12 अप्रैल 2010

‘आखिर जो बचा’ उपन्यास की भाषा-शैली

एम.मंजुला

पी।एच.डी., हिंदी अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ


मानव के सामाजिक अथवा वैज्ञानिक जीवन की सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत करने वाली साहित्यिक विधाओं में उपन्यास है। इसमें मानव जीवन की यथार्थ गाथा व्यवहारिक भाषा में प्रस्तुत की जाती है। अथवा यूँ कह सकते हैं कि इस में मानव जीवन का प्रतिबिंब निहित है।
हिन्दी की तरह तेलुगु साहित्यिक जगत में 'नवला' (उपन्यास) आधुनिक युग की देन है। इसका इतिहास सन् 1872 में आरंभ हुआ। सन् 1872 से लेकर आज तक के समय को विद्वानों ने पाँच कालों में विभाजित किया। आरंभकाल, विकासकाल, काल्पनिककाल, (भाववाद), अभ्युदय काल (प्रगतिवादी-युग),समकालिनकाल। 'चिवरकुमिगिलेदि' (आखिर जो बचा) उपन्यास के लेखक श्री बुच्चिबाबु काल्पनिक काल के उपन्यासकार थे। इनसे लिखा गया एक मात्र मनो-विश्लेषणात्मक उपन्यास था 'चिवरकु मिगिलेदि'। बुच्चिबाबु कहानीकार के रुप में ही प्रसिद्ध थे। इनकी सारी कहानियाँ मनोविश्लेषणात्मक और स्त्री समस्याओं से संबंधित थी। अच्छे चित्रकार होने के नाते उनकी रचनाओं में भी चित्र दिखाई देते हैं। कोरे वर्णन के बदले रससिक्त वर्णनों को प्रमुखता देते थे। प्रमुख तेलुगु आलोचक कदंबरि किरण के अनुसार बुच्चिबाबु ने सौदर्यान्वेषण का जितना चित्रण किया उतना किसी अन्य उपन्यासकार ने नहीं किया ।बुच्चिबाबु मानते थे कि विषय जो भी हो उसका चित्रण करने की पद्धति पर ध्यान देना चाहिए। उनकी रचनाओं में इसी का चित्रण मिलता है। विवेच्च 'चिवरकु मिगिलेदि' तेलुगु उपन्यास का हिन्दी अनुवाद सुश्री दयावंती ने किया। सुश्री दयावंती आकाशवाणी में काम करती थीं। उन्होंने अनेक रेडियो कार्यक्रमों का अनुवाद किया। इनके साथ साथ उपन्यास, कहानियाँ और नाटकों का भी अनुवाद किया। प्रस्तुत लेख में मैं चिवरकु मिगिलेदि (आखिर जो बचा) की भाषा-शैली के बारे में अनुवाद के संदर्भ में चर्चा करना चाहती हूँ।

इस उपन्यास में उपन्यासकार ने नायक दयानिधि के पात्र में फ्रायड के मनोविश्लेषण सिध्दांत का पुर्ण चित्रण किया। नायक की माता का पात्र दिखाई नहीं देती, लेकिन उससे की गई गलती, छाया के रुप में नायक के पीछे घुमती रहती है। इसके कारण इसको समाज में विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पडता है। उपन्यास के अन्य पात्रों में राजभूषण, जगन्नाथ, नौकर नारय्या प्रमुख हैं तो स्त्री पात्रों में कामली, श्यामला, सुशीला, इंदिरा, कत्यायनी आदि प्रमुख हैं। उपन्यासकार ने इस उपन्यास में पढे-लिखे पात्रों की भाषा, अनपढ.पात्रों की भाषा में अंतर दिखाया और शब्दो का चयन भी पात्र के अनुसार किया। कथोपकथन की भाषा प्रवाहमय और संदर्भानुसार होती है। अनूदित कृति में भी अनुवादक ने इसी प्रकार की भाषा का प्रयोग किया।

