अमितेश्वर कुमार पाण्डेय
शोध-छात्र, भाषा विद्यापीठ
म।गा.अ.हि.वि., वर्धा
शोध-छात्र, भाषा विद्यापीठ
म।गा.अ.हि.वि., वर्धा
जे. वि. वोलोशिनोव द्वारा रचित पुस्तक ‘Marxism and Philosophy of Language’ जिसका अनुवाद ’मार्क्सवाद और भाषा का दर्शन’ विश्व्नाथ मिश्र द्वारा किया गया है, से लिए गए कुछ अंश के आधार पर यह शोध-पत्र प्रस्तुत किया गया है।
भाषा के अध्धययन की प्राचीनतम अवस्थाएं हमें प्राचीन यूनान और भारत में देखने को मिलती हैं । भारत में ऎन्द्र, शाक्तायन, य़ास्क आदि वैयाकरणों की पाणिनी पूर्व समय में लंबी परंपरा थी । वी.एन. वोलोशिनोव के अनुसार 5वीं-4थी शताब्दी ई.पू. में अफलातून के दार्शनिक संवादों में पहली बार विचारों को पाठ (Text) में रूपांतरण की परिकल्पनाअओं की एक पूरी व्यवस्था दिखती है। अफलातून का कहना था कि “वस्तुओं का सार तत्व (वस्तुगत विचार) आत्मगत मानव-संज्ञान में विविध पक्षों से परावर्तित होता है और उसी के अनुरूप विभिन्न नामों द्वारा निरूपित होता है। अरस्तु (4थी शताब्दी ई. पू.) ने भाषा को तर्कशास्त्र का पूरक अंग मानते हुए भी भाषा को अफलातून से अधिक महत्व दिया । अरस्तु पहले क्लासिकी (शास्त्रीय) चिंतक थे जिसने व्याकरणिक रूपों की समस्या को छुआ और शब्दों की विभिन्न व्याकरणिक कोटियों के लिए एक शब्दभेद-सिद्धांत विकसित किया । अरस्तु की तर्कशास्त्रीय-भाषावैज्ञानिक अवधारणा का आधार है – शब्द-अवधारणाओं (logoi) की व्यवस्था जो प्रवर्गों में बंट जाती है और अंत में वह उद्गारों (विचारों) और निर्णयों और उनके पूर्वापर संबंधों के विभिन्न प्ररूपों का विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
पाणिनी (5वीं-4थी शताब्दी ई.पू.) ने अफलातून और अरस्तु द्वारा आम दार्शनिक चिंतन के तन्तुबद्धीकरण की प्रक्रिया में भाषा पर चिंतन की प्रवृति से अलग हटकर भाषा-प्रश्न को एक स्वतंत्र-स्वायत्त प्रश्न के रूप में उठाया। व्याकरण की प्रसिद्ध पुस्तक ’अष्टाध्यायी’ के रचयिता पाणिनी ने अर्थ-विज्ञान (semantics) की किसी प्रणाली के बगैर ही संस्कृत के स्वर-विज्ञान (phonetics), आकृति/रूप-विज्ञान (Morphology), शब्द-संरचना और वाक्य-विन्यासगत तत्वों पर विस्तार से विचार किया। शब्द के मूल, प्रत्यय और धातु की अवधारणाएं तथा शब्दरूपों के निर्माण की अवधारणा प्रस्तुत करने वाले पहले व्यक्ति पाणिनी थे। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने यादॄच्छिक प्रतीकात्मक वर्णनात्मक भाषा का
प्रयोग किया। कई स्तरों पर पाणिनी का व्याकरण आधुनिक समय के भाषाशास्त्रीय अध्ययनों के स्तर का है।
