01 जनवरी 2010

कोशकारिता के सिध्दांत

परमान सिंह,
शोध-छात्र, भाषा-विज्ञान विभाग,
बी.एच.यू., वाराणसी
किसी भाषा भी के कोशों में आवश्ययक, समस्या तथा उपयुक्तता,जो कोश विचारात्मक रूप से प्रस्तुत करते हैं उनके आधार पर वैभिन्यता होती है। यद्यपि वे बहुत सी कसौटियों पर वैभिन्यता रखते हैं किन्तु कोशकारिता के स्वीकृत सिध्दांतों पर कहीं न कहीं साम्यता जरूर दिखाते हैं। कोश के निर्माण से पूर्व ही उन सिध्दांतों का निर्णय हो जाना चाहिए, जिनके आधार पर कोश का निर्माण किया जाता है।
सामान्यतया: कोशकारिता के चार स्वीकृत सिध्दांत जो नीचे निम्नवत् हैं-
1. विस्तार या गहनता
2. एकरूपता
3. विवेचनात्मक या निर्देशात्मक
4. कालक्रमिक या एककालिक
कोश का निर्माण उपर्युक्त सभी या कुछ ही सिध्दांतों का पालन करते हुए किया जा सकता है। कोश निर्माण सिध्दांत का चुनाव, जिसका अनुकरण किया जाना है वास्तव में एक विचारसाध्य कार्य है। इसका चुनाव करते समय बहुत सी बातें जैसे- प्रयोक्ता, आदर्श, प्रकृति, समस्या, आकार, वित्त की उपलब्धता, समय, आवश्यकता इत्यादि को ध्यान में रखना जरुरी है।
1. विस्तार या गहनता- कोशकारिता में विस्तार से तात्पर्य उस क्षेत्र से है,जिसमें से कोश निर्माण के लिए शब्दों का चुनाव किया जाता है,जबकि गहन से तात्पर्य कोश में शिर्ष शब्द के अन्तर्गत जानकारी उपलब्ध कराने से है।
कोश निर्माण में विस्तार के सिध्दांत का पालन करने हेतु, जिस भी क्षेत्र से शब्द चुने जाते हैं उस क्षेत्र विशेष के सभी शब्दों का चुनाव किया जाना चहिए। उदाहरण के लिए अगर विषय विशेष हेतु कोश का निर्माण किया जा रहा है, तो उस विषय से सम्बन्धित सारे शब्दों का समावेश उस कोश में होना चाहिए। बिना उचित कारण का निर्देश किये बिना किसी शब्द को छोडना चाहिए, जैसे- सामान्य भाषा के कोश उचित कारण का निर्देश करते हुए अपशब्दों, गालियों, वर्जित शब्दों, कामुक शब्दों को कोश में सम्मिलित नहीं करते हैं।
किसी भी शिर्ष शब्द से सम्बन्धित जानकारी उपस्थित करने के लिए बहुत सी सूचनाएं होती है, जिनकों किसी एक कोश में सम्मिलित कर पाना एक दुरुह कार्य है। कहतें है कि सभी शब्दों का अपना एक संसार और एक कोश में सामान्तया लगभग 10,000 मुख्य प्रविष्टिया होती है वस्ततु: इतने सारे संसार को एक कोश में समादित करना असम्भव है। इसलिए कोश के गहनता के सिध्दांत का पालन एक दुरुह स्वप्न है। प्राय: सारे कोश पूर्व परिभाषित प्रकृति, साधित प्रयोक्ता, एवं आकार को ध्यान में रखते हुए नितान्त ही आवश्यक और संबंधी जानकारी ही शिर्ष शब्द के अन्तर्गत उपलब्ध कराते है। अगर कोई कोश इस संबंध में संक्षिप्ता का सिध्दांत नहीं अनुकरण करता है तो यह एक संभावना बनी रहती है कि प्रयोक्ता इच्छित जानकारी पाने में असफल रहें।
हैंक महोदय ने ठीक ही कहा है कि दूसरे विद्वताजन्य विषयों के विरूध्द कोशकारिता सामन्यता: गहनता की अपेक्षा विस्तार के सिध्दांत का अनुपालन करती है।

2 एकरूपता
एक आदर्श कोश को प्रस्तुतिकरण के साथ-साथ coverage के स्तर पर भी एकरूपता रखना चाहिए। प्रस्तुतिकरण के स्तर पर एकरूपता लाने के लिए उच्चारण, वर्तनी, शब्द चुनाव, संक्षेपण इत्यादि के लिए किसी विशेष नियम का निर्धारण आवश्यक है। यह नियम कोश निर्माण के प्रारंभ से ही निर्देशित होनी चाहिए एवं इसका पालन कोश के अंत तक करना चाहिए। शीर्ष शब्द हो या परिभाषा, एकरूपता के सिध्दांत का अनुसरण करते हुए इसका अनुपालन करना चाहिए।