तेलुगु हिन्दी दोनों में तत्सम शब्दों का प्रयोग मिलता है। दोनों भाषाओं में समानार्थी शब्द, मुहावरे मिलते हैं। इसलिए कुछ हद तक अनुवाद करना आसान लगता है, किंतु अनुवादक को भिन्नार्थी शब्द, आंचलिक शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियों का प्रयोग करते समय सावधानी से काम करना पडता है। सामान्य रूप से भाषा को दो आयामों में देखा जाता है- अभिव्यक्ति और कथ्य। अभिव्यक्ति के अंतर्गत शैली को भी स्थान दिया जाता हैँ।साहित्य में शैली के दो रूप देखने को मिलते हैं- गद्यात्मक शैली, पद्यात्मक शैली। ये दोनों साहित्यिक रूप हैं। शैली के दो भेद हैं। वर्णनात्मक शैली और विवरणात्मक शैली कथ्य के अनुसार शैली होती है। मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में खास कर वर्णनात्मक शैली दिखाई देती है। विवेच्य उपन्यास में भी उपन्यासकार बुच्चिबाबु ने मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के लिए वर्णनात्मक शैली का तथा विषयानुकूल भाषा का प्रयोग किया है। अनुवाद करते समय अनुवादक ने ज्यादातर शाब्दिक अनुवाद प्रस्तुत किया है।

उदा.- मूल: ''वेन्नेल नंग्नंगा कूर्चुनि तल्लो एर्रटि पिच्चि पुव्वुनि अमर्चुकुन्न्ट्लुगा उंदि'' इस वाक्य में अनुवादक ''वेन्नेल नग्नंगा कूर्चूनि (चांदनी नग्न रूप में बैठ कर) को 'नग्न चांदनी साकार हो' करके प्रस्तुत किया। मूल के रूपक अलंकार को अनुवाद में परिवर्तित किया गया।

मूल में 'एर्रनि पिच्चि पुल्लु' (लाल बेकार फूल) का प्रयोग नायिका कोमली के संस्कार और चरित्र की ओर संकेत करते हुए किया गया है। किन्तु अनुवाद में केवल लाल फूल कहा गया है। जिस से मूल लेखक के द्वारा प्रयुक्त व्यंगार्थ प्रकट नहीं होती।

इसी प्रकार लेखक लिखता है कोमली के सौंदर्य को देखकर वह हक्का - बक्का रह जाता है। तेलगु में उक्किरि-बिक्किरि शब्द का प्रयोग तो हिन्दी में निश्चेष्ट कहकर बताया। लेकिन उक्किरि- बिक्किरि का अर्थ अत्यंत आनंद के कारण बाते नहीं कर पाना और जोर से साँस लेना जैसा अनुभव होता है जो निश्चेष्ट शब्द द्वारा प्रकट नहीं होता। उपन्यासकार का मनोविश्लेषणात्मक और काव्यातत्मक भाषा शैली का प्रयोग नायक दयानिधि के इन बातों में मिलता है-

मूल प्रेम की द्वेषं मुगिंपु, यळानानिकि वांछ मुगिंपु, जीवितानिकि मृत्युवु मुगिंपु''

अनु: प्रेम का अन्त है द्वेष, यळान का अन्त है कामना, जीवन का अन्त है मृत्यु।

उपन्यास के अन्त में निधि के मनोविश्लेषण को उपन्यासकार ने भावुकता से युक्त विवरणात्मक शैली में और काव्यात्मक भाषा में प्रयुक्त किया है ।

मूल: ''मानवुडिकि कावलसिंदि दय - कोंचें, कास्त अइना चालु''

अनु: मनुष्य को धर्म, ईश्वर राजनीति की अपेक्षा नहीं। उसे चाहिए एक करूणा की एक कोर बस।''

अनुवाद में मूल का शाब्दिक अनुवाद किया गया। मूल के दया शब्द के बदले 'करूणा की एक कोर कहकर' भावानुवाद किया गया।

नौकर की बातों में अनपढ. गंवार व्यक्ति का शब्द देख सकते हैं । उदाहरण -

मूल: रंडि बाबुगोरू(आइए बाबुजी)

अनु: बाबु चलो।

मूल: सीकटि लो पुरूगु, पुट्रा उंटुंदि, बेगिरं रंडि।

अनु: अंधेरे में कोई कीडा वीड़ा काटेगा।

मूल: 'मीकु कोपं रादुगदांडि। मीरू दध्बबुनि पेंडिल चंसुको रादटाडि।'

अनु: बुरा न मानो तो आप झट पट शादी कर डालो।

मूल के संवाद में बदांडि, दब्बुनि, गोंरू आदि गवारूँ शब्दो का प्रयोग किया गया। अनुवाद में सामान्य संवादात्मक शैली के प्रयोग को अनुवादक ने मूल भाव को व्यक्त किया।

