प्रयास भाषा विद्यापीठ की एक महत्वपूर्ण शोधपरक पत्रिका है। इसके अंतर्गत प्रत्येक अंक में हम भाषा और प्रौद्योगिकी से संबंधित तमाम विषयों को उठाने का प्रयास करते हैं। इनके विषय पूर्ण रूप से ’भाषा’ से ही संबंधित होते हैं, ऎसा हमारे अपने साथियों से कई बार सुनने को मिल जाता है,और यह भी कि यह पत्रिका केवल भाषा से ही संबंधित तथ्यों को प्रस्तुत करती है, बाकी अन्य विषयों की नहीं। एसी टिप्पणियों के लिए मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि ऎसा बिल्कुल नहीं है कि यह पत्रिका केवल भाषायिक संदर्भों को ही समेटे हुए है। हमारा मानना है कि हमें किसी भी कार्य को व्यवस्थित रूप से करना चाहिए। ऎसी स्थिति में ’भाषा’ शब्द की परिधि इतनी छोटी नहीं है कि उसको पॉंच-छ: अंकों में समेटा जा सके, क्योंकि आज हमारे समाज में, हमारे अपने बीच भाषा की सांप्रदायिकता कोई नई समस्या नहीं है…।
अभी हाल ही में एक भारतीय भाषा वैज्ञानिक देवी प्रसन्न पटनायक(D. P. Patnayak) से किसी ने साक्षात्कार में पूछा कि भाषा और राजनीति में गहरा संबंध क्या है? उनका जवाब था- भाषा चाहे व्यक्ति अथवा समूह की पहचान बने, संप्रेषण के रूप में मानी जाए या फिर सांस्कृतिक आदान-प्रदान, आर्थिक सहयोग अथवा राज्यों के गठन का कारण बने, ये सभी बातें राजनीतिक जोड़-तोड़ से नियंत्रित होती हैं। राजनीति चाहे व्यक्ति की हो, विकास कि हो या समानता-असमानता की हो, भाषा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इसके अलावा सामाजिक गतिशीलता के परिणामस्वरूप विभिन्न राज्यों में रहने वाले भाषाई अल्पसंख्यकों की जिंदगी पर दॄष्टिपात करें तो पता चलता है कि वह पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र या पंजाब में रहने वाले हिन्दी भाषी की अपनी भाषा के वजह से ही अलग सामाजिक पहचान की जाती है। दूसरी तरफ वे हिन्दी राज्यों में भी अपनों की तरह नहीं देखे जाते। बढ़ती जटिलता का एक अन्य उदाहरण है- पढ़े-लिखे लोग अब कम हिन्दी बोल पा रहे हैं। वे बिना अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग किए हिन्दी नहीं बोल पाते। ऎसी स्थिति में हम भाषा की जटिलता को कहॉं तक समझ पाए हैं, यह एक विचारणीय प्रश्न है। बहरहाल…
यह तो भाषा और राजनीति, भाषा और समाज के बीच अंत: संबंध की एक रूपरेखा बस थी लेकिन इस आधुनिक समय में हम भाषा से सामान्य से अधिक अपेक्षाएं रखते हैं। ज्ञान-प्रसार के वर्तमान परिदॄश्य ने भाषा की क्षमताओं में भी अभिवृद्धि की है और विज्ञान की नित नई मांगों और चुनौतियों का सामना करने के लिए भाषा को न केवल मानव की आवश्यकताओं को पूरा करना पड़ रहा है, बल्कि मशीन और कंप्यूटर की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भी अपने को तैयार करना पड़ रहा है। कौन-से प्रयोग, कौन-से प्रतिबंध और कौन-से भाषिक-अभाषिक अभिलक्षण व्यक्त भाषा रूप और संरचना को नियंत्रित या नियमित करते हैं, यह जटिल प्रश्न आज कंप्यूटर-साधित अधिकांश भाषा-कार्यक्रमों के सामने चुनौती के रूप में खड़ा है। इसलिए आज भाषा विश्लेषण के ऎसे मॉडलों की तीव्रता से खोज रही है। जिनके विवरण और सूत्र कंप्यूटर की ’बुद्धि’ को सहज बोधगम्य और ग्राह्य हों।