लिप्यंतरण के आधार पर एकरूपता की बानगी द्रष्टव्य है। हिन्दी वर्णों को रोमन में लिप्यंतरित करने की तीन रीतियाँ अपनाई जाती हैं:
आ (a:, a, A)
ई (i:, ī, I)
ण (n, η, )
च (c, t∫)
हिंदी कोशों में पंचमाक्षर एवं कारक चिहृनों के लेखन भी दो तरह से किए जाते हैं। इन दोनों में से जिस भी रीति का प्रयोग कोश में किया जाए, वह कोश में सव्रवयाम्त होना चाहिए।
बवअमतंहम के स्तर पर भी कोश में भी एकरूपता के सिध्दांत का अनुसरण आवश्यक होता है। उदहारण के तौर पर यदि हम हिंदी भाषा का सामान्य कोश बना रहे हैं तो उसमें बोलीगत शब्दों क्या स्थान है। यदि हिंदी के किसी बोली के शब्द सम्मिलित किए जा रहें हैं तो वस्तुत: हिंदी के विभिन्न मौजूद बोलियों में किस बोली के शब्द को सम्मिलित किया जा रहा है और क्योंकि इस वस्तुस्थिति से उपयोक्ता को कोश के प्रारंभिक सामग्री (front matter) में ही अवगत कराना होगा तथा उन बोली के शब्दों को प्रत्येक स्तर पर उपस्थित करना होगा।
3 विवेचनात्मक या निर्देशात्मक
शुरूआती दौर के एकभाषिक कोशों का मुख्य उद्देश्य शब्दों की विवेचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत करना था। 18 वीं शताब्दी में विशेषत: फ्रांस और व्रिटेन के बुध्दजीवी वर्ग ने सोचा कि उनकी भाषा अपने विकास के चरमोत्कर्ष पर है और इसमें किसी भी प्रकार के परिवर्तन से भाषा का ह्रास होगा। भाषा के इस तथाकथित पतन को रोकने की जिम्मेदारी कोशकारों ने अपने कंधो पर लिया और निर्देशात्मक कोशों के निर्माण के नये युग का सूत्रपात हुआ। इस प्रकार के कोशों में भाषा के सभी स्तर पर मानक प्रयोग का निर्देश होता था और भाषा के अमानक प्रयोग के प्रयोगों को रोका जाता था।
जहां तक विवेचनात्मक कोशों की बात है, वे कोश समाज के बहुतायत लोगों में बहुतायत प्रचलित भाषा भाषिक प्रयोगों की व्याख्या पर आधारित होता है। आधुनिक युग में यह सिद्धांत भाषा के अद्यपतन कार्पस से संबधित और कार्पस का भाषा के मानक-अमानक, अच्छे-बुरे इत्यादि प्रयोगों से कोई मतलब नहीं है। कापर्स तो सिर्फ यह बताता है कि भाषा के दोनों रूप समाज में मौजूद है। लेकिन कापर्स उसकी आवृति (frequency) को जरूर इंगित करता है, जिससे यह पता चलता कि भाषा के किस रूप का प्रचलन उस भाषिक समाज में बहुतायत में है।
जगुस्ता महोदय ने अपनी किताब में निर्देशात्मक कोशों के बारे में उल्लेख करता हुए लिखा है कि इनका उद्देश्य भाषा को स्थिर करना और भाषा में ह्रास के प्रतीक परिवर्तन को रोकना है। निर्देशात्मक का सिध्दांत भाषा के सर्वोत्तम प्रयोगों पर आधारित है, जिसमें भाषा के सर्वोत्तम प्रयोग से तात्पर्य समाज के पढ़े-लिखे एवं प्रतिष्ठित लेखकों के भाषिक प्रयोग से सम्बंधित है। लेकिन यह एक पक्षीय प्रश्न है कि भाषा जो कि काल, स्थान एवं परिस्थियों के आधार पर परिवर्तित होती ही रहती है किस अधिकार से भाषा के अच्छे एवं बुरे प्रयोगों को निर्देशित किया जाता है।
