भर्तृहरि का व्यक्तित्व युगांतरकारी था। वह परम योगीराज, वेदों के अप्रतिम ज्ञाता, अग्रणी कवि, महावैयाकरण और परम पदवाक्यप्रमाणज्ञ भी थे। उनका स्त्रोत नाथपंथियों की परंपरा रही हो या बौद्ध साधकों की परंपरा। पश्चिम में प्रमाणिक समझा जाने वाला चीनी यात्री इत्सिंग ही एकमात्र ऐसा विदेशी इतिहासकार है, जिसने भर्तृहरि का उल्लेख किंचित विस्तार से दिया है। किंतु यह परिचय स्वत: किवदंतियों एवं जनश्रुतियों पर आधारित है। वैयाकरणों के वक्तव्यों और ग्रथों के अतिरिक्त भर्तृहरि के इस वैयाकरण रूप का परिचय हमें उनके सम्बद इत्सिंग की उक्ति से ही मिलता है। जहां तक उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृतियां ''महाभाष्यटीका एवं वाक्यपदीय'' का संबंध है। परंतु भर्तृहरि के संबंध में इत्सिंग का शेष वक्तव किंवदतियों एवं जनश्रुतियों पर आधारित है। उनके कथानुसार पूर्वोक्त दोनों स्त्रोतों से उपलब्ध तथ्य उन्हें स्वीकार थे और बौध्द परंपरा में गृहस्थ और संन्यास के बीच आवागमन की छूट दी है। इसीलिए यह वक्तव उन्हें बौध्द सिध्द करने का पर्याप्त आधार माना जा सकता है। इसके आधार पर भर्तृहरि का जीवनकाल 600 से 650 ईस्वी के आसपास का माना जा सकता है। महावैयाकरण भर्तृहरि का काल ''कोशिका'' की रचना सातवीं शती ई. से पूर्व ही होना चाहिए। अत: पांचवीं शती के आरंभ से लेकर छठी शती के आरंभ के बीच उनका काल रखना अधिक उचित है।
भर्तृहरि की कृतियां:-
श्री युधिष्ठिर मीमांसक ने विविध प्राचीन उल्लेखों के आधार पर निम्न नौ कृतियां बताई हैं।-
1 महाभाष्यटीका, 2 वाक्यपदीय, 3 वाक्यपदीय के प्रथम दो कांडों पर स्वोपज्ञा वृत्ति, 4 शतकत्रय-नीति श्रृंगार एवं वैराग्य, 5 मीमांसासूत्रवृत्ति, 6 वेदांतसूत्रवृत्ति, 7 शब्द –धातुसमीक्षा, 8 भागवृत्ति, 9 भर्तृहाव्य
इनमें आठवें ग्रंथ के उनके द्वारा रचित न होने का कारण यह है कि न तो इसकी भाषा ही भर्तृहरि की प्रकृति के अनुकूल एवं सरल है और न ही इसमें व्यक्त बहुत से समाधान भर्तृहरि के महाभाष्यटीकोक्त एवं वाक्यपदीयोक्त मतों से मिलता है। शेष सातों रचनों में से प्रथम चार तो किसी न किसी रूप में उपलब्ध हैं, जबकि संख्या 5 से 7 तक की पुस्तकों का उनके नाम से केवल उल्लेख मात्र मिलता है।
''वाक्यपदीय'' तीन कांडों में निबध्द रचना है। पूर्वोक्त टीका में भर्तृहरि महाभाष्य की उक्तियों पर ही टिप्पणी कर रहे थे, अत: उन्हें अपने मतव्यों को न तो व्यक्त करने का अवकाश था और न ऐसा करना उचित ही था। इसीलिए भर्तृहरि ने उस प्रसंग में व्यक्त किए गए अपने संपूर्ण भाषाचितंन एवं व्याकरण दर्शन को स्वतंत्र रूप से पुनर्गठित करने पूर्ण स्वतंत्रता के साथ ''वाक्यपदीय” के तीन कांडों में निबद्ध किया है।
महाभाष्यटीका:-
कैयट के ''महाभाष्यप्रदीप'' के अध्ययन एवं विश्लेषण से पता चलता है कि उसे न केवल ''वाक्यपदीय'' एवं ''महाभाष्यटीका'' दोनों का पूरा परिचय था, बल्कि उसने उन दोनों का पूरा लाभ भी उठाया है। तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि कैयट एवं महाभाष्य के अन्य अनेक परवर्ती टीकाकारों ने भर्तृहरि की ''महाभाष्यटीका'' का अनुकरण संक्षेप मात्र ही किया है। स्वयं भर्तृहरि अपने वाक्यपदीय में 'भाष्य' की ओर बार बार इंगित करते हैं। वे सब बातें महाभाष्य में उल्लिखित नहीं मिलती। यदि भर्तृहरि की टीका पूर्णत: उपलब्ध होती, तब उनका तथ्यांकन हो सकता था। दूसरी ओर, यदि उनकी टीका का विश्लेषण किया जाये, तो वाक्यपदीय का कोई भी अध्येता यह पाएगा कि पदे-पदे वाक्यपदीय के ही वक्तव्य गद्यात्मक ढंग से कहे गये हैं। यह अवश्य है कि कहीं-कहीं शब्दावली वाक्यपदीय में प्रयुक्त शब्दावली से भिन्न हैं। पूर्ण विश्लेषण करने पर विद्वानों ने पाया है कि टीका की रचना निश्चय ही भर्तृहरि पहले ही कर चुके थे।
वाक्यपदीय:-
पिछले दो-तीन दशको में ही इस अकेली कृति ने विश्व के भाषाविदों का जितना ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है, उतना किसी अन्य कृति ने नहीं। इसलिए इसे सवाधिक प्रामाणिक माना जाता है। इस पर भी क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इसी शती के पाचवें दशक कके पूर्वार्ध्द तक इस कृति का एक भी पूर्ण एवं संपादित संस्करण उपलब्ध नहीं था जो कुछ था भी न मिलता था। पंचम दशक के उत्तरार्ध्द में इसके प्रथम कांड ब्रह्मकांड का पूर्ण एवं प्रामाणिक प्रथम संस्करण लाहौर से संपादित हुआ। भर्तृहरि के वाक्यपदीय को तीन काडों में विभाजित किया गया है।
1 प्रथम कांड: आगम या ब्रह्मकांड
2 द्वितीय कांड: वाक्यकांड
3 तृतीय कांड: व्याकरण का दर्शन
भाषाविज्ञान संबंधी योगदान :-
भर्तृहरि ने व्याकरण और भाषाविज्ञान दोनों ही क्षेत्र में अभूतपूर्ण योगदान दिए हैं। त्रिपदी टीका एवं वाक्यपदीय में व्यक्त धारणाओं एवं विवेचन को, व्याकरण संबंधी सामान्य धारणा से पृथक करके, महाभाष्य की पृष्ठभूमि पर समझने का प्रयास करना चाहिए।
1 वाक्: अभिव्यक्ति का माध्यम -
भर्तृहरि के अनुसार यदि वाणी का भाषा रूप या भषिक रूप न रहे, तो समस्त ज्ञान-विज्ञान ही नहीं, मानव की समस्त चेतन प्रक्रिया तक अर्थहीन हो जाएगी।
2 भाषा की परिभाषा:-
प्रयोक्ता (वक्ता) और ग्रहीता (श्रोता) के बीच अभिप्राय या आदान-प्रदान केवल शब्द के ही माध्यम से होता है। ज्यों ही प्रयोक्ता का बुद्धयर्थ बन जाता है, भाषा या शब्द का कार्य पूरा करता है।
3 भाषा का ज्ञानार्जन:-
भाषा सीखते समय बालक जो अशुध्द उच्चारण करता है, उसका दर्थ विनिश्चय उसके मूल शब्द के द्वारा किया जाता है।
4 भाषा:संस्कृत और प्राकृत रूप -
भाषा विकास के संबंध में प्रमुखत: दो मत हैं: ''अनित्यवाद एवं नित्यवाद। नित्यवाद के अनुसार भाषा दैवी या देव प्रदत्त है और उसे जन प्रचलित नए नए प्रयोग के द्वारा व्यतिकीर्ण होता है। अनित्यवाद के अनुसार जनता में प्रचलित होने वाला रूप ही मूल होता है।
5 साधु-असाधु प्रयोग:-
साधु या व्याकरण सम्मत शब्द वह है जो शिष्ट प्रयोग का विषय हो तथा आगम अर्थात शास्त्रादि में धर्मादि साधन के लिए व्यवहृत होता हो। आगम का अर्थ परंपरा से अविच्छिन्न उपदेश अर्थात श्रुतिस्मृति लक्षण ज्ञान हैं धर्म का विधान उन्ही श्रुतियों में किया है। श्रुति को अकर्तृक, अनादि और अविच्छिन्न माना है।
6 अपभ्रंश या लोकभाषा का महत्व:-
जिस प्रकार श्रुति के अविच्छिन्न होने से उसमें प्रयुक्त शब्द नित्य होते हैं, उसी प्रकार अर्थ को वहन करने एवं जन प्रयोग होने के कारण असाधु या अपभ्रंश शब्द भी अव्यवच्छेय होते हैं।
7 व्याकरण का प्रयोजन और क्षेत्र-
व्याकरण का प्रयोजन किसी नवीन या कृत्रिम भाषा का निर्माण नहीं है, बल्कि जनप्रयोग किसी शिष्ट प्रयोगाकूल शब्दों का साधुत्व विधान है ताकि उन शब्दों का प्रचलन एवं अनुकरण अधिकाधिक एवं उचित रूप में हो सके। आगम और श्रुति के नित्य एवं परंपरागत रूप में अविच्छिन्न होने के कारण साधु प्रयोग भी नित्य एवं विहित प्रयोगों पर आश्रित होता है। इसी कारण व्याकरण भी एक स्मृति ही है। इस व्याकरण का क्षेत्र केवल ''वैखरी'' या उच्चरित वाक् तक ही सीमित नहीं है, प्रत्युत ''मव्यमा और पश्यंती'' भी इसी के क्षेत्र में आती हैं।
8 शब्दब्रह्म-
मानव अभिव्यक्ति का एकमात्र माध्यम होने के वाक् या शब्द नित्य है, इसकी अर्थभावना से ही जागतिक प्रकिया चल पाती है।
-प्रस्तुति
योगेश उमाले
एम.ए., भाषा-प्रौद्योगिकी विभाग
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