19वीं शताब्दी से पहले तक समाज-विज्ञान या मानविकी की एक पॄथक शाखा के रूप में भाषा-विज्ञान का कोई अस्तित्व नहीं था। 18वीं शताब्दी के अंत तक यह तर्कशास्त्र से अलग नहीं माना जाता था। उस समय तक दर्शनशास्त्र और तर्कशास्त्र के एक अंग के तौर पर, चिंतन की अभिव्यक्ति के एकीकृत, सार्वभौमिक साधनों का अध्ययन भाषा-विज्ञान का विषय था। मानव-समाज की समस्त भौतिक एवं आत्मिक गतिविधियों का मुख्य आधार संकेत-प्रणाली के रूप में भाषा के विकास, उसकी प्रकृति और संरचना के अध्ययन के साथ-साथ, अव्यवस्थित ढ़ंग से ही सही, पर शताब्दियों तक दार्शनिक इन प्रश्नों पर भी विमर्श करते रहे कि भाषा किस सीमा तक मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग, विशिष्ट बनाती है और किस हद तक यह सामाजिक परिघटना है।
भाषा के संदर्भ में यह धारणा मार्क्सवाद के जन्म से पहले ही मान्यता प्राप्त कर चुकी थी कि भाषा एक सामाजिक परिघटना है जो मानव के क्रिया-कलापों के समन्वय का साधन (माध्यम) है। वी. एन. विलोशिनोव के अनुसार – ऎतिहासिक भौतिकवाद ने भाषावैज्ञानिक चिंतन को आगे बढ़ाते हुए उपरोक्त धारणा में यह बात जोड़ी कि भाषा सामाजिक उत्पादन के विकास के दौरान जन्म लेती है तथा उत्पादन-संबंधों के कुल योग के आधार पर जीवन की जो आम सामाजिक-बौद्धिक-राजनीतिक प्रक्रिया गतिमान होती है, उसका माध्यम बनने के साथ ही, उसके दौरान,उसके साथ-साथ, निरंतर विकसित भी होते रहती है।
उपरोक्त मत पर आज के संदर्भ में भाषा-विज्ञान के विकास का अध्ययन करते हुए ध्यान दिया जाए तो यह बहुत ही सटीक लगता है । भाषा-विज्ञान के विकास की अगली मंजिल १८वीं शताब्दी के अंत में ’ऎतिहासिक-तुलनात्मक अध्ययन पद्धति’ का भाषा-विज्ञान से जुड़ना है, जिसे भाषा-विज्ञान की परिपक्व अवस्था माना गया है। इसी ऎतिहासिक-तुलनात्मक भाषा-विज्ञान में १९वीं शताब्दी में एक और प्रशाखा ’नवव्याकरणवाद’ (Neogrammerianism) आया जिसका आधारभूत सिद्धांत जर्मन भाषावैज्ञानिक ओस्थोप और बुगमान ने अपनी पुस्तक ’Morphological studies in the Indo-Uropian Language’ (भाग-1,1878-1910) में तथा एच. पॉल ने ’ Principal of the History of the Language’ (1880) में प्रस्तुत किया। इन पुस्तकों को नवव्याकरणवाद का घोषणा-पत्र भी कहा जाता है।
नवव्याकरणवाद के साथ ही भाषावैज्ञानिक अध्ययन के विषय के भाषा और मानसिक स्थिति-संरचना के रूप में जारी विभाजन की प्रवृति भी सामने आई और भाषावैज्ञानिक अध्ययन में एक नकारात्मक प्रवृति यह विकसित हुई कि भाषा के तंत्र के सामग्रिक अध्ययन का स्थान अनेक छोटे-बड़े विश्लेषण (जैसे-ध्वनियॉं, शब्द-रूप आदि) ने ले लिया। इस दौरान व्यक्तिगत मनोविज्ञान और व्यक्तिगत वक्तृत्व (speech) की भूमिका बढ़ा-चढ़ा कर देखी जाने लगी और व्यक्ति के वक्तृत्व (speech) को “एकमात्र भाषा-वैज्ञानिक यथार्थ” की मान्यता दी जाने लगी।
इस उपरोक्त संकट ने एक नई विचारधारा – संरचनावादी भाषाविज्ञान को जन्म दिया।
वास्तव में 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में, मानविकी के क्षेत्रों में विषयों और वस्तुओं की आंतरिक संरचना को प्रकट करने वाली एक ठोस वैज्ञानिक पद्धति के रूप में संरचनावाद का जन्म प्रत्यक्षवादी विकासक्रमवाद (Positivist-evolutionism) की प्रतिक्रिया के तौर पर हुआ था और इसी के समांतर संरचनावादी भाषाविज्ञान का विकास नवव्याकरणवाद के प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ था।