नायिका कोमली के बातो में भी ज्यादातर ग्रामीण शैली की झलक मिलती है।

मूल- ''नातो सहकट्लो यें पनि मीकु?रात्रि मा इंटिडि एप्पुडु। मा अम्म सूसिंदंटे तन्नुद्दि।''

अनु- इस अंधेंर में मुझसे क्या काम है? ऐसे अकेले में कभी मत आया करो। अम्मा देखेंगी तो मार-मार कचूमर निकाल देगी।

मूल में उपन्यासकार ने सीकट्लो, तन्नुद्दि, सूसिंदंटे आदि ग्रामीण शब्दों का प्रयोग किया। अनुवाद में अनुवादक ने ग्रामीण शब्दों का प्रयोग नहीं किया लेकिन मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करके भावानुवाद किया है।

इसी प्रकार कुछ हास्य व्यंग्य प्रयोगों का भी प्रवाहमय भाषा में अनुवाद किया गया।

मूल- 'ऐमेव इदि वेर्रियुगांदु, वागुडुन् कादु,नी कंटे भोंजनं चेस्ते मत्तुगा उंदि। नाक मांचि आकालिमीद उंदि कथा। वागकुंडा एल्ला उंडनु।'

अनु- दीदी अपन न तो पागल युवा हैं न ही पागलपन ने घेरा है, तुम तो पेटभर खाकर उँध रही हो। अपने राम की राम कहानी भूखी पीढी़ मे जी रहे हैं।

मूल कृति के वाक्यों में ग्रंथिक शैली और ग्रामीण शैली का मिश्रण करके जगन्नाथम् के शब्दो में हास्य व्यंग्य की ध्वनि से जो भाषा प्रयुक्त हुई है उस का अनुवाद करने में अनुवादक को कठिनाई उपस्थित हुई होगी। फिर भी यथासंभव मूल कृति के अनुकुल भाव शैली में भावानुवाद शब्दानुवाद प्रस्तुत किया था।

राजभूषणं के शब्दों मे रचनाकार नास्तिकवाद से संबंधित कुछ बातों को प्रस्तुत किया।

मूल: ''ना उद्देषंलो, अंदरि अनुभवं लोनु गीतापारायणं, योगं, उपासना, प्रार्थना, यात्रा, यज्ञं वाटि वलन बाध, दु:खं, पाप-इवि तोलगिपोवडमनेदि कल्ल। देबुन्नि प्रार्थचिंडं, ओक लंचं इवूडं किंद उंटोदि। ई प्रेम, षक्ति लेनि दैवं माकु अक्क्रलेदु।''

अनु: मुझे तो लगता है आपके उपदेशों के कारण आपके बताये रास्तों से दु:ख व्यथा,पाप आदि परदा हटने जैसा अनुभव हरएक के जीवन में संभव नही होता। भगवान की प्रार्थना एक रिश्वत देने जैसी होता है। सचमुच ऐसे भगवान न होना अच्छा है। प्यार, शक्ति न होनेवाला भगवान हमें नहीं चाहिए।

अनुवाद में शाब्दिक और भावानुवाद के द्वारा अनुवाद में मूल के आशय को यथासंभव स्पष्ट किया। उपयुक्त शैली का भी प्रस्तुत किया गया। तेलुगु भाषा में रिश्तेदारों के संबोधन में अलग-अलग शब्द का प्रयोग करते हैं। तेलुगु में ममेरा भाई तथा फुफेरा भाई को 'बाबा' कहा जाता है जो हिन्दी भाषा के 'जीजाजी 'या बहनोई का समानार्थि है। अतएव जहाँ कहीं मूलकृति में इस 'बाबा' शब्द का प्रयोग फुफेरा भाई के रूप में प्रस्तुत किया है वहाँ जीजाजी का प्रयोग किया लेकिन वह मूल के आशय को प्रकट करने में असमर्थ है।

इस तरह कुछ सीमाओं को छोडकर शेष अनुवाद की भाषा शैली मूल रचना की शैली की तरह ही आकर्षक तथा प्रभावशाली बन पडी है। अनूदित रचना की भाषा भी प्रवाहमय, ओजपूर्ण, संवादों से युक्त है। इस मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास का हिन्दी भाषियों तक लाने में अनुवादक सुश्री दयावंती सफल हुई हैं।

