01 जनवरी 2010

शब्दार्थ संबंध : वैयाकरण मत

चंदन सिंह
शोध-छात्र, भाषा-विद्यापीठ,
म.गा.अ.हि.वि.,वर्धा
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि अर्थ का बोध कराने के लिए शब्द की व्यावहारिक उपयोगिता है, जैसा कि - ’अर्थगत्यर्थ: शब्द: अर्थसंप्रत्यथिष्यतिति शब्द: प्रयुज्यते।’ किन्तु साथ ही यह भी सत्य है कि सभी शब्दों से सभी अर्थों का बोध नहीं होता अपितु किसी निश्चित शब्द से किसी निश्चित अर्थ का ही बोध होता है, अन्य असम्बद्ध अर्थ का नहीं। ऎसी स्थिति में शब्द और अर्थ के मध्य एक ऎसे संबंध को स्वीकारना होगा जो निश्चित शब्द से निश्चित अर्थ के बोध का नियामक हो। अन्यथा किसी भी शब्द से किसी भी अर्थ का बोध संभव मानना होगा।
ऎसी स्थिति में एक स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि इस संबंध का स्वरूप क्या होगा? वैयाकरणों ने शब्द और अर्थ के मध्य तादात्म्य संबंध स्वीकार किया है। तादात्म्य का लक्षण स्पष्ट करते हुए प्रसिद्ध वैयाकरण नागेश्वर भट्ट कहते हैं कि –
तादात्म्यं च तद्भिन्न्त्वे सति तदभेदेन प्रतीयमानत्वमिति भेदाभेद समनियतम।
अभेद्स्याध्यस्त्त्वाच्य न तर्योविरोध:।
- परमलघुमंजुसा,पृ. 255
अर्थात् ’उससे भिन्न होते हुए उसके अभेद की प्रतीति होना’। इसलिए तादात्म्य ’भेदाभेद समनियत’ है। अभेद आरोपित होता है, इसलिए इन दोनों में विरोध नहीं है।
तात्पर्य यह है कि अर्थ शब्द से भिन्न भी होता है और अभिन्न भी। जो अर्थ जिस शब्द से भिन्नाभिन्न होता है उस शब्द से उस अर्थ का बोध होता है, अन्यों का नहीं।
पुन: वैयाकरणों के मतानुसार शब्दार्थ संबंध शब्द की योग्यता पर निर्भर करता है। भर्तृहरि ने कहा है कि –
इन्द्रियाणां स्वविषयेष्वेवसनादियोग्यता।
अनादिरर्थे: शब्दानां संबंधो योग्यता तथा।
- वाक्यपदीय,3.3,28
अर्थात् जिस प्रकार चक्षुरिन्द्रियों की स्वाभाविक योग्यता प्रत्यक्ष कराना है उसी प्रकार शब्द की स्वाभाविक शक्ति अर्थ-बोध कराना है। साथ ही वैयाकरणों ने शब्दार्थ संबंध को नित्य स्वीकार किया है। इस संबंध में महर्षि पतंजलि का मत है कि –
’संबंधस्यापि व्यवहारपरंपरयाsनादित्वान्नियता’
- महाभाष्य प्रदीप 1.1.1
अर्थात् कोई भी यह नहीं जानता कि इस संबंध का आरंभ कब हुआ, यह परंपरा से चला आ रहा अनादि एवं नित्य संबंध है। भर्तृहरि ने कहा है कि – यह संबंध सदैव से ही रहा है, अन्यथा किसी भी शब्द से किसी भी अर्थ का बोध हो जाता।
शब्देनार्थस्याभिधाने संबंधो हेतु:, अन्यथा सर्व सर्वेण प्रत्यायते।
- वाक्यपदीय, खण्ड 3, हेलराजा व्याख्या

वैयाकरण शब्दार्थ संबंध को सामयिक स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। वे इस संदर्भ में एक सुक्ष्म भेद भी करते हैं ।उनके अनुसार शब्द की शक्ति और शब्द के साथ अर्थ के संबंध में पार्थक्य है। शब्द के द्वारा जिस अर्थ का बोध होता है, उस शक्ति को वाच्च-वाचक-भाव कहते हैं तथा यह संबंध तादात्म्य कहलाता है। यद्यपि शब्द अपनी स्वाभाविक शक्ति से अर्थ-बोध कराने में सक्षम होता है, तथापि अर्थ-बोध तब तक नहीं हो सकता, जबकि यह स्पष्ट न कर दिया जाए कि इस शब्द का इस अर्थ से संबंध है।
स्मरणीय है कि जब वैयाकरण शब्दार्थ संबंध को तादात्म्य कहते हैं तो उनका तात्पर्य बुद्दिस्थ शब्द और अर्थ से होता है। वे शब्द का तादात्म्य वाह्य अर्थ के साथ स्वीकार नहीं करते।
यद्यपि व्यावहारिक जगत् में शब्द और अर्थ का पार्थक्य ही स्वीकृत है, परन्तु मानसिक चिंतन की अवस्था में शब्द अपने बौद्धार्थ के साथ एकाकार हो जाता है।
अर्थात् वैयाकरण मतानुसार शब्द और अर्थ में भेद भी है और अभेद भी । इसी कारण इनका तादात्म्य ’भेदाभेद स्वरूप’ है।

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