20 अगस्त 2009

संपादक के की-बोर्ड से…

किसी भी पत्रिका की दिशा उसके पाठकों के मानस से तय होती है, कि वह पत्रिका की विषय-वस्तु के बारे में क्या मत प्रस्तुत करते हैं। ’प्रयास’ के पिछले अंक में पाठकों की मिली-जुली प्रतिक्रिया से जो चीज उभरकर सामने आयी, वह यह कि आम पाठकवर्ग पत्रिका को सिर्फ भाषा-प्रौद्योगिकी की नियमावली में ही केन्द्रित हो जाने को लेकर सशंकित दिखता है। ऐसा नहीं है, कि प्रौद्योगिकी सृजनात्मकता साथ लिए नहीं होती है या उसके विशेषज्ञ सिर्फ ऑकड़ों की जुबानी या कम्प्यूटर की भाषा के बाहर कुछ नहीं सोचते। नॉम चॉमस्की जैसा प्रख्यात भाषाविद् जब राजनीति या अन्तर्राष्ट्रीय जगत को लेकर कोई टिप्पणी करता है, तो संपूर्ण वैश्विक जगत तो क्या उसका अगुवा अमेरिका का भी ध्यानाकर्षित करती है। प्रयास का गत अंक जहां भाषा प्रौद्योगिकी विभाग के दायरे में सीमित था, वहीं इस बार हमने इसमें विश्वविद्यालय में मौजूद विभिन्न ज्ञानानुशासनों के लेखकों के आलेखों को भी जगह दी है। हम उम्मीद करते हैं, कि भाषा से संबंधित सामाजिक व राजनीतिक पहलुओं पर विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच एक सतत् आकादमिक बहस का वातावरण बनें और 'प्रयास' उन विचारों के अंकन का माध्यम। इन्हीं अपेक्षाओं के साथ मैं 'प्रयास' के संपादक मण्डल को धन्यवाद देना चाहूंगी, जिसने पत्रिका को समय पर आपके सम्मुख लाने में महती भूमिका निभायी। इसी विश्वास व उम्मीद के साथ कि 'प्रयास' एक अकादमिक हस्तक्षेप की संवाहक बनेगा, इसका यह द्वितीय अंक आपके सामने प्रस्तुत है......
सुषमा

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