भाषा के अध्धययन की प्राचीनतम अवस्थाएं हमें प्राचीन यूनान और भारत में देखने को मिलती हैं । भारत में ऎन्द्र, शाक्तायन, य़ास्क आदि वैयाकरणों की पाणिनी पूर्व समय में लंबी परंपरा थी । वी.एन. वोलोशिनोव के अनुसार 5वीं-4थी शताब्दी ई.पू. में अफलातून के दार्शनिक संवादों में पहली बार विचारों को पाठ (Text) में रूपांतरण की परिकल्पनाअओं की एक पूरी व्यवस्था दिखती है। अफलातून का कहना था कि “वस्तुओं का सार तत्व (वस्तुगत विचार) आत्मगत मानव-संज्ञान में विविध पक्षों से परावर्तित होता है और उसी के अनुरूप विभिन्न नामों द्वारा निरूपित होता है। अरस्तु (4थी शताब्दी ई. पू.) ने भाषा को तर्कशास्त्र का पूरक अंग मानते हुए भी भाषा को अफलातून से अधिक महत्व दिया । अरस्तु पहले क्लासिकी (शास्त्रीय) चिंतक थे जिसने व्याकरणिक रूपों की समस्या को छुआ और शब्दों की विभिन्न व्याकरणिक कोटियों के लिए एक शब्दभेद-सिद्धांत विकसित किया । अरस्तु की तर्कशास्त्रीय-भाषावैज्ञानिक अवधारणा का आधार है – शब्द-अवधारणाओं (logoi) की व्यवस्था जो प्रवर्गों में बंट जाती है और अंत में वह उद्गारों (विचारों) और निर्णयों और उनके पूर्वापर संबंधों के विभिन्न प्ररूपों का विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
पाणिनी (5वीं-4थी शताब्दी ई.पू.) ने अफलातून और अरस्तु द्वारा आम दार्शनिक चिंतन के तन्तुबद्धीकरण की प्रक्रिया में भाषा पर चिंतन की प्रवृति से अलग हटकर भाषा-प्रश्न को एक स्वतंत्र-स्वायत्त प्रश्न के रूप में उठाया। व्याकरण की प्रसिद्ध पुस्तक ’अष्टाध्यायी’ के रचयिता पाणिनी ने अर्थ-विज्ञान (semantics) की किसी प्रणाली के बगैर ही संस्कृत के स्वर-विज्ञान (phonetics), आकृति/रूप-विज्ञान (Morphology), शब्द-संरचना और वाक्य-विन्यासगत तत्वों पर विस्तार से विचार किया। शब्द के मूल, प्रत्यय और धातु की अवधारणाएं तथा शब्दरूपों के निर्माण की अवधारणा प्रस्तुत करने वाले पहले व्यक्ति पाणिनी थे। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने यादॄच्छिक प्रतीकात्मक वर्णनात्मक भाषा का
प्रयोग किया। कई स्तरों पर पाणिनी का व्याकरण आधुनिक समय के भाषाशास्त्रीय अध्ययनों के स्तर का है।
19वीं शताब्दी से पहले तक समाज-विज्ञान या मानविकी की एक पॄथक शाखा के रूप में भाषा-विज्ञान का कोई अस्तित्व नहीं था। 18वीं शताब्दी के अंत तक यह तर्कशास्त्र से अलग नहीं माना जाता था। उस समय तक दर्शनशास्त्र और तर्कशास्त्र के एक अंग के तौर पर, चिंतन की अभिव्यक्ति के एकीकृत, सार्वभौमिक साधनों का अध्ययन भाषा-विज्ञान का विषय था। मानव-समाज की समस्त भौतिक एवं आत्मिक गतिविधियों का मुख्य आधार संकेत-प्रणाली के रूप में भाषा के विकास, उसकी प्रकृति और संरचना के अध्ययन के साथ-साथ, अव्यवस्थित ढ़ंग से ही सही, पर शताब्दियों तक दार्शनिक इन प्रश्नों पर भी विमर्श करते रहे कि भाषा किस सीमा तक मनुष्य को अन्य प्राणियों से अलग, विशिष्ट बनाती है और किस हद तक यह सामाजिक परिघटना है।
