे जन मानस को सदैव ही आत्मिक तृप्ति मिलती रही है।
आज जिसे सभ्य और शिष्ट समाज, सरकार, शिक्षण-संस्थान, कोर्ट-कचहरी की भाषा कहा जाता है, वह उस समाज की भाषा है जो सुविधाभोगी है, सभ्यता के भूमि, जल, आकाश, अग्नि, हवा जैसे अन्य अनेक साधनों की तरह 'भाषा' का भी दोहन (प्रयोग) करने के लिए स्वतंत्र है। किंतु वह समाज, जिसे भौतिक जीवन की बुनियादी सुविधाएं भी प्राप्त नहीं हैं, उनकी भाषा (लोकभाषा) में शब्दों (ध्वनि-प्रतिकों) की प्राय: कमी दिखाई पड़ती है। उनके जीवन की आवश्यकता थोड़े-से ही नपे-तुले शब्दों के प्रयोग से पूरी हो जाती है। लोक जीवन के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वहाँ भाव, कल्पना, विचार अथवा दैनिक आवश्यकताएं अत्यन्त सीमित हैं।
लोकजीवन में प्रचलित अनेक नाम आज भी छोटे-छोटे ध्वनि-संकेतों के रूप में मिलते हैं। ये शब्द/नाम समाज की सीमित आवश्यकताओं के अनुरूप बनाए गए होंगे, जिनके अवशेष आज भी भाषा में सुरक्षित हैं। उदाहरणार्थ- खेत, अनाज, अन्न, बीया, बीज, घर, दुआर, अंगना, हाट, बैल, गाई, बोझा, खुरपी, हसुआ, टोकरी, कुदार, लाठी, चुल्हा, चौका, ओसारा, दीया, बाती आदि। लोकजीवन में संक्षिप्तता बरतने का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है कि पिता के लिए भी 'बाबू', चाचा के लिए भी 'बाबू', बच्चे के लिए भी 'बाबू' और मालिक के लिए भी 'बाबू' शब्द का प्रयोग होता है।

लोकजीवन की भाषा की एक और विशेषता है कि इसके शब्द प्राय: अनेकार्थी नहीं होते। इन शब्दों से प्राय: एक ही अर्थ का बोध होता है। जहॉं शब्द अनेकार्थी होते हैं वहॉं प्रोक्ता को विविध संदर्भों में अर्थ ग्रहण करने का सहज विकल्प होता है। लोकभाषा के शब्द बहुधा रूढ़ या रूढ़ार्थक होते हैं। यहां यौगिक और योगरूढ़ शब्द नहीं मिलते। उदाहरणार्थ लोकभाषा में बहुप्रचलित शब्द 'अनाज', 'फर', 'गाछ' आदि को लें। अनाज एक बहुअर्थी रूढ़ शब्द है। इसके भिन्न-भिन्न भेद/प्रभेद हैं, यथा- धान, गेहूँ, जौ, अरहर, चना, मूँग, मक्का आदि। मानक हिंदी में प्रचलित 'फल' शब्द के समानार्थ लोकभाषा का 'फर' शब्द है।
लेकिन जीवन में आधुनिकता का समावेश होने के कारण परंपरा से लोक में प्रचलित शब्दों की जगह नए शब्द आ गए हैं जिनसे पुराने प्रचलित शब्दों का लोप होता जा रहा है। आटाचक्की के कारण जाँता-चक्की का 'पिसान' अब ’आटा’ में बदल गया है। जैसे- गेहूँ का आटा, चावल का आटा, दाल का आटा ,मक्का का आटा आदि। इसी तरह बिजली के बल्ब की चकाचौंध में दीया, दीपक, डिबिया, दीप जैसे शब्द लूप्त होते जा रहे हैं।
लोकजीवन के रंजक शब्द 'लालटेन', 'सुगापंखी', 'धानी', 'धूसर', 'जामुनी', 'चितकाबर' आदि जैसे शब्द भी अब सुनने में नहीं आते।
यह अलग बात है कि शिष्ट भाषा का कोश निरंतर 'लोकभाषा' के शब्द-भंडार से भरता जा रहा है, फिर भी आवश्यकता है कि भाषावैज्ञानिक दृष्टि से 'लोक' और लोकभाषा की संरचना का तात्विक अध्ययन किया जाए।

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