12 अप्रैल 2010

भूमण्डलीकरण के दौर में हिन्दी

-डॉ. अनिल कुमार दुबे

व्‍याख्‍याता, भाषा विद्यापीठ


समाजिक-आर्थिक संबंधो का संपूर्ण विश्व तक विस्तार वैश्वीकरण या भूमंण्डलीकरण है। भूमंण्डलीकरण को लेट कैपिटलिज्म का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण माना गया है। इससे उत्पादन साधनों, विशेषकर पूंजी के विश्वव्यापी अबाधित प्रवाह से लिया जाता है, जिसमें सूचना संजाल की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। परिणमस्वरुप सारा विश्व एक गाँव या एक बाजार बन जाता है, तथा राष्ट्र -राज्य की भौगोलिक सीमाएं अप्रासंगिक हो जाती हैं। संसार में कुछ भी, कहीं भी बेचा या खरीदा जा सकता है। उत्पादन और प्रबंधन की तकनीकों में तीव्रगामी सुधार और प्रतियोगिता को एक मूल्य मान लिए जाने के कारण करीब-करीब दूसरी औद्योगिक क्रांति की स्थितियां उपस्थित हो गई हैं। उपभोक्ता, कीमत के प्रति और उत्पादक, लागत के प्रति अत्यंत सतर्क होते हैं। ये ग्लोबल कंपनी इस अर्थ में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी से भिन्न होती हैं कि वह सभी स्थानों पर बिल्कुल समान, एक सी वस्तु बेचती हैं। स्थानीक आधार पर पाया जानेवाला रुची-वैविध्य घटता जाता है और इसके बरअक्स सभी स्थानों पर रुचियों में एक जैसा पन आने लगता है। इसके परिणामस्वरुप उत्पाद, उत्पादन-विधियों, विक्रय और वित्त इत्यादि से संबंधित वैश्विक मानक व्यव्हृत होने लगते हैं, क्योंकि समूचे विश्व में बेची जा रही वस्तु में कृत्रिम अंतर नहीं है और वह एक वैश्विक मानकीकरण के अंतर्गत है कि स्पर्धा भी वैश्विक ही होगी।

परंतु साथ ही उतना ही सच है कि एक ग्लोबल कंपनी स्थानीय बाजार, वहाँ की संस्कृति तथा उपभोक्ताओं कि प्राथमिकताओं आदि को जानने में अधिक दिलचस्पी रखती है। सोनी कार्पोरेशन के अकीओ मोरिता इसे ''वैश्विक स्थानिकरण'' अथवा ''मल्टीनैशनल्स'' का उदय कहते हैं। बाजार ही चीज के सापेक्षिक महत्व को निर्धारित करने लगता है। बाजार में जो योग्यतम सिध्द होगा वही टिकेगा। जीवन के सभी पहलू जिस केन्द्र से नियंत्रित और निर्देशित होंगे वह है बाजार।

जहाँ तक भाषा का सवाल है,बाजार इस बात को अपने हित में मानता है कि भाषाओं की संख्या जितनी कम हो सके हो, इतनी अधिक भाषाओं की क्या जरुरत है? यही नहीं एक भाषा में भी एकाधिक यानी पर्यायवाची शब्दों की जरुरत नहीं है। हम साफ देख सकते हैं कि आज हमारा शब्द-भंडार किस तेजी से घट रहा है। यह सच है कि कंप्यूटर आदि से संबध्द ढेरों नए शब्द हमारी शब्दावली में शामिल हुए हैं परंतु अब हम अपने दादा -परदादा की तरह बहुत सारी वनस्पतियों, कीटों और बहुत-सी दूसरी चीजों के नाम नहीं जानते। बाजार हमारे घर बल्कि दिलोदिमाग में भी घुसता जा रहा है और हम बडी तेजी से, शब्दों के रसिक नहीं, शब्दों के उपभोक्ता बनते जा रहे हैं।ऐसे में, जैसा कि यूनेस्को की एक रिपोर्ट बताती है कि हर वर्ष संसार से अनेक जैविक प्रजातियों की ही तरह बीसियों भाषाएं भी सदा के लिए लुप्त होती जा रही हैं। अंतत: कुछ बडी सक्षम भाषाएं ही शायद बची रह पाएँ।