भाषा के संदर्भ में यह धारणा मार्क्सवाद के जन्म से पहले ही मान्यता प्राप्त कर चुकी थी कि भाषा एक सामाजिक परिघटना है जो मानव के क्रिया-कलापों के समन्वय का साधन (माध्यम) है। वी. एन. विलोशिनोव के अनुसार – ऎतिहासिक भौतिकवाद ने भाषावैज्ञानिक चिंतन को आगे बढ़ाते हुए उपरोक्त धारणा में यह बात जोड़ी कि भाषा सामाजिक उत्पादन के विकास के दौरान जन्म लेती है तथा उत्पादन-संबंधों के कुल योग के आधार पर जीवन की जो आम सामाजिक-बौद्धिक-राजनीतिक प्रक्रिया गतिमान होती है, उसका माध्यम बनने के साथ ही, उसके दौरान,उसके साथ-साथ, निरंतर विकसित भी होते रहती है।
उपरोक्त मत पर आज के संदर्भ में भाषा-विज्ञान के विकास का अध्ययन करते हुए ध्यान दिया जाए तो यह बहुत ही सटीक लगता है । भाषा-विज्ञान के विकास की अगली मंजिल १८वीं शताब्दी के अंत में ’ऎतिहासिक-तुलनात्मक अध्ययन पद्धति’ का भाषा-विज्ञान से जुड़ना है, जिसे भाषा-विज्ञान की परिपक्व अवस्था माना गया है। इसी ऎतिहासिक-तुलनात्मक भाषा-विज्ञान में १९वीं शताब्दी में एक और प्रशाखा ’नवव्याकरणवाद’ (Neogrammerianism) आया जिसका आधारभूत सिद्धांत जर्मन भाषावैज्ञानिक ओस्थोप और बुगमान ने अपनी पुस्तक ’Morphological studies in the Indo-Uropian Language’ (भाग-1,1878-1910) में तथा एच. पॉल ने ’ Principal of the History of the Language’ (1880) में प्रस्तुत किया। इन पुस्तकों को नवव्याकरणवाद का घोषणा-पत्र भी कहा जाता है।
नवव्याकरणवाद के साथ ही भाषावैज्ञानिक अध्ययन के विषय के भाषा और मानसिक स्थिति-संरचना के रूप में जारी विभाजन की प्रवृति भी सामने आई और भाषावैज्ञानिक अध्ययन में एक नकारात्मक प्रवृति यह विकसित हुई कि भाषा के तंत्र के सामग्रिक अध्ययन का स्थान अनेक छोटे-बड़े विश्लेषण (जैसे-ध्वनियॉं, शब्द-रूप आदि) ने ले लिया। इस दौरान व्यक्तिगत मनोविज्ञान और व्यक्तिगत वक्तृत्व (speech) की भूमिका बढ़ा-चढ़ा कर देखी जाने लगी और व्यक्ति के वक्तृत्व (speech) को “एकमात्र भाषा-वैज्ञानिक यथार्थ” की मान्यता दी जाने लगी।
इस उपरोक्त संकट ने एक नई विचारधारा – संरचनावादी भाषाविज्ञान को जन्म दिया।
वास्तव में 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में, मानविकी के क्षेत्रों में विषयों और वस्तुओं की आंतरिक संरचना को प्रकट करने वाली एक ठोस वैज्ञानिक पद्धति के रूप में संरचनावाद का जन्म प्रत्यक्षवादी विकासक्रमवाद (Positivist-evolutionism) की प्रतिक्रिया के तौर पर हुआ था और इसी के समांतर संरचनावादी भाषाविज्ञान का विकास नवव्याकरणवाद के प्रतिक्रिया स्वरूप हुआ था।
क्रमश: …
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