लेकिन इस तथ्य को सभी कोश कुछ हद तक कुछ भाषिक प्रयोगों विशेषत: वर्तनी एवं उच्चारण के लिए निर्देश करते हैं, पूर्णत: नकारा नही जा सकता। भाषा की शुध्दता को बनाये रखने के लिए कोशकार उपलब्ध, उच्चरण, वर्तनी एवं शब्दों में से शुध्द एवं मानक का चुनाव करता है। लेकिन इस चुनाव में भी उस व्यक्ति विशेष (कोशकार) के पसंद और नापसंद भाषा के प्रयोग के प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता है।
जैसा कि ऊपर के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि कोशकारिता के दोनों सिध्दांतों में से किसी एक या तो विवेचनात्मक या तो निर्देशात्मक का अनुपालन कोश निर्माण में किया जाता है अधिकतर कोशकार इस बात से सहमत है कि उनका कार्य शब्दों की व्याख्या करना है न कि अच्छे बुरे प्रयोगों का निर्धारण करना है पुन: हैक्स महोदय के शब्दों में कोशकार भाषा में क्या घटित हो रहा है। इसकी व्याख्या करने की आशा कर सकता है न कि भाषा को परिवर्तित करने की।
4 कालक्रमिक या एककालिक- हालांकि कालक्रमिक एवं एककाललिक कोशों के बारे में बहुत सी किताबों एवं लोगों में बृहद विवेचन मिलता है लकिन यहां पर इनका उद्धरण कोशकारिता के सिध्दांत के रूप में किया जा रहा है।
कोशकारिता के इन दो सिध्दांतों, कालक्रमिक या एककालिक में किसी सिध्दांत का अनुपालन कोई विशेष में किया जाना चाहिए। कालक्रमिक सिध्दांत पर बनाया गया कोश एककालिक सिध्दांत का अनुपालन करते हुए बनाये गये कोश की अपेक्षा बृहद होता है। कालक्रमिक कोशों में कुछ विश्वकोश के लक्षण मिलते है इसमें प्रत्येक शब्द का ऐतिहासिक विवेचन प्रस्तुत किया जाता है। शब्द के अर्थों को कालक्रम से संयोजित किया जाता है।
एककालिक कोश के सिध्दांत में काल विशेष में प्रचलित अर्थों को ही रखा जाता है। पुराने अर्थों, अर्थ परिवतनों के बारे में जानकारी उपलब्ध नही कराई जाती। लेकिन कुछ एककालिक कोश शब्दों की व्युत्पति पर प्रकाश डालते हैं, जिससे उनकी उत्पत्ति के बारे में बहुत ही संक्षिप्त जानकारी मिल पाती है।
वर्तमान दौर में कोशों का निर्माण सिर्फ अकादमिक संतुष्टि के लिए किया जा रहा है। प्रकाशक कोश निर्माण शुरू करने से पहले ही वित्तीय फायदों का परिकलन कर लेता है और उसके आधार पर ही कोश पर वित्तीय खर्च करता है और ये सारी बातें उस कोश के लिए उपयुक्त कोशकारिता के सिध्दांत का चुनाव करने में सहायक होती है। यहां तक कोशकारिता के सिध्दांत का चुनाव, कोश का आकार, एवं प्रयोक्ता को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए।
विज्ञापन के इस दौर में प्रकाशक अपने कोश का बाजार बनाने एवं दूसरे कोशों से इसकी सर्वोत्त्मता सिध्द करने के लिए बडे ही आर्कषक ढ़ग से लच्छेदार भाषा में विज्ञापन प्रसारित करते है। लेकिन कभी-कभी पाठकगण उनके दावों एवं कोश में वास्तविक उपलब्ध जानकारी के भारी अंतर को देखकर परेशान हो जाता है और अपने आपको ठगा महसूस करता है।
अत: नया कोश खरीदने से पूर्व उनके प्रकाशित review अवश्य देखना चाहिए एवं यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि कोशकारिता के सिद्धांत या सिद्धांतो का अनुपालन कोश में अद्यतन किया गया है कि नही।

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