मानव के सामाजिक अथवा वैज्ञानिक जीवन की सुन्दर व्याख्या प्रस्तुत करने वाली साहित्यिक विधाओं में उपन्यास है। इसमें मानव जीवन की यथार्थ गाथा व्यवहारिक भाषा में प्रस्तुत की जाती है। अथवा यूँ कह सकते हैं कि इस में मानव जीवन का प्रतिबिंब निहित है।
हिन्दी की तरह तेलुगु साहित्यिक जगत में 'नवला' (उपन्यास) आधुनिक युग की देन है। इसका इतिहास सन् 1872 में आरंभ हुआ। सन् 1872 से लेकर आज तक के समय को विद्वानों ने पाँच कालों में विभाजित किया। आरंभकाल, विकासकाल, काल्पनिककाल, (भाववाद), अभ्युदय काल (प्रगतिवादी-युग),समकालिनकाल। 'चिवरकुमिगिलेदि' (आखिर जो बचा) उपन्यास के लेखक श्री बुच्चिबाबु काल्पनिक काल के उपन्यासकार थे। इनसे लिखा गया एक मात्र मनो-विश्लेषणात्मक उपन्यास था 'चिवरकु मिगिलेदि'। बुच्चिबाबु कहानीकार के रुप में ही प्रसिद्ध थे। इनकी सारी कहानियाँ मनोविश्लेषणात्मक और स्त्री समस्याओं से संबंधित थी। अच्छे चित्रकार होने के नाते उनकी रचनाओं में भी चित्र दिखाई देते हैं। कोरे वर्णन के बदले रससिक्त वर्णनों को प्रमुखता देते थे। प्रमुख तेलुगु आलोचक कदंबरि किरण के अनुसार बुच्चिबाबु ने सौदर्यान्वेषण का जितना चित्रण किया उतना किसी अन्य उपन्यासकार ने नहीं किया ।बुच्चिबाबु मानते थे कि विषय जो भी हो उसका चित्रण करने की पद्धति पर ध्यान देना चाहिए। उनकी रचनाओं में इसी का चित्रण मिलता है। विवेच्च 'चिवरकु मिगिलेदि' तेलुगु उपन्यास का हिन्दी अनुवाद सुश्री दयावंती ने किया। सुश्री दयावंती आकाशवाणी में काम करती थीं। उन्होंने अनेक रेडियो कार्यक्रमों का अनुवाद किया। इनके साथ साथ उपन्यास, कहानियाँ और नाटकों का भी अनुवाद किया। प्रस्तुत लेख में मैं चिवरकु मिगिलेदि (आखिर जो बचा) की भाषा-शैली के बारे में अनुवाद के संदर्भ में चर्चा करना चाहती हूँ।

इस उपन्यास में उपन्यासकार ने नायक दयानिधि के पात्र में फ्रायड के मनोविश्लेषण सिध्दांत का पुर्ण चित्रण किया। नायक की माता का पात्र दिखाई नहीं देती, लेकिन उससे की गई गलती, छाया के रुप में नायक के पीछे घुमती रहती है। इसके कारण इसको समाज में विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करना पडता है। उपन्यास के अन्य पात्रों में राजभूषण, जगन्नाथ, नौकर नारय्या प्रमुख हैं तो स्त्री पात्रों में कामली, श्यामला, सुशीला, इंदिरा, कत्यायनी आदि प्रमुख हैं। उपन्यासकार ने इस उपन्यास में पढे-लिखे पात्रों की भाषा, अनपढ.पात्रों की भाषा में अंतर दिखाया और शब्दो का चयन भी पात्र के अनुसार किया। कथोपकथन की भाषा प्रवाहमय और संदर्भानुसार होती है। अनूदित कृति में भी अनुवादक ने इसी प्रकार की भाषा का प्रयोग किया।

