भाषा के संबंध में कुछ कहना और भाषा के माध्यम से कुछ कहना, दोनों भिन्न संकल्पनाएँ होते हुए भी एक पुल के दो छोर हैं, जिससे होकर गुजरने के लिए व्यक्ति को एक दूसरे के संपर्क में आना ही पड़ता है। इसी संपर्क बिंदु पर भाषा के नए आयाम खुलते भी हैं और जुड़ते भी हैं। चाहे वह –वाद (-ism) के रूप में हो या –करण (-tion) के रूप में। परंतु यह उन व्यक्तियों पर कदाचित् लागू नहीं होती, जिनके लिए भाषा संप्रेषण का माध्यम मात्र है। हाँ, उनके लिए यह रोचक और चिंतनीय विषय अवश्य है, जो भाषा के रहस्य को जानने और समझाने का दावा करते हैं। हिंदी के संदर्भ में यह बात और अधिक रोचक इसलिए भी है क्योंकि भारतेंदुयुगीन काल से लेकर अब तक के हिंदी ने अपना जो स्वरूप गढ़ा है और अपने परिवर्तनशील स्वरूप के साथ स्वयं को जिस प्रकार स्थापित किया है, उसके लिए हिंदीभाषी समाज स्वयं को सामने लाने में कभी नहीं हिचकिचाता। परंतु इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि आज हिंदी जिस राजनीतिक आवरण से लिपट कर ग्लोबलाइज़ेशन जैसी संकल्पना को प्रस्तुत कर रही है, इससे यह जाहिर होता है कि अब यह क्षेत्र ‘क’ के साथ ‘ख’ और ‘ग’ में भी समान प्रतिष्ठा पा चुकी है। दो भिन्न भाषाओं के संपर्क में आने के फलस्वरूप, अनुवाद के माध्यम से हिंदी का जो रूप दृष्टिगोचर होता है, उसके लिए हिंदीभाषी समाज स्वयं को पूर्णत: जिम्मेदार नहीं मान सकता। स्पष्ट है कि सूचना-प्रौद्योगिकी के आगमन से हिंदी का गाँव इतना विस्तृत हो चुका है कि उसका अस्तित्व हर घर में किसी न किसी रूप में उपस्थित है।
इसी परिप्रेरक्ष्य में इस अंक का कलेवर तैयार हुआ है। संरचनावादी और मार्क्सवादी भाषा चिंतन के आलोक में भाषा विषयक जो समग्री प्रस्तुत की गई है, उससे भाषा को देखने की अलग दृष्टि मिलेगी। भूमंडलीकरण की संकल्पना में हिंदी का जो रूप प्रस्तुत हुआ है, वह इसकी वर्तमान स्थिति के साथ, नवीन विश्लेषण पद्धति को अपनाने की ओर भी संकेत करती है। समाज के संसर्ग में भाषा का रूप परिवर्तित होता है। इसी संदर्भ में मगही बोली तथा प्रयोग-क्षेत्र एवं प्रयुक्ति के रूप में प्रायोगिक तथ्य प्रस्तुत हुए हैं। साथ ही प्रकारांतर से प्रौद्योगिकी संबंधित अनेक विषयों लिपि, शब्द और अनुवाद पर विचार उकेरे गए हैं और मशीनी अनुवाद जैसे गूढ़ विषय को लेकर व्याकरण संबंधित जो तथ्यात्मक विवरण प्रस्तुत किए गए हैं, उससे पाठक लाभांवित हो सकेंगे।
09 अप्रैल, 2009 को इस पत्रिका के प्रथमांक प्रकाशित होने पर यह अनुमान भी नहीं लगाया गया होगा कि लगभग आमजन से अनभिज्ञ विषय एवं अत्यल्प पाठक वर्ग की उपस्थिति में यह पत्रिका विकास के इस चरण पर आकर खड़ी होगी। यह उन सबके प्रयास का ही परिणाम है, जिनके लेख और प्रतिक्रियाएँ हमें उत्साहित करते रहे। इसके लिए उन सभी को बधाई और इस आशा के साथ, प्रस्तुत अंक के सभी लेखकों एवं कार्यकर्ताओं का धन्यवाद कि यह पत्रिका भावी पीढ़ी के लिए भाषा संबंधित परंपरा और संभावना के अंतर को पारदर्शित करने में सहायक सिद्ध होगी।
करूणा निधि
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