इस दृष्टि से, किसी विश्वसनीय निष्कर्ष तक पहँचने में सहायक हो सके ऐसा कोई विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन या आंकडे उपलब्ध नहीं हैं।

ऐसे में, यह संभावना अधिक आशाजनक नहीं लगती कि निजी क्षेत्र में राजभाषा संबंधी प्रावधानों को लागू किया जाए। वैसे भी हिस्सेदारी वाले निजी उपक्रमों में तो ये प्रावाधन लागू होंगे ही। पर इससे शायद ही कोई अंतर पडे।

अधिकतर लोगों को हिंदी की अपेक्षा अंग्रेजी में रोजगार की विश्वव्यापी संभावनाएं दिखाई पड़ने लगी है। सॉफ्टवेयर क्षेत्र में अमेरिका तथा पश्चिमी राष्टों में भारतायों ने चीनियों आदि को पीछे छोड़ते हुए अपने ज्ञान की भी अहम भूमिका का परिचय दिया है। चीन और जापान जैसे देश तक में अब अंग्रेजी का प्रचार -प्रसार बढ़ रहा है।

यह सच है कि हिंदी के उद्भव और विकास का समूचा कालखंड उसके लिए निहायत प्रतिकूल रहा है और स्वाधीनता से पूर्व तक वह प्रायः राजाश्रय विहीन ही रही. हिंदी मूलतः भारतीय जन की ओर जन-प्रतिरोध की ही भाषा रही है. लेकिन वर्तमान सांस्कृतिक भूमंडलीकरण ने हिंदी के समक्ष अत्यंत गंभीर तथा अभूतपूर्व चुनौती प्रस्तुत की है. सांस्कृतिक भूमंडलीकरण तो आर्थिक भूमंडलीकरण के बाद होना ही है. भूमंडलीकरण के एक निहितार्थ के तौर पर कह सकते हैं कि बाजार की शक्तियों व बाजारवाद के लिए पोषक संस्कृति और उस संस्कृति पर पश्चिमी अमरिकी वर्चस्व। सांस्कृतिक वर्चस्व के लिए जैसा कि हावर्ट शीलर जैसे विचारकों का मत है भाषा माध्यम पर वर्चस्व जरूरी है. यूं तो ’वर्चस्व’ शब्द का उपयोग मुख्य रूप से सत्ता और राजनीति के संदर्भ में ही होता आया है. पर विगत वर्षों में इसे संस्कृति और भाषा के क्षेत्रों में भी लागू किया जा रहा है. अन्य विकासशील देशों की तरह ही भारत और उसकी राजभाषा। राष्ट्रभाषा हिंदी भी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद से दो-चार है।

मीडिया इत्यादि के द्वारा बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सांस्कृतिक उत्पादों के लगातार विकाशशील देशों में प्रवेश के चलते यहां की संस्कृति तथा भाषाओं के लिए खतरा पैदा हो गया है. इंटरनेट, टी.वी. चैनल और सिनेमा जैसे माध्यमों के जरिए अंग्रेजी की पैठ बढती जा रही है या वह हमारे यहां एक ग्लोबल भाषा के रूप में पैर जमाती जा रही है इसके विपरीत हमारे सांस्कृतिक उत्पादों के लिए अमरीका आदि में अत्यल्प बाजार है।