तेलुगु हिन्दी दोनों में तत्सम शब्दों का प्रयोग मिलता है। दोनों भाषाओं में समानार्थी शब्द, मुहावरे मिलते हैं। इसलिए कुछ हद तक अनुवाद करना आसान लगता है, किंतु अनुवादक को भिन्नार्थी शब्द, आंचलिक शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियों का प्रयोग करते समय सावधानी से काम करना पडता है। सामान्य रूप से भाषा को दो आयामों में देखा जाता है- अभिव्यक्ति और कथ्य। अभिव्यक्ति के अंतर्गत शैली को भी स्थान दिया जाता हैँ।साहित्य में शैली के दो रूप देखने को मिलते हैं- गद्यात्मक शैली, पद्यात्मक शैली। ये दोनों साहित्यिक रूप हैं। शैली के दो भेद हैं। वर्णनात्मक शैली और विवरणात्मक शैली कथ्य के अनुसार शैली होती है। मनोवैज्ञानिक उपन्यासों में खास कर वर्णनात्मक शैली दिखाई देती है। विवेच्य उपन्यास में भी उपन्यासकार बुच्चिबाबु ने मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के लिए वर्णनात्मक शैली का तथा विषयानुकूल भाषा का प्रयोग किया है। अनुवाद करते समय अनुवादक ने ज्यादातर शाब्दिक अनुवाद प्रस्तुत किया है।

उदा.- मूल: ''वेन्नेल नंग्नंगा कूर्चुनि तल्लो एर्रटि पिच्चि पुव्वुनि अमर्चुकुन्न्ट्लुगा उंदि'' इस वाक्य में अनुवादक ''वेन्नेल नग्नंगा कूर्चूनि (चांदनी नग्न रूप में बैठ कर) को 'नग्न चांदनी साकार हो' करके प्रस्तुत किया। मूल के रूपक अलंकार को अनुवाद में परिवर्तित किया गया।

मूल में 'एर्रनि पिच्चि पुल्लु' (लाल बेकार फूल) का प्रयोग नायिका कोमली के संस्कार और चरित्र की ओर संकेत करते हुए किया गया है। किन्तु अनुवाद में केवल लाल फूल कहा गया है। जिस से मूल लेखक के द्वारा प्रयुक्त व्यंगार्थ प्रकट नहीं होती।

इसी प्रकार लेखक लिखता है कोमली के सौंदर्य को देखकर वह हक्का - बक्का रह जाता है। तेलगु में उक्किरि-बिक्किरि शब्द का प्रयोग तो हिन्दी में निश्चेष्ट कहकर बताया। लेकिन उक्किरि- बिक्किरि का अर्थ अत्यंत आनंद के कारण बाते नहीं कर पाना और जोर से साँस लेना जैसा अनुभव होता है जो निश्चेष्ट शब्द द्वारा प्रकट नहीं होता। उपन्यासकार का मनोविश्लेषणात्मक और काव्यातत्मक भाषा शैली का प्रयोग नायक दयानिधि के इन बातों में मिलता है-

मूल प्रेम की द्वेषं मुगिंपु, यळानानिकि वांछ मुगिंपु, जीवितानिकि मृत्युवु मुगिंपु''

अनु: प्रेम का अन्त है द्वेष, यळान का अन्त है कामना, जीवन का अन्त है मृत्यु।

उपन्यास के अन्त में निधि के मनोविश्लेषण को उपन्यासकार ने भावुकता से युक्त विवरणात्मक शैली में और काव्यात्मक भाषा में प्रयुक्त किया है ।

मूल: ''मानवुडिकि कावलसिंदि दय - कोंचें, कास्त अइना चालु''

अनु: मनुष्य को धर्म, ईश्वर राजनीति की अपेक्षा नहीं। उसे चाहिए एक करूणा की एक कोर बस।''

अनुवाद में मूल का शाब्दिक अनुवाद किया गया। मूल के दया शब्द के बदले 'करूणा की एक कोर कहकर' भावानुवाद किया गया।

नौकर की बातों में अनपढ. गंवार व्यक्ति का शब्द देख सकते हैं । उदाहरण -

मूल: रंडि बाबुगोरू(आइए बाबुजी)

अनु: बाबु चलो।

मूल: सीकटि लो पुरूगु, पुट्रा उंटुंदि, बेगिरं रंडि।

अनु: अंधेरे में कोई कीडा वीड़ा काटेगा।

मूल: 'मीकु कोपं रादुगदांडि। मीरू दध्बबुनि पेंडिल चंसुको रादटाडि।'

अनु: बुरा न मानो तो आप झट पट शादी कर डालो।

मूल के संवाद में बदांडि, दब्बुनि, गोंरू आदि गवारूँ शब्दो का प्रयोग किया गया। अनुवाद में सामान्य संवादात्मक शैली के प्रयोग को अनुवादक ने मूल भाव को व्यक्त किया।