इन विभिन्न क्षेत्रों में आज भाषा का अध्ययन कहॉं खड़ा है, प्रयास का यह अंक इस उद्धेश्य को ध्यान में रखकर प्रस्तुत है। प्रयास के इस अंक में हम सभी विद्वजनों को भाषा के सैद्धांतिक अवधारणाओं के अंतर्गत कुछ प्रमुख लेखों से अवगत करा रहे हैं जो कि निश्वित ही भाषा को साहित्य, राजनीति, समाज, दर्शन या अन्य विषयों से जोड़ती है। ऎसा माना जाता है कि सिद्धांतों की कसौटी पर उतरने वाले विचार ही किसी विशेष क्षेत्र को सर्वव्यापकता प्रदान करते हैं। इस अंक में साहित्य और भाषा, समाज और भाषा, भाषाई-चिंतन जैसे लेखों के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि भाषा की परिधि सीमित नहीं विस्तृत है, जिसे हमें समझने की आवश्यकता है।
अभी हाल ही में एक भारतीय भाषा वैज्ञानिक देवी प्रसन्न पटनायक(D. P. Patnayak) से किसी ने साक्षात्कार में पूछा कि भाषा और राजनीति में गहरा संबंध क्या है? उनका जवाब था- भाषा चाहे व्यक्ति अथवा समूह की पहचान बने, संप्रेषण के रूप में मानी जाए या फिर सांस्कृतिक आदान-प्रदान, आर्थिक सहयोग अथवा राज्यों के गठन का कारण बने, ये सभी बातें राजनीतिक जोड़-तोड़ से नियंत्रित होती हैं। राजनीति चाहे व्यक्ति की हो, विकास कि हो या समानता-असमानता की हो, भाषा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इसके अलावा सामाजिक गतिशीलता के परिणामस्वरूप विभिन्न राज्यों में रहने वाले भाषाई अल्पसंख्यकों की जिंदगी पर दॄष्टिपात करें तो पता चलता है कि वह पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र या पंजाब में रहने वाले हिन्दी भाषी की अपनी भाषा के वजह से ही अलग सामाजिक पहचान की जाती है। दूसरी तरफ वे हिन्दी राज्यों में भी अपनों की तरह नहीं देखे जाते। बढ़ती जटिलता का एक अन्य उदाहरण है- पढ़े-लिखे लोग अब कम हिन्दी बोल पा रहे हैं। वे बिना अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग किए हिन्दी नहीं बोल पाते। ऎसी स्थिति में हम भाषा की जटिलता को कहॉं तक समझ पाए हैं, यह एक विचारणीय प्रश्न है। बहरहाल…
यह तो भाषा और राजनीति, भाषा और समाज के बीच अंत: संबंध की एक रूपरेखा बस थी लेकिन इस आधुनिक समय में हम भाषा से सामान्य से अधिक अपेक्षाएं रखते हैं। ज्ञान-प्रसार के वर्तमान परिदॄश्य ने भाषा की क्षमताओं में भी अभिवृद्धि की है और विज्ञान की नित नई मांगों और चुनौतियों का सामना करने के लिए भाषा को न केवल मानव की आवश्यकताओं को पूरा करना पड़ रहा है, बल्कि मशीन और कंप्यूटर की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भी अपने को तैयार करना पड़ रहा है। कौन-से प्रयोग, कौन-से प्रतिबंध और कौन-से भाषिक-अभाषिक अभिलक्षण व्यक्त भाषा रूप और संरचना को नियंत्रित या नियमित करते हैं, यह जटिल प्रश्न आज कंप्यूटर-साधित अधिकांश भाषा-कार्यक्रमों के सामने चुनौती के रूप में खड़ा है। इसलिए आज भाषा विश्लेषण के ऎसे मॉडलों की तीव्रता से खोज रही है। जिनके विवरण और सूत्र कंप्यूटर की ’बुद्धि’ को सहज बोधगम्य और ग्राह्य हों।
इन विभिन्न क्षेत्रों में आज भाषा का अध्ययन कहॉं खड़ा है, प्रयास का यह अंक इस उद्धेश्य को ध्यान में रखकर प्रस्तुत है। प्रयास के इस अंक में हम सभी विद्वजनों को भाषा के सैद्धांतिक अवधारणाओं के अंतर्गत कुछ प्रमुख लेखों से अवगत करा रहे हैं जो कि निश्वित ही भाषा को साहित्य, राजनीति, समाज, दर्शन या अन्य विषयों से जोड़ती है। ऎसा माना जाता है कि सिद्धांतों की कसौटी पर उतरने वाले विचार ही किसी विशेष क्षेत्र को सर्वव्यापकता प्रदान करते हैं। इस अंक में साहित्य और भाषा, समाज और भाषा, भाषाई-चिंतन जैसे लेखों के माध्यम से यह बताने का प्रयास किया है कि भाषा की परिधि सीमित नहीं विस्तृत है, जिसे हमें समझने की आवश्यकता है।
धीरेन्द्र
accha sampadkiya
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