इसमें संदेह नहीं कि अपने उद्भव - काल से ही हिंदी को निरन्तर प्रतिकूलताओं से सामना करते रहना पडा है। स्वतंत्रता से पूर्व वह कभी राजभाषा या राज्याश्रय-प्राप्त भाषा नहीं थी। पर वह जनप्रतिरोध की भाषा, जन-आकांक्षा का खुला मंच और इस महादेश की संश्लिष्ट, सामासिक- संस्कृति की सशक्त पहचान बनकर जनभाषा बनी। उपमहाद्वीप के प्राय: हर क्षेत्र में न्युनाधिक रूप में हिंदी की उपस्थिति उसकी विलक्षण क्षमता की परिचायक हैं। हिंदी की इसी क्षमता को पहचानते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तथा अन्य राष्ट्रनायकों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा की सम्मानयुक्त संज्ञा दी। लेकिन स्वतंत्रता के बाद देश में स्थितियों ने हिंदी के मार्ग को और अधिक कंटकाकीर्ण बना दिया। हालांकि इन स्थितियों को भारतीय राष्ट्र-राज्य की समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में ही देखा-समझा जाना होगा। पहले के हिंदी-उर्दू या हिंदी-हिन्दुस्तानी विवाद तो अब प्राय: अप्रासंगिक हो चले, लेकिन क्षेत्रीय अस्मिताओं के उभार ने राष्ट्रीय अस्मिता और उसका प्रतिनिधित्व कर रही हिंदी को कमजोर करने की दिशा में काम किया। 'अंग्रेजी हटाओ' या 'हिंदी लाओ' जैसे नारों ने हिंदी या राजभाषा के सवाल को सुलझाने की बजाय और उलझा दिया। भाषा को लेकर संकीर्णताओं ने नए दायरे खडे करने के प्रयास चलते रहे। उत्तर बनाम दक्षिण और आर्य बनाम द्रविड जैसे विवादों को वोट की राजनीति ने हवा दी और परिणामत: जहाँ एक ओर नवोदित राष्ट्र के पुनर्गठना की विसंगतियों को चौडा किया गया वहीं एक अंतरदेशीय सांस्कृतिक सेतु के रूप में हिंदी की स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पडा। क्षेत्रीय तथा उप क्षेत्रीय अस्मिता के पक्षधर राजनीतिज्ञों ने अगर मातृभाषाओं के साथ-साथ हिंदी को भी जोडा होता तो कदाचित आज वैश्वीकरण की चुनौती का सामना करने की दृष्टि से हिंदी अधिक अच्छी स्थिति में होती। पर आज तो हम देख रहें हैं कि राजस्थानी और भोजपुरी जैसी हिंदी की बोलियों को ही हिंदी के समानान्तर खडा किया जा रहा है। आशा की जा सकती है कि यह एक अस्थायी प्रवृत्ति ही साबित हो।

आज हिंदी अपने लचीलेपन का पूर्वापेक्षा अधिक परिचय दे रही है। उर्दू, अंग्रेजी, अन्य भारतीय भाषाओं तथा अपनी बोलियों से हिंदी उदारतापूर्वक शब्द ग्रहण कर रही है। फिर भी भाषा के कुछ स्वयंभु खलीफा हिंदी को और अधिक सरल बनाए जाने का राग अलापते रहते हैं। हालाकिं ऐसी सलाह कोई अंग्रेजी के लिए नहीं देता ।

राष्ट्रलिपि देवनागरी तो और भी अधिक बडी चुनौती से दो चार है। देश विदेश में हिंदी की लिपि के रूप में रोमन का व्यवहार दैनिक जीवन में बढा है। भारत देवनागरी के जरिये ही अपने प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की महान विरासत से जुडा रह सकता है।

हिंदी पुस्तकों के प्रकाशन तथा विक्री के आकडे देकर यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि हिंदी की लोकप्रियता बढ. रही है। लेकिन ऎसे दावे भी अंशत: ही ठीक हैं। हिंदी पुस्तकों की बिक्री मुख्यत: सरकारी तथा संस्थागत खरीद तक ही सीमित है।

निष्कर्षत: कहना पड़ता है कि निकट भविष्य में हिंदी की स्थिति में सुधार और सच्चे अर्थो में उसके राजभाषा बनने की संभावना बहुत कम है। विदेशों में रहनेवाले भारतीयों के लिए भी हिंदी का महत्व अधिकांश में प्रतीकात्मक ही है। अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी का अध्यापन बंद होता जा रहा है, जैसा कि हाल ही में कैम्ब्रिज में हुआ। जहॉ हिंदी पढ़ाई भी जा रही है वहॉ छात्रों की संख्या अत्यल्प है। ऐसे में हिंदी के बोली मात्र बन कर रह जाने का खतरा अवास्तविक नहीं कहा जा सकता।


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