नायिका कोमली के बातो में भी ज्यादातर ग्रामीण शैली की झलक मिलती है।

मूल- ''नातो सहकट्लो यें पनि मीकु?रात्रि मा इंटिडि एप्पुडु। मा अम्म सूसिंदंटे तन्नुद्दि।''

अनु- इस अंधेंर में मुझसे क्या काम है? ऐसे अकेले में कभी मत आया करो। अम्मा देखेंगी तो मार-मार कचूमर निकाल देगी।

मूल में उपन्यासकार ने सीकट्लो, तन्नुद्दि, सूसिंदंटे आदि ग्रामीण शब्दों का प्रयोग किया। अनुवाद में अनुवादक ने ग्रामीण शब्दों का प्रयोग नहीं किया लेकिन मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करके भावानुवाद किया है।

इसी प्रकार कुछ हास्य व्यंग्य प्रयोगों का भी प्रवाहमय भाषा में अनुवाद किया गया।

मूल- 'ऐमेव इदि वेर्रियुगांदु, वागुडुन् कादु,नी कंटे भोंजनं चेस्ते मत्तुगा उंदि। नाक मांचि आकालिमीद उंदि कथा। वागकुंडा एल्ला उंडनु।'

अनु- दीदी अपन न तो पागल युवा हैं न ही पागलपन ने घेरा है, तुम तो पेटभर खाकर उँध रही हो। अपने राम की राम कहानी भूखी पीढी़ मे जी रहे हैं।

मूल कृति के वाक्यों में ग्रंथिक शैली और ग्रामीण शैली का मिश्रण करके जगन्नाथम् के शब्दो में हास्य व्यंग्य की ध्वनि से जो भाषा प्रयुक्त हुई है उस का अनुवाद करने में अनुवादक को कठिनाई उपस्थित हुई होगी। फिर भी यथासंभव मूल कृति के अनुकुल भाव शैली में भावानुवाद शब्दानुवाद प्रस्तुत किया था।

राजभूषणं के शब्दों मे रचनाकार नास्तिकवाद से संबंधित कुछ बातों को प्रस्तुत किया।

मूल: ''ना उद्देषंलो, अंदरि अनुभवं लोनु गीतापारायणं, योगं, उपासना, प्रार्थना, यात्रा, यज्ञं वाटि वलन बाध, दु:खं, पाप-इवि तोलगिपोवडमनेदि कल्ल। देबुन्नि प्रार्थचिंडं, ओक लंचं इवूडं किंद उंटोदि। ई प्रेम, षक्ति लेनि दैवं माकु अक्क्रलेदु।''

अनु: मुझे तो लगता है आपके उपदेशों के कारण आपके बताये रास्तों से दु:ख व्यथा,पाप आदि परदा हटने जैसा अनुभव हरएक के जीवन में संभव नही होता। भगवान की प्रार्थना एक रिश्वत देने जैसी होता है। सचमुच ऐसे भगवान न होना अच्छा है। प्यार, शक्ति न होनेवाला भगवान हमें नहीं चाहिए।

अनुवाद में शाब्दिक और भावानुवाद के द्वारा अनुवाद में मूल के आशय को यथासंभव स्पष्ट किया। उपयुक्त शैली का भी प्रस्तुत किया गया। तेलुगु भाषा में रिश्तेदारों के संबोधन में अलग-अलग शब्द का प्रयोग करते हैं। तेलुगु में ममेरा भाई तथा फुफेरा भाई को 'बाबा' कहा जाता है जो हिन्दी भाषा के 'जीजाजी 'या बहनोई का समानार्थि है। अतएव जहाँ कहीं मूलकृति में इस 'बाबा' शब्द का प्रयोग फुफेरा भाई के रूप में प्रस्तुत किया है वहाँ जीजाजी का प्रयोग किया लेकिन वह मूल के आशय को प्रकट करने में असमर्थ है।

इस तरह कुछ सीमाओं को छोडकर शेष अनुवाद की भाषा शैली मूल रचना की शैली की तरह ही आकर्षक तथा प्रभावशाली बन पडी है। अनूदित रचना की भाषा भी प्रवाहमय, ओजपूर्ण, संवादों से युक्त है। इस मनोविश्लेषणात्मक उपन्यास का हिन्दी भाषियों तक लाने में अनुवादक सुश्री दयावंती सफल हुई हैं।

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