01 जनवरी 2010

बेवजह की भाषाई चिंता

बच्चा बाबू,
शोध छात्र, जनसंचार विभाग,
म.गा.अ.हि.वि.वि. वर्धा
हिंदी भाषा की स्थिति कहने मात्र से ही मन में अनगिनत सवालों का भंवरजाल बनता है। एक प्रश्न यह उठता है कि क्या हिंदी आज सिर्फ वर्चुअल भाषा बन कर रह गई है या सचमुच हिंदी एक सक्षम, संपन्न एवं नई पीढ़ी की भाषा बनकर उभरी है।
पिछले वर्षों में न्युयार्क में हुए हिंदी सम्मेलन में बड़ी उम्मीदें जगाई गईं कि हिंदी अब संयुक्त राष्ट्र की भी अधिकारिक भाषा बन जाएगी। परमाणु शक्ति और विश्व बाजार में अपनी पैठ के बाद भारत की इस भाषा को कुछ वर्षों में यह पद मिल जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। वैसे भी जब दुनिया को स्पेनी और फ्रांसिसी जैसे बहुत कम आबादी से जुड़े भाषाओं को अगर शुरु से ही यह गौरव प्राप्त है तो हिंदी ही वंचित क्यों रहे।
सर्वे कहता है कि हिंदी भाषा से जुड़े लोगों की तादाद दुनिया में दुसरे व तीसरे नंबर पर है। शायद इसलिए अपने राष्ट्र से निष्कासित होकर यह भाषा आज अंतरराष्ट्रीय होने जा रही है। कुछ माह पूर्व गुजरात से यह खबर आई कि सरकार बच्चों को पैदा होते ही अंग्रेजी सिखाने का विशेष अभियान चलायेगी। इस चमत्कारी कदम की सराहना करते हुए एक बड़े हिंदी अखबार ने अपने संपादकीय में उन तमाम हिंदी भाषी प्रदेशों को नसीहत भी दे डाली कि ये हिंदी भाषी राज्य किस अंधकार युग में जी रहे हैं- अंग्रेजी के बगैर।
परन्तु इसके विपरित हिंदी भाषा का एक दुसरा पहलू भी है जो यह कहता है कि हिंदी एक सक्षम, संपन्न एवं नई पीढ़ी की भाषा बनकर उभरी है। यह संसार भर में भाषाई विकास का अनुपम उदाहरण है कि इग्लैंड में अंग्रेजी को जहॉं तक पहुंचने में पॉंच सौ से उपर साल लगे, वहॉं तक पहुंचने में हिंदी को कुल मिलाकर डेढ़ सौ साल लगेंगे। 2050 तक हिंदी संसार की समृद्धतम भाषाओं में होगी। हिंदी ’ग्लोकुलन’ (globligation) के पहिए को वहन करने में सक्षम रही है। हिंदी रघुवीरी युग से निकलकर नए आयाम तलाश रही है और अगर इसका विस्तार हुआ है तो इसलिए कि यह हर दौर में अपने को समय की जरूरतों की वाहिका बनाती रही है।
आजादी के संघर्ष की भाषा के तौर पर हिंदी को अखिल भारतीय समर्थन आरंभ से ही मिल रहा था हिंदी न सिर्फ संवाद की भाषा बनी, बल्कि जनता की पुकार भी बनी। पत्रकारोम ने इसे मांझा और साहित्यकारों ने संवारा। परंतु आज कहा जा रहा है कि हिंदी पत्रकारिता भाषा को भ्रष्ट कर रही है। टी.वी. चैनलों ने तो हिंदी को घोर पतन के कगार पर ला खड़ा किया है मानो अब फिसली तब फिसली। मगर इस तरह की बात करने वाले मित्र यह भूल जाते हैं कि हिंदी लगातार बढ़ रही है तो वह इसलिए कि पिछले दस सदियों से वह अपने आपको हर बदलते समय के सांचे में ढालती रही है। नए समाज की नई जरूरतों के अनुसार नई शब्दावली बनाकर या उधार लेकर समृद्ध होती रही है। खुशी की बात यह है कि अब हिंदी शुद्धताऊ प्रभावों से मुक्त होती जा रही है और रघुवीरी युग को बहुत पीछे छोड़ चुकी है।
मैं नहीं मानता कि हिंदी पत्रकारिता की भाषा भ्रष्ट हो गई है। एक जमाना था जब हिंदी समाचारपत्र दुकानदारों, नौकरों और कम पढ़े-लिखे लोगों के अखबार माने जाते थे आज हिंदी पत्रकार नौजवान पीढ़ी के लिए अखबार निकाल रहे हैं। यह सच है कि नई सोसाइटी में रीडर बदल रहे हैं,भाषा बदल रही है, भाषा नीति में बदलाव आ गया है, टीवी चैनल सरपट दौड़ती जबान में गाड़ी दौड़ा रहे हैं परन्तु इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि हिंदी भ्रष्ट हो रही है।
सूचना प्रौद्योगिकी के दौर में रीयल टाइम की अवधारणा इंटरनेट के संदर्भ में ज्यादा सटीक साबित हुई है। आज हिंदी के लगभग सभी दैनिक समाचारपत्र वेब पर उपलब्ध हैं। हंस, तदभव, मधुमति जैसी कुछ पत्रिकाएं भी इंटरनेट पर उपलब्ध हैं। यूनिकोड (unicode) पद्धति के आने से वेब पर फॉन्ट की समस्याओं का निदान काफी हद तक हुआ है।
भारतीय अर्थव्यवस्था का लाभ उठाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियॉं अपना विज्ञापन हिंदी में देना ज्यादा लाभदायक समझ रही हैं, क्योंकि उन्हें अहसास हो गया है कि हिंदी में विज्ञापन दिए बिना हम इस देश की बहुसंख्यक जनता तक नहीं पहुंच सकते हैं। अर्थात् यह वह समय है जब पुरा विश्व हिंदी की ताकत को स्वीकार करने लगा है। अत: इस नवयुगी हिंदी का स्वागत करें और इसे खुले आसमान में स्वतंत्र उड़ने दें।

1 टिप्पणी:

  1. क्या इसके लेखक व्यवहार में जीते हैं ? या फिर उनको दुनिया की अन्य भाषाओं और अंग्रेजी की सही स्थिति का